विचार: प्रदूषण को लेकर जनता भी चेते, मुद्दा बना तो बदल सकती है स्थिति
दिल्ली-एनसीआर समेत उत्तर भारत में वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर है। प्रदूषण से निपटने के वादे अधूरे हैं, क्योंकि सरकारें इसे केवल सर्दियों की समस्या मानती हैं। पराली जलाना, वाहनों का उत्सर्जन और धूल मुख्य कारण हैं। जल प्रदूषण भी बढ़ रहा है, नदियों में दूषित पानी जा रहा है। ठोस कचरा और शहरों का बेतरतीब विकास भी प्रदूषण बढ़ा रहे हैं। आम जनता को प्रदूषण के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए।

संजय गुप्त। पिछले कई वर्षों की तरह इस बार भी दिल्