नोट छापना सरकार का काम है। ऐसे में सवाल उठता है कि वह एकसाथ ढेर सारे नोट छापकर लोगों की गरीबी क्यों नहीं दूर कर देती है। यह सवाल हर किसी के मन में कभी न कभी जरूर उठा होगा। कुछ देशों ने नोट छापकर विदेशी कर्ज उतारने और गरीबी दूर करने जैसी कोशिश भी की। लेकिन उनका हाल देखकर फिर किसी की हिम्मत नहीं हुई।
बिजनेस डेस्क, नई दिल्ली। जब पैसे छापना सरकार का ही काम है, तो वह एकसाथ ढेर सारे नोट छापकर लोगों की गरीबी क्यों नहीं दूर कर देती। कई लोग आपसी बातचीत में अक्सर यह बात कहते नजर आते हैं। आपके मन में भी यह बात कभी न कभी जरूर आई होगी।
लेकिन, यह कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही मुश्किल। तकरीबन नामुमकिन ही कह सकते हैं। इससे लंबी अवधि में फायदा तो कुछ नहीं होगा, अलबत्ता महंगाई जैसी दूसरी कई परेशानियां अलग से बढ़ जाएंगी। गरीबों की जिंदगी पहले से कहीं अधिक बदहाल भी हो सकती है।
नोट छापकर परेशानी क्यों नहीं दूर करतीं सरकारें?
कोई भी देश अपनी आर्थिक मुश्किलें दूर करने के लिए अमूमन वर्ल्ड बैंक या फिर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) जैसी संस्थाओं से कर्ज लेता है, जबकि उसके पास जितने मर्जी नोट छापने की सहूलियत होती है। इसकी सबसे ताजा मिसाल पाकिस्तान है। वहां आर्थिक संकट चरम पर है, लेकिन पाकिस्तानी हुकूमत ज्यादा नोट छापने के बजाय IMF से कर्ज पाने के लिए उसकी कड़ी से कड़ी शर्तें मानने को तैयार है।
इसकी वजह बड़ी साफ है। फर्ज कीजिए कि आप एक गांव में रहते हैं। वहां सब्जीवाला आलू 20 रुपये और टमाटर 30 रुपये किलो जैसी तर्कसंगत कीमतों पर बेचता है। फिर सरकार गरीबी दूर करने के लिए बहुत ज्यादा नोट छापकर उस गांव में सबको 1-1 करोड़ रुपये बांट देती है। अब सब्जीवाले के पास भी 1 करोड़ रुपये हैं, तो वह 20 रुपये किलो आलू और 30 किलो टमाटर क्यों बेचेगा?
इस सूरतेहाल में दो चीजें होंगी। पहली तो सब्जीवाला सब्जी बेचना बंद करके खुद ठाठ से रहने की कोशिश करेगा। दूसरा, वह सब्जियों के दाम बढ़ा देगा, ताकि उसे अपनी हैसियत के अनुसार मुनाफा हो और वह दूसरों से आगे बढ़े। सब्जीवाला 20 रुपये किलो आलू का दाम 2 हजार रुपये किलो भी कर सकता है। इसी तरह से दूध या किराना वाले भी अपनी चीजों के दाम बढ़ा देंगे। और समस्या पहले से ज्यादा बढ़ जाएगी।
वेनेजुएला और जिम्बाब्वे हैं इसकी मिसाल
दक्षिण अमेरिकी देश वेनेजुएला और अफ्रीकी मुल्क जिम्बाब्वे ने नोट छापकर कर्ज उतारने और गरीबी दूर करने की कोशिश की थी, लेकिन दोनों ही देश अपना हाथ जला बैठे। जब जनता के हाथ में बेहिसाब पैसा पहुंचा, तो उन्होंने जमकर खरीदारी भी शुरू कर दी। जब सप्लाई से अधिक डिमांड होने लगी, तो चीजों के दाम भी आसमान छूने लगे।
कभी अपनी अमीरी के लिए मशहूर वेनेजुएला की पहचान उसकी अनियंत्रित महंगाई बन गई। वेनेजुएला में आज भी पेट्रोल पानी से सस्ता है, लेकिन वहां एक पैकेट ब्रेड की कीमत भी लाखों डॉलर में पहुंच गई थी। कई गरीब या तो भूखे पेट सो रहे थे, या फिर कचरे में से जूठा खाना खा रहे थे। लाखों लोगों ने बेहतर जिंदगी की तलाश में वहां से पलायन भी कर लिया था।
जिम्बाब्वे का हाल भी इससे कम बुरा नहीं था। वहां तो महंगाई दर करीब 25 करोड़ फीसदी तक बढ़ गई थी। सरकार ने मुद्रास्फीति के आधिकारिक आंकड़े तक जारी करना बंद कर दिया था। एक सरकारी बैंक ने एटीएम से पैसे निकालने पर डेटा ओवरफ्लो एरर दिखाया, क्योंकि उसमें सिस्टम की हद से ज्यादा जीरो हो गए थे। आखिर में जिम्बाब्वे को दूसरे देशों की करेंसी को अपनाना पड़ा।
ज्यादा करेंसी छापने के नुकसान क्या हैं?
अगर कोई भी देश अधिक करेंसी छापता है, तो उससे महंगाई तो बढ़ती ही है, उसकी करेंसी का मूल्य भी घट जाता है। वेनेजुएला के पास दुनिया का सबसे बड़ा कच्चे तेल का भंडार है, लेकिन उसने अंधाधुंध नोट छापकर अपनी यह हालत कर ली थी कि एक अमेरिकी डॉलर की बराबरी के लिए 2.5 करोड़ वेनेजुएला डॉलर खर्च करने पड़े थे। अब अगर भारत तय मानक से अधिक नोट छापकर जनता में बांट देता है, तो उसकी सॉवरेन रेटिंग पर बुरा असर पड़ेगा। सॉवरेन रेटिंग को आप देशों का सिबिल स्कोर समझ सकते हैं।
अगर सॉवरेन रेटिंग ज्यादा खराब हो जाएगी, तो वही दिक्कत होगी, जो सिबिल स्कोर खराब होने पर होती है। मतलब वर्ल्ड बैंक और दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से कर्ज मिलना मुश्किल हो जाएगा। और अगर मिलेगा भी, तो ब्याज काफी ज्यादा देना पड़ेगा। इसका मतलब कि देश कभी न निकलने वाले कर्ज के जाल में फंस जाएगा।यही वजह है कि देश अपनी जीडीपी के अनुपात में नोट छापते हैं। यह अनुपात आमतौर पर जीडीपी का 1 से 2 प्रतिशत तक होता है। कई बार देश नोट छापने के लिए राजकोषीय स्थिति और विकास दर को भी पैमाना बनाते हैं। इससे देश में महंगाई स्थिर रहती है। साथ ही, करेंसी का एक्सचेंज रेट भी एकाएक हद से ज्यादा नहीं गिरता, जैसा कि वेनेजुएला और जिम्बाब्वे के मामले में हुआ था।
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