जागरण संपादकीय: बोझिल नियमों से मुक्त हो विनिर्माण क्षेत्र, एमएसएमई और उभरते उद्योगों पर देना होगा ध्यान
निर्यात बढ़ाने के लिए पीएलआई योजना को एमएसएमई और उभरते उद्योगों तक बढ़ाया जाना चाहिए। भारत भविष्य में खुद को अगला वैश्विक कारखाना बना सकता है बशर्ते बोझिल नियमों से विनिर्माण क्षेत्र को मुक्त किया जाए। सरकार को यह समझने की जरूरत है कि संसद के माध्यम से कोई विधेयक पारित करना निवेशक सम्मेलन आयोजित करना आदि औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त नहीं।
डॉ. ब्रजेश कुमार तिवारी। मेक इन इंडिया मोदी सरकार की एक प्रमुख योजना है। 25 सितंबर, 2014 को शुरू हुई यह योजना दस वर्ष पूरे कर चुकी है। इस अभियान के कुछ घोषित लक्ष्य थे, जैसे विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर 12-14 प्रतिशत प्रति वर्ष करते हुए 2022 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण के योगदान को 25 प्रतिशत तक बढ़ाना और 2022 तक अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र की 10 करोड़ अतिरिक्त नौकरियां पैदा करना।
अब इन लक्ष्यों को 2025 तक बढ़ा दिया गया है। हालांकि मौजूदा गति और बुनियादी ढांचे की कमी के कारण यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य 2030 तक भी पूरा होता नहीं दिख रहा है। कोविड महामारी के दौरान यह प्रचारित किया गया कि चीन छोड़ने वाली कंपनियां भारत में आएंगी, लेकिन इनमें से अधिकांश ने वियतनाम, ताइवान एवं थाइलैंड की राह पकड़ी और केवल कुछ ही भारत आईं।
यह सच है कि सरकार निरंतर आर्थिक विकास करने और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में प्रासंगिकता बढ़ाने के लिए एक प्रतिस्पर्धी और गतिशील वातावरण बनाने का प्रयास कर रही है और इसके अच्छे परिणाम भी कुछ क्षेत्रों में दिख रहे हैं। भारतीय कंपनियों द्वारा कोविड टीकों का विकास एक बड़ा उदाहरण है। सरकार के प्रयासों के कारण 2014-2023 के दौरान विनिर्माण क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ा है।
परंपरागत रूप से खिलौनों का आयातक रहा भारत अब निर्यातक बन गया है। अप्रैल-अगस्त 2022 में भारत के खिलौना निर्यात में 2013 की समान अवधि की तुलना में 636 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसी तरह मोबाइल उत्पादन 2014-15 में 18,900 करोड़ रुपये से बढ़कर वित्त वर्ष 2024 में 4,10,000 करोड़ रुपये के अनुमानित बाजार तक पहुंच गया।
एयरोस्पेस, नवीकरणीय ऊर्जा जैसे अन्य क्षेत्रों में भी प्रगति हो रही है। आइबीईएफ की रिपोर्ट के अनुसार 2023 में विनिर्माण क्षेत्र ने अब तक का सबसे अधिक निर्यात किया, जो 447.46 अरब डालर तक पहुंच गया है। विश्व बैंक द्वारा जारी ईज आफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स में 2014 में भारत की रैंक 134वीं थी, जो 2023 में बढ़कर 63 हो गई।
वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता रिपोर्ट इंडेक्स में भारत 43वें स्थान पर है, जो 2014 में 60वें स्थान पर था। इसके बावजूद मैन्यूफैक्चरिंग में संभावनाएं पूरी तरह साकार नहीं हो पा रहीं। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता कि हाल के वर्षों में जनरल मोटर्स, मैन ट्रक्स, यूनाइटेड मोटर्स, फिएट और हार्ले डेविडसन ने भारतीय बाजार से निकलने का फैसला किया। फेडरेशन आफ आटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन के अनुसार इन निकासियों के चलते 65,000 नौकरियां चली गईं। एक कंपनी के बंद होने से हजारों श्रमिकों का विस्थापन होता है।
