संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द हटाने की मांग, याचिका पर क्या बोला सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया जिसमें संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द हटाने की मांग की गई थी। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि भारतीय अर्थ में समाजवादी होने का अर्थ केवल कल्याणकारी राज्य से है। याचिकाकर्ताओं ने साल 1976 की संसद की वैधता पर भी सवाल उठाया था।
एजेंसी, नई दिल्ली। संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्द हटाने वाली याचिका को आज सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने खारिज कर दिया। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने याचिकाओं पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि भारतीय अर्थ में समाजवादी होने का अर्थ केवल कल्याणकारी राज्य से है।
SC ने खारिज की याचिका
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार की पीठ ने इस मामले में कहा कि संसद की संशोधन शक्ति प्रस्तावना तक भी फैली हुई है। कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि प्रस्तावना को अपनाने की तारीख संसद की प्रस्तावना में संशोधन करने की शक्ति को सीमित नहीं करती है।
इसी को आधार मानते हुए कोर्ट ने याचिकाकर्ता के तर्क को खारिज कर दिया। सीजेआई ने इस मामले में कहा कि जब इतने साल बीत गए फिर इस मामले को क्यों तूल देने की कोशिश की जा रही है।
याचिकाकर्ताओं ने दिया था ये तर्क
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट में इससे जुड़ी याचिकाएं पूर्व भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, सामाजिक कार्यकर्ता बलराम सिंह और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने दायर की थीं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि 42वें संशोधन ने संविधान निर्माताओं की मूल दृष्टि को विकृत कर दिया। याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया था कि संविधान निर्माताओं ने संविधान सभा की बहसों के दौरान जानबूझकर “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों को बाहर रखा था।
सबसे खास है कि याचिकाकर्ताओं ने साल 1976 की संसद की वैधता पर भी सवाल उठाया था। जो आपातकाल के दौरान और विस्तारित कार्यकाल के तहत संचालित हुई थी। सामाजिक कार्यकर्ता बलराम सिंह का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील विष्णु शंकर जैन ने तर्क दिया कि लोकसभा का कार्यकाल आपातकालीन आवश्यकताओं को संबोधित करने के लिए बढ़ाया गया था, न कि संविधान में संशोधन करने के लिए। सार्वजनिक परामर्श के बिना इन शब्दों को जोड़ने से संविधान निर्माताओं की मूल मंशा विकृत हो गई।
वहीं, इस मामले में पूर्व भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने यह तर्क दिया कि इन शब्दों को शामिल करने से प्रस्तावना अपनी मूल स्वीकृति तिथि से असंगत हो गई है। उन्होंने इसी के साथ सुझाव दिया कि इन शब्दों को बाद में जोड़े गए शब्दों के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, न कि यह माना जाना चाहिए कि वे मूल पाठ का हिस्सा थे।यह भी पढ़ें: Good News: गाजियाबाद में बढ़ेगी विकास कार्यों की रफ्तार, ये है खास वजह; हरनंदीपुरम प्राेजेक्ट पर भी ताजा अपडेट