Bandaa Singh Chaudhary Review: मुद्दा संवेदनशील पर बंदा दमदार नहीं, अरशद वारसी को देख याद आएगा 'सर्किट'
अरशद वारसी पिछले काफी समय से फिल्म बंदा सिंह चौधरी को लेकर चर्चा में थे। अब उनकी ये फिल्म दर्शकों के हवाले हो गई है। अभिषेक सक्सेना के निर्देशन में बनी ये फिल्म उस वक्त के समय को दर्शाती है जब पंजाब में उग्रवाद का माहौल था। फिल्म का ट्रेलर तो काफी दमदार था लेकिन क्या मूवी भी शानदार है या नहीं यहां पर पढ़ें पूरा रिव्यू
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। साल 1980 का दौर जब पंजाब गुरुवाणी और बुल्ले शाह की बोलियों के बजाए उग्रवाद की गोलियों से धधक रहा था। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआई पंजाब और पंजाबियत को खोखला करने में लगी थी। फिल्म की कहानी उसी दौर की है। सच्ची घटनाओं पर आधारित है यह फिल्म पिछली सदी के आठवें दशक में पंजाब में फैले हिंदू नरसंहार और सांप्रदायिक वैमनस्य के बारे में बात करती है।
क्या है बंदा सिंह चौधरी की कहानी?
कहानी बंदा सिंह (अरशद वारसी) के इर्दगिर्द बुनी गई है, जिसकी तजेंद्र (जीवेशु अहलूवालिया) के साथ जिगरी दोस्ती है। सरदारिन लल्ली (मेहर विज) को देखते ही बंदा उसे दिल दे बैठता है। थोड़ी लुकाछिपी और नोकझोंक के बाद दोनों की शादी और एक बेटी हो जाती है।
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उनकी खुशहाल जिंदगी में तूफान की दस्तक होती है जब उग्रवादी हिंदुओं से पंजाब छोड़ने को कहते हैं। तजेंद्र के समझाने के बावजूद बंदा अपना पिंड छोड़ने से इनकार कर देता है। उग्रवादियों का सरगना बग्गा (शताफ फिगर) धमकी देता है कि बंदा का सहयोग करने वाले को जान से मार दिया जाएगा। तजेंद्र को अपनी जान देकर दोस्ती की कीमत चुकानी पड़ती है।
तजेंद्र की पत्नी (शिल्पी मारवाह) भी बंदा के खिलाफ हो जाती है। बंदा गांववासियों की बेरुखी, उग्रवादियों की धमकियों से लल्ली के सहयोग से कैसे निपटता है कहानी इस संबंध में हैं।