हम चीन से तुलना करना पसंद करते हैं। उसकी जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग की हिस्सेदारी 34 प्रतिशत है। भारत की तुलना में जीडीपी में विनिर्माण का बड़ा हिस्सा रखने वाले अन्य एशियाई देशों में दक्षिण कोरिया (26 प्रतिशत), जापान (21 प्रतिशत), थाइलैंड (27 प्रतिशत), सिंगापुर और मलेशिया (21 प्रतिशत), इंडोनेशिया और फिलीपींस (19 प्रतिशत) शामिल हैं। चीन ने खुद को दुनिया के कारखाने के रूप में स्थापित किया है और वैश्विक विनिर्माण में उसका हिस्सा 22.4 प्रतिशत है, जबकि पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत वैश्विक विनिर्माण में बमुश्किल 2.9 प्रतिशत योगदान देता है।
चीन से आयात छोटे उद्यमों को बड़ा नुकसान पहुंचा रहा है, क्योंकि सस्ते चीनी सामान के कारण घरेलू कंपनियों के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा कठिन हो रही है। ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के अनुसार कई आयातित उत्पाद स्थानीय एमएसएमई द्वारा बनाए जाते हैं और कम लागत वाले चीनी उत्पादों तक आसान पहुंच के कारण उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए चीन भारत के 96 प्रतिशत छाते, 92 प्रतिशत कृत्रिम फूल और मानव बालों से बनी वस्तुओं की आपूर्ति करता है। चीनी आयात ने कांच के सामान में 60, सिरेमिक उत्पादों में 51.4 और संगीत वाद्ययंत्रों में 52, फर्नीचर, बिस्तर और लैंप में 48.7 प्रतिशत, औजार और कटलरी में 39.4 प्रतिशत, पत्थर, प्लास्टर और सीमेंट में 49.3 प्रतिशत, चमड़े की वस्तुओं के बाजार के 54 प्रतिशत तक पर कब्जा कर लिया है।
सरकार द्वारा खिलौनों पर सीमा शुल्क 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 70 प्रतिशत करने के बावजूद भारतीय खिलौना बाजार में चीन का 35 प्रतिशत हिस्सा है। इस स्थिति के बारे में विचार किया जाना चाहिए। हाल में विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन अभी वांछित नतीजे नहीं मिल सके हैं।
पिछले एक दशक में देश में स्टार्टअप की संख्या 350 से 1.48 लाख हो गई, पर आज भी 80 प्रतिशत स्टार्टअप फेल हो रहे हैं। हमें शिक्षा, प्रशिक्षण और आजीवन सीखने के कार्यक्रमों के माध्यम से कार्यबल के कौशल और क्षमताओं को बढ़ाना होगा, जो उद्योगों की जरूरतों और मांगों से मेल खा सके।
समय के साथ स्मार्ट विनिर्माण को बढ़ावा देना होगा और एआइ, रोबोटिक्स आदि जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों को अपनाना होगा। भारत में एमएसएमई क्षेत्र का विनिर्माण उत्पादन में 45 प्रतिशत से अधिक योगदान है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एमएसएमई को अधिक कनेक्टिविटी की आवश्यकता है।
निर्यात बढ़ाने के लिए पीएलआई योजना को एमएसएमई और उभरते उद्योगों तक बढ़ाया जाना चाहिए। भारत भविष्य में खुद को अगला वैश्विक कारखाना बना सकता है, बशर्ते बोझिल नियमों से विनिर्माण क्षेत्र को मुक्त किया जाए। सरकार को यह समझने की जरूरत है कि संसद के माध्यम से कोई विधेयक पारित करना, निवेशक सम्मेलन आयोजित करना आदि औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त नहीं।
(स्तंभकार जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर एवं ‘मेक इन इंडिया-ए रोडमैप’ के लेखक हैं)