विचार: हर मोर्चे पर महा साबित हुआ राजग, सभी दांव कारगर रहे; महागठबंधन नाकाम
बिहार के अनुभव से शायद ही उसे ज्यादा भाव मिले। कुछ समय के लिए जदयू के साथ से सत्ता के स्वाद को छोड़ दिया जाए तो पिछले 20 साल से राजद विपक्ष में ही है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद को हार पहले भी मिली है, लेकिन इतनी तगड़ी हार के बाद न केवल पार्टी, बल्कि परिवार के भीतर भी उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठने लगेंगे। आने वाले दिनों में राजद को अपने अस्तित्व की लड़ाई भी लड़नी पड़ सकती है।
HighLights
राजग की बिहार में प्रचंड जीत
भाजपा पहली बार सबसे बड़ी पार्टी
नीतीश कुमार का पांचवीं बार राजतिलक
राहुल वर्मा। बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम कई मायनों में चौंकाने वाले रहे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग को मिले प्रचंड बहुमत ने उन दावों की हवा निकालने का काम किया, जो यह जता रहे थे कि चुनाव में बड़े कांटे की टक्कर है। राजग ने इस चुनाव को एकतरफा बना दिया और राजद, कांग्रेस और वीआइपी जैसे दलों के महागठबंधन को ऐसी करारी शिकस्त दी, जिससे उबरने में उन्हें काफी समय लग सकता है। चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर के लिए भी यह जनादेश ऐसी सीख देने वाला साबित हुआ कि चुनाव जितवाने और जीतने में जमीन-आसमान का अंतर होता है।
बिहार का जनादेश राज्य की राजनीति से लेकर राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य को भी एक बड़ी हद तक प्रभावित करेगा। पहली बार भाजपा सीटों के लिहाज से राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। वहीं, जदयू ने भी पिछले चुनाव की तुलना में जबरदस्त वापसी की है। नीतीश कुमार अपने नेतृत्व में पांचवें चुनाव में जीत दिलाकर उन चुनिंदा क्षत्रपों में शामिल हो गए, जो अलग-अलग राज्यों में यह करिश्मा दिखाने में सफल रहे हैं। राजग की इतनी बड़ी जीत में किसी एक पहलू की ही भूमिका नहीं हो सकती। इसका एक ही पंक्ति में यही सार निकाला जा सकता है कि जहां राजग के सभी दांव कारगर रहे, वहीं विपक्षी महागठबंधन के सभी दांव विफल साबित हुए।
राजग की जीत के कारणों की पड़ताल करें तो बिहार चुनाव की रेस में यह गठबंधन एक तरह से ‘पोल पोजीशन’ यानी बढ़त की स्थिति के साथ शुरुआत करता है। गठबंधन में शामिल दलों के विविधता से भरे सामाजिक समीकरण राजग को यह स्वाभाविक बढ़त दिलाते हैं। महागठबंधन का नेतृत्व करने वाला राजद जहां अर्से से अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव गठजोड़ पर निर्भर रहा है, वहीं राजग ने अपना आधार बरकरार रखते हुए नए-नए वर्गों में भी अपनी पैठ बनाई है।
इस चुनाव से कुछ महीने पहले भी राजग ने जमीनी हालात को भांपते हुए अपनी कमजोरियों को दुरुस्त करने में तत्परता दिखाई। राजग के दलों के बीच सीटों का सटीक बंटवारा हुआ। दूसरी ओर, विपक्षी खेमा अंत तक दुविधा से ग्रस्त दिखा। राजग में किसी तरह की फूट नहीं दिखाई दी तो महागठबंधन में कई सीटों पर ‘फ्रेंडली फाइट’ ने भी उसकी मुश्किलें बढ़ाने का ही काम किया, जो नतीजों में स्पष्ट रूप से नजर भी आया।
नेतृत्व का पहलू भी राजग के लिए निर्णायक साबित हुआ। राजग जहां प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में उतरा था तो उसके सामने राहुल गांधी और तेजस्वी की जोड़ी थी। मोदी केंद्र सरकार के कामकाज और नीतीश राज्य सरकार के कामकाज को गिना रहे थे और उनके प्रचार का स्वरूप कुछ भिन्नता लिए हुए भी सुसंगति से परिपूर्ण था। दोनों ही नेता अपने-अपने राज्यों में लंबे अर्से तक मुख्यमंत्री भी रहे हैं।
