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'झूठे रिश्ते, झूठी हंसी और...' विवेक अग्निहोत्री ने बॉलीवुड और राजनीति पर कसा तंज, बताई अंदर की बात

विवेक अग्निहोत्री ने बॉलीवुड और राजनीति पर चुटकी ली है। उन्होंने कहा कि चुनाव आते ही बालीवुड का मिजाज गर्म होने लग जाता है। हो भी क्यों ना। बालीवुड और राजनीति का घनिष्ठ संबंध है। गौर से देखिए तो एक ही चिड़िया के यह दो नाम हैं। कई लोग सवाल उठाते हैं कि बालीवुड वालों का राजनीति में क्या काम। भला यह भी कोई बात हुई।

By Rinki Tiwari Edited By: Rinki Tiwari Sun, 28 Apr 2024 08:03 AM (IST)
बॉलीवुड और राजनीति पर विवेक अग्निहोत्री का तंज। फोटो क्रेडिट- इंस्टाग्राम

विवेक अग्निहोत्री, मुंबई। जब नेता अभिनय कर सकते हैं तो अभिनेता नेतागीरी क्यों नहीं? वैसे भी एक रिटायर्ड अभिनेता के लिए राजनीति स्वाभाविक है। क्योंकि रिटायर्ड होते ही अभिनेता का ‘अभी’ निकल जाता है और सिर्फ नेता ही तो बचता है। जब मैं नया-नया बालीवुड में आया था तो एक अभिनेता से मुलाकात हुई। वो रिटायर्ड हो रहे थे या हो गए थे मुझे मालूम नहीं था।

मैं उनसे फिल्म के बारे में बात करने गया था पर वो पूरे समय मुझसे राजनीति की बात करते रहे। एक गमछा भी डाल रखा था, नेताओं जैसा। जब मैं बाहर निकला तो उनके मैनेजर से पूछा कि भाई अभिनेता हैं तो नेताओं जैसे बातें क्यों कर रहे हैं? वो बोला, ‘अभिनेता थे पर ‘अभी’ नेता हैं।’ ‘मैं समझा नहीं, अभिनेता थे अभिनेता हैं मतलब क्या?’ ‘मतलब वो अभिनेता थे। अभी नहीं हैं।’ ‘तो अभी क्या है?’ ‘अभी नेता हैं।’

‘अरे कैसी उलूल-जुलूल बात कर रहे हो भाई। अभिनेता थे, अभिनेता हैं यह तो मैं भी जानता हूं।’ ‘नहीं जो आप जानते हैं वो मैं नहीं कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं वो पहले अभिनेता थे। अब टिकट मिल गया है तो ‘अभी’ नेता हैं।’ ‘अब समझा। तो क्या अभिनय छोड़ दिया है?’ ‘हां, चुनाव तक।’ ‘तो क्या चुनाव के बाद फिर अभिनय करेंगे?’ ‘अगर जीते तो।’ ‘और गर हार गए तो?’ ‘तो क्या? अभिनेता तो वो हैं ही।’

मैं वहां से निकल तो गया पर यह गुत्थी मैं आज तक नहीं सुलझा पाया कि अभिनेता ‘अभी’ नेता है कि हमेशा से नेता था और क्या नेता अभी नेता है या अभिनेता। वैसे बात तो सही है। हरकतें तो दोनों की एक सी हैं। हर रोज नया चेहरा, जैसे खरीदार, वैसा चेहरा। झूठे सपनों की दुनिया, मन लुभाने वाले संवाद, झूठी हंसी, झूठे रिश्ते। यहां भी झूठे फिगर्स, वहां भी झूठे फिगर्स।

पिता जी का सिखाया दर्शन कि ‘जीवन मिथ्या है। जो है, वो है नहीं और जो नहीं है, वो ही है’, याद करके संतोष कर लेता हूं। फिर मैंने अपनी फिल्म के लिए एक नामचीन पटकथा लेखक को लिया। बहुत पैसे मांगे और बोले छह महीने बाद आइए। छः महीने बाद बोले कहानी अभी गाढ़ी हो रही है, छह महीने और लगेंगे। देखते-देखते वक्त निकलता गया। बड़े लेखक थे, अवार्ड्स और हिट फिल्मों का दबदबा था, वैसे ही जैसे एक सफल नेता का होता है। जो वो बोले, वो मानना ही पड़ता है।

धीरे-धीरे चुनाव का समय आ गया तो मैंने गुस्से से फोन किया, ‘साहब अब तो हद ही हो गई है। पिछले चुनाव में आपको साइन किया था अब अगले चुनाव सिर पर आ गए हैं पर आपकी कहानी का कोई अता-पता नहीं’। वो भड़क गए और बोले, ‘ऐसा सवाल कभी किसी नेता से किया है? फिर एक लेखक से ही क्यों?’ ‘भई पैसे आपको दिए हैं काम कराने के, नेता को तो नहीं। उससे क्यों पूछूं’।

