संजय गुप्त। भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में शानदार जीत हासिल कर सत्ता अपने पास बरकरार रखी। महाराष्ट्र जैसे राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य में भाजपा गठबंधन की जीत उसका मनोबल बढ़ाने वाली है। महाराष्ट्र में भाजपा के साथ उसके सहयोगी दलों शिवसेना (शिंदे) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी (अजीत पवार) ने अपेक्षा से अधिक बेहतर प्रदर्शन किया। विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि कुछ माह पहले हुए लोकसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा था। लोकसभा चुनाव में उसके सहयोगी दल और विशेष रूप से अजीत पवार की एनसीपी को भी झटका लगा था। महाराष्ट्र के पहले भाजपा ने हरियाणा में भी जीत हासिल की थी और वह भी तब, जब कांग्रेस के लिए स्थितियां अनुकूल थीं। साफ है कि भाजपा फिर कांग्रेस पर भारी पड़ी।

महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में भाजपा के निराशाजनक प्रदर्शन के लिए एक कारण यह माना गया था कि राज्य की जनता को अजीत पवार का भाजपा गठबंधन के साथ आना रास नहीं आया, जिन्हें एकनाथ शिंदे सरकार में उपमुख्यमंत्री बनाया गया था। लोकसभा चुनाव में भाजपा को इस प्रचार का नुकसान उठाना पड़ा था कि उसने सत्ता के लिए पहले शिवसेना में तोड़फोड़ कराई और फिर एनसीपी में। लगता है कि इसे भांपकर महायुति यानी भाजपा, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजीत पवार) के नेताओं ने इसके लिए विशेष प्रयत्न किए कि गठबंधन में सामंजस्य नजर आए। चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि इन तीनों दलों के नेता एकजुटता का प्रदर्शन करने और जनता का भरोसा जीतने में सफल रहे। यह काम महाराष्ट्र विकास आघाड़ी के नेता नहीं कर सके। उनमें एक तो सीटों को लेकर खींचतान जारी रही और दूसरे आपसी विश्वास की कमी भी दिखती रही। कारणवश विधानसभा चुनावों में तीनों दलों-कांग्रेस, एनसीपी (शरद पवार) और शिवसेना (उद्धव ठाकरे) को नुकसान उठाना पड़ा। शिवसेना (उद्धव ठाकरे) को इसलिए भी नुकसान उठाना पड़ा, क्योंकि वह एक बेमेल गठबंधन का हिस्सा नजर आ रही थी। लगता है लोगों को यह रास नहीं आया कि जो शिवसेना सदैव कांग्रेस और एनसीपी के खिलाफ खड़ी रही, वह उन्हीं के पाले में चली गई। शिवसेना अपनी दयनीय स्थिति के लिए अन्य किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती।

महाराष्ट्र में भाजपा गठबंधन की जीत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। चूंकि लोकसभा चुनावों में आरएसएस के कार्यकर्ता देश के अन्य हिस्सों की तरह महाराष्ट्र में भी उदासीन रहे थे, इसलिए भाजपा को अच्छा-खासा नुकसान उठाना पड़ा था। उनकी उदासीनता और नाराजगी का कारण भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का यह बयान था कि अब पार्टी को आरएसएस के सहयोग की आवश्यकता नहीं है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि भाजपा आरएसएस कार्यकर्ताओं की नाराजगी दूर करने और चुनाव में उनका सहयोग लेने में सफल रही। आरएसएस ने महाराष्ट्र चुनावों में भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने का काम इसलिए भी किया होगा, क्योंकि नागपुर में उसका मुख्यालय है और यदि भाजपा बेहतर प्रदर्शन नहीं करती तो उस पर भी सवाल उठते।

जहां महाराष्ट्र में भाजपा की जीत उसे उत्साहित करने वाली है, वहीं झारखंड के नतीजे निराश करने वाले हैं। झारखंड के चुनाव परिणाम यह स्पष्ट कर रहे हैं कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लगे और जिनके चलते उन्हें जेल जाना पड़ा, उसका कोई असर उनके समर्थकों और विशेष रूप से आदिवासी समाज पर नहीं पड़ा। चुनाव नतीजों से साबित हुआ कि हेमंत सोरेन की आदिवासियों पर अब भी अच्छी-खासी पकड़ है। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ कांग्रेस ने भी बेहतर प्रदर्शन किया। दोनों दल एक-दूसरे के पक्ष में अपना वोट ट्रांसफर करने में सफल रहे। इस बार झारखंड में राष्ट्रीय जनता दल ने भी अच्छा प्रदर्शन करके गठबंधन को मजबूती दी। इस सबके बाद भी कांग्रेस ऐसी स्थिति में आती नहीं दिख रही कि वह झारखंड में अपने खोए हुए जनाधार को फिर से हासिल कर सकती है।

यह साफ है झारखंड में हेमंत सोरेन की जीत से कांग्रेस का वैसा मनोबल नहीं बढ़ने वाला, जैसा महाराष्ट्र के नतीजों से भाजपा का बढ़ने वाला है। कांग्रेस को अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सहारे ही रहना होगा। उसकी यही स्थिति महाराष्ट्र में भी रहने वाली है। सच तो यह है कि महाराष्ट्र में उसकी स्थिति और खराब होती दिख रही है। वह शरद पवार की जिस एनसीपी के भरोसे रहती थी, वह अब कहीं अधिक कमजोर दिखने लगी है और यह तय ही है कि शिवसेना (उद्धव ठाकरे) का साथ लेकर वह महाराष्ट्र में अपनी स्थिति मजबूत नहीं कर सकती। यह भी एक तथ्य है कि कांग्रेस का साथ लेकर शिवसेना (उद्धव ठाकरे) भी अपना भला नहीं कर सकती।

झारखंड में भाजपा न तो खुद बेहतर प्रदर्शन कर सकी और न ही उसकी सहयोगी पार्टी। इस आदिवासी बहुल राज्य में भाजपा ने घुसपैठ का जो मुद्दा उठाया, वह उसके काम नहीं आया। इसी तरह उसकी ओर से उठाया गया मतांतरण का मुद्दा भी असरकारी नहीं दिखा। भाजपा ने चम्पाई सोरेन को अपने पाले में लाकर राजनीतिक बढ़त लेने का जो दांव चला था, वह भी उसके लिए हितकारी साबित नहीं हुआ। ज्ञात हो कि हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद चम्पाई सोरेन मुख्यमंत्री बने थे और जब हेमंत फिर से मुख्यमंत्री बन गए थे तो उन्होंने नाराज होकर झारखंड मुक्ति मोर्चा छोड़ दिया था।

झारखंड और महाराष्ट्र के चुनावों में महिला मतदाताओं की भूमिका निर्णायक दिखी। दोनों राज्यों में सत्ताधारी दलों ने महिला मतदाताओं को रिझाने के लिए जो उपाय किए, वे कारगर साबित हुए। जहां महाराष्ट्र में माझी लाडकी बहिन योजना ने महिलाओं को आकर्षित किया, वहीं झारखंड में मंइयां सम्मान योजना महिलाओं को लुभाने में सफल रही। महाराष्ट्र और झारखंड में महिलाओं को रिझाने वाली योजनाओं ने अपना असर अवश्य दिखाया, लेकिन इसलिए नहीं कि इन दोनों राज्यों में महिला उत्थान के लिए कुछ ठोस काम हुए हैं, बल्कि इसलिए कि महिलाओं ने यह पाया कि सरकार की ओर से उनके खाते में पैसा भेजा जा रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ हैं, पर महिला मतदाता जिस तरह निर्णायक साबित होने लगी हैं, उसे देखते हुए भाजपा के लिए खुद को इस संस्कृति से दूर रख पाना संभव नहीं।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]