मोदी कई वर्षों से देश की कमान संभाले हुए हैं तो नीतीश के पास भी केंद्र सरकार के कामकाज का अनुभव रहा है। कुल मिलाकर नेतृत्व क्षमता से लेकर अनुभव और गवर्नेंस के मामले में महारत से यह जोड़ी विपक्षियों पर बहुत भारी पड़ी। विपक्षी जोड़ी में राहुल वोट चोरी और अंबानी के यहां शादी में शिरकत जैसे मुद्दों को तूल दे रहे थे तो तेजस्वी बेरोजगारी और युवाओं को जोड़ने पर ध्यान देने में लगे थे। उनके प्रचार में तारतम्यता नहीं दिखी। तेजस्वी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने में भी आनाकानी की गई।
नीतीश कुमार की लोकप्रियता भी राजग के लिए वरदान साबित हुई। शुरुआत में मुख्यमंत्री को लेकर ऊहापोह के बाद चुनावों के बीच ही भाजपा के दिग्गजों द्वारा नीतीश की पैरवी गठबंधन के लिए उपयोगी साबित हुई। पिछली बार अलग विधानसभा चुनाव लड़कर चिराग पासवान ने राजग को क्षति पहुंचाई थी, लेकिन इस बार उन्हें भी चुनाव से पहले ही साध लिया गया।
यही कारण है कि पांच साल पहले कड़ी टक्कर वाला चुनाव इस बार एकतरफा हो गया। राजद के साथ फिर कभी न जाने की बात को नीतीश द्वारा बार-बार दोहराने से भी उनके प्रति पालाबदल को लेकर खराब हुई धारणा कुछ सुधरी। जनता के मन को इस पहलू ने भी प्रभावित किया हो कि शायद यह नीतीश कुमार की सक्रियता वाला अंतिम चुनाव हो तो जिस व्यक्ति ने गर्त में जा रहे राज्य को फिर से प्रगति की ओर उन्मुख करने में अहम भूमिका निभाई हो, उसे एक शानदार जीत से एक यादगार विदाई भी दी जाए।
महिला मतदाता एक के बाद एक चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगी हैं। यह भी एक कारण है कि उन्हें ध्यान में रखकर घोषणाएं की जाने लगी हैं। बिहार चुनाव में भारी मतदान में भी महिलाओं का प्रमुख योगदान रहा। महिला मतदाताओं के बीच नीतीश की पैठ पहले से ही काफी मजबूत रही है। शराबबंदी के उनके फैसले की सबसे बड़ी समर्थक भी महिलाएं रही हैं। चाहे छात्राओं को साइकिल देने की पहल हो या जीविका दीदी जैसी योजना, उसने महिलाओं में नीतीश की लोकप्रियता बढ़ाई। इस कड़ी में चुनाव से पहले 10,000 रुपये की वित्तीय मदद और प्रदर्शन के आधार पर उसे दो लाख रुपये करने की घोषणा राजग के लिए सोने पर सुहागा जैसी साबित हुई।
राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य बिहार के जनादेश की छाप आगामी विधानसभा चुनावों पर भी दिखेगी। बिहार के निकटवर्ती राज्यों बंगाल और असम में भाजपा का हौसला बढ़ेगा तो ऐसी करारी हार कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ाने के साथ ही राजनीतिक मोलभाव की उसकी क्षमताएं घटाएगी। वह केवल केरल और असम में अपने दम पर लड़ने की स्थिति में है। जबकि बंगाल और तमिलनाडु में उसे सहयोगियों के समर्थन पर ही निर्भर रहना पड़ेगा।
बिहार के अनुभव से शायद ही उसे ज्यादा भाव मिले। कुछ समय के लिए जदयू के साथ से सत्ता के स्वाद को छोड़ दिया जाए तो पिछले 20 साल से राजद विपक्ष में ही है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद को हार पहले भी मिली है, लेकिन इतनी तगड़ी हार के बाद न केवल पार्टी, बल्कि परिवार के भीतर भी उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठने लगेंगे। आने वाले दिनों में राजद को अपने अस्तित्व की लड़ाई भी लड़नी पड़ सकती है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)













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