‘ऐसा लगता है आपको। जरा हिसाब लगाइए, नेता के वादों पर आपने अपनी पूरी जिंदगी बिता दी, कुछ मिला? अब आपको अपनी जिंदगी की कीमत नहीं पता तो इसमें मेरा क्या दोष?’ मैं खामोश हो गया। वामपंथी लेखक हैं, कुछ सोच-समझकर ही पूछा होगा। ‘आखिर जिंदगी की कीमत क्या है?’ मैंने सोचा।

‘चलिए कोई बात नहीं, स्क्रिप्ट तैयार है, आप शाम को आ जाइए’, उन्होंने इतना बोला और फोन काट दिया।

शाम को उन्होंने कहानी सुनानी शुरू की, एक विदेशी पेग के साथ। फिर बोलते गए, पेग बनाते गए, बोलते गए और बोलते ही रहे। बोलते-बोलते उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि मैं सुन भी रहा हूं या नहीं। उन्होंने यह भी नहीं देखा कि बीच में कई बार मैं सो गया।

लेखक और नेता में एक समानता है कि दोनों को बोलने का बहुत शौक होता है, भले ही श्रोता सुने या ना सुने। अंततः वो चुप हुए। हर बोलने वाले को कभी ना कभी चुप होना ही है, ऐसा विधि का विधान है। ‘बताइए, कैसी लगी स्क्रिप्ट?’ लेखक ने पूछा। बहुत सीनियर हैं तो मैंने कुछ देर अपना सिर खुजाया फिर हिचकिचाते हुए कहा, ‘सर इसमें एक्शन अच्छा है, हास्य है, गानों की सिचुएशन भी बढ़िया हैं, भव्यता है, जोड़-तोड़ भी कमाल है और आइटम नंबर तो लाजवाब हैं पर इसमें कहानी कहां है?’

वो एकदम से भड़क गए। बोले, ‘क्या मतलब कहानी कहां है? ऐसा बेहूदा सवाल आपने कभी किसी नेता से पूछा है? फिर एक लेखक से क्यों? जब लोग एक नेता से कहते हैं कि मुद्दा क्या है तो नेता क्या कहते हैं कि मुद्दा नहीं है, यही मुद्दा है। अब आप समझे। हमारी फिल्म में कहानी नहीं है, यही तो कहानी है।’

मैं पीता नहीं पर फिर भी एक पेग बनाया, लगाया और माथा पकड़कर बैठ गया। वो भी मेरे पास आकर बैठ गए, कंधे पर हाथ रख बोले, ‘बताइए, यह स्क्रिप्ट चाहिए या नहीं? वरना जिस तरह बिना मुद्दों के जनता भारी बहुमत से अपने नेताओं को जिताने के लिए उत्साहित है उसी तरह बालीवुड के बड़े-बड़े निर्माता बिना कहानी की स्क्रिप्ट खरीदने के लिए होड़ लगा रहे हैं।’

उन्होंने मेरे लिए एक पेग और बनाया और प्यार से पूछा, ‘बताइए क्या करना है?’ मैंने पेग पिया और इस गंभीर प्रश्न पर गहन चिंतन किया। फिर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि आखिर मैं कर ही क्या सकता हूं? और मेरे करने से होगा भी क्या। मेरे करने से क्या कहानी मिल जाएगी। अगर बालीवुड के सबसे बड़े, सबसे महंगे, सबसे ज्यादा ख्याति और पुरस्कार प्राप्त लेखक के पास कहानी नहीं है तो बाकी लेखकों के पास तो क्या ही होगी।

जिसके पास होगी, उसके पास कलम-दवात के पैसे नहीं होंगे, वो क्या खाक स्क्रिप्ट लिखेगा। आखिर मैं करूं तो क्या करूं? फिर मैंने उनकी खिड़की के बाहर झांका। चुनाव का वक्त था, हर जगह विज्ञापन ही विज्ञापन चिपके थे। नेताओं की फोटो, चमक-धमक और नारों से भरे विज्ञापन। इतने सारे विज्ञापन थे कि दीवारों पर एक दरार तक नजर नहीं आ रही थी।

दरारें छुप जाने से दीवार भी बहुत मजबूत नजर आ रही थी। एकदम अखंड दीवार। तब जाकर मुझे प्रश्न का उत्तर मिला। जैसे चुनाव में एक वोटर को जर्जर होती दीवार से कोई लेना-देना नहीं होता, उसे तो सिर्फ विज्ञापनों का आकर्षण चाहिए होता है, उसी तरह बालीवुड के दर्शक को कहानी से कोई लेना-देना नहीं होता, उसे तो चाहिए होते हैं फूहड़ चुटकुले और विदेशी माडल्स के आइटम नंबर। मुझे जवाब मिल चुका था।

‘बताइए निर्देशक महोदय, क्या करना है?’ उन्होंने फिर से पूछा। ‘करना यह है कि अब कुछ नहीं करना है। जो करना है वो तो नेता या अभिनेता को करना है। हमें तो सिर्फ मूर्ख बनना है। तो हम कुछ भी क्यों करें।’ लेखक महोदय ठहाका मारकर हंसे और बोले, ‘आप बहुत समझदार हैं। इसीलिए जल्दी समझ गए। चलिए इसी बात पर एक और पेग हो जाए।’ तो अब आप भी समझ जाइए बालीवुड की राजनीति और राजनीति का बालीवुड!