Berlin Review: नब्बे के दशक की ताजगी में अटकती-भटकती जासूसी की कहानी, निर्देशक की रणनीति आई काम
स्त्री 2 के बिट्टू ने एक बार फिर से अपने अभिनय का लोहा मनवाया। अपारशक्ति- राहुल बोस और इश्वाक स्टारर थ्रिलर फिल्म बर्लिन ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हो चुकी है। मूवी में अपारशक्ति जहां साइन लैंग्वेज एक्सपर्ट बनकर छा गए वहीं इश्वाक सिंह ने भी बिना बोले अपने किरदार में जान फूंकी। ZEE 5 पर इस फिल्म को देखने से पहले यहां पर पढ़ें पूरा रिव्यू-
प्रियंका सिंह, मुंबई डेस्क। नेटफ्लिक्स पर मनी हाइस्ट की स्पिन-ऑफ सीरीज बर्लिन आई थी। जी5 पर रिलीज हुई भारतीय जासूसी थ्रिलर फिल्म बर्लिन का नाम बस उससे मिलता-जुलता है, लेकिन कहानी बिल्कुल अलग है।
फिल्म की शुरुआत साल 1993 में दिल्ली में आकाशवाणी पर चल रही एक खबर के साथ होती है, जिसमें बताया जाता है कि रूस के राष्ट्रपति भारत का दौरा करने के लिए आने वाले हैं।
क्या है थ्रिलर फिल्म 'बर्लिन' की कहानी?
मूक-बधिर सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले साइन लैंग्वेज (सांकेतिक भाषा) एक्सपर्ट पुष्किन वर्मा (अपारशक्ति) को अचानक से एक पत्र आता है कि उसकी छुट्टी मंजूर हो गई है। दरअसल, उसे भारतीय खुफिया ब्यूरो द्वारा अशोक कुमार (इश्वाक सिंह) से पूछताछ के लिए बुलाया जाता है, जिस पर किसी दूसरे देश की खुफिया एजेंसी के होने का शक है।
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वह मूक-बधिर है और केवल साइन लैंग्वेज ही समझ सकता है। ब्यूरो का चीफ जगदीश सोंधी (राहुल बोस) पुष्किन को सवालों की लिस्ट देता है। वहीं खुफिया विभाग के दूसरे विंग के लोग अपने विभाग के दो अफसरों को ढूंढ रहे हैं। उन्हें शक है कि वह ब्यूरो के लोगों के पास हैं। एक लड़की (अनुप्रिया गोयंका) पर आइएसआइ एजेंट होने का शक है।
खुफिया विभाग के पास जानकारी आती है कि वह रुस के राष्ट्रपति की हत्या की साजिश रच रही है। अशोक कुमार दिल्ली के बर्लिन कैफे में काम करता था। बर्लिन कैफे के आसपास खुफिया विभाग के सरकारी आफिस हैं, जहां के लोग बर्लिन कैफे में जानकारियों की ट्रेडिंग का व्यापार करते थे।
अशोक ने सब करीब से देखा है। क्या अशोक वाकई आइएसआइ एजेंट है? कहीं विंग और ब्यूरो के बीच वह फंस तो नहीं रहा? क्या पुष्किन इन सब में फंस जाएगा? फिल्म अंत तक कई सवालों के जवाब देगी।
ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मिलेगा भरपूर मनोरंजन
फिल्म की शुरुआत में ही साफ दिया गया है कि यह काल्पनिक कहानी है, ऐसे में विंग और ब्यूरो को लेकर अगर कंफ्यूज हैं, तो उसे दूर कर दें। केवल फिल्म की तरह देखें। जुबली वेब सीरीज के लेखक और क्लास आफ 83 फिल्म के निर्देशक अतुल सभरवाल ने ही फिल्म की कहानी लिखी है।
उन्होंने इस कहानी को पिछली सदी के नौवें दशक में सेट करके एक ताजा माहौल बनाने का प्रयास किया है। काफी हद तक उसमें सफल भी हुए हैं। फिल्म डिजिटल प्लेटफार्म पर रिलीज हुई है, तो उसके दायरों का फायदा भी फिल्म को मिलता है कि इसे देखने के लिए तैयार होकर सिनेमाघर तक नहीं जाना है।
फिल्म के ज्यादातर सीन इंटैरोगेशन (पूछताछ) रूम के भीतर हैं, जहां साइन लैंग्वेज में बात के साथ संवाद भी चल रहे होते हैं। शुरुआत में यह थोड़ा सा धीमा लगता है, लेकिन फिर इसमें दिलचस्पी बढ़ने लगती है। फिल्म को जहां से शुरू किया गया था, वहीं पर लेकर जाकर कहानी को अंत करना, अच्छी रणनीति साबित होती है।
हालांकि, इसे एक अच्छी स्पाई थ्रिलर बनाया जा सकता था, अगर कहानी खुफिया एजेंसी के अंदरुनी मसलों की बजाय वाकई रुस के राष्ट्रपति की हत्या को रोकने को लेकर होती। अंदरुनी मसलों के कारण आइएसआए और बड़ी-बड़ी एजेंसियों का एंगल बेमानी सा हो जाता है।
स्टारकास्ट ने अपने-अपने किरदार में फूंकी जान
पुराने जमाने के टेप रिकार्डर, टाइपराइटर, अंबेसडर और फिएट गाड़ियां, उंगली डालकर नंबर डायल करने वाले फोन, दूसरे शहर में बात करने के लिए ट्रंककाल बुक करने वाले दृश्य और श्रीदत्त नामजोशी की सिनेमैटोग्राफी पिछले सदी के नौवें दशक में आपको आसानी से ले जाते हैं। अपारशक्ति खुराना जुबली वेब सीरीज में सराहना बटोरने के बाद लगता है सोचसमझकर अपनी कहानियां चुन रहे हैं।
पुष्किन की गंभीर भूमिका में वह प्रभावित करते हैं। इश्वाक सिंह के अभिनय की तारीफ करनी बनती है, क्योंकि उन्हें बिना डायलागबाजी के साइन लैंग्वेज में बात करनी थी। राहुल बोस सख्त अफसर की निगेटिव भूमिका में सटीक लगते हैं। अनुप्रिया गोयंका जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्री ने यह फिल्म क्यों कि यह समझना कठिन है, क्योंकि उनके हिस्से न ही बहुत सीन आए हैं, न ही कोई संवाद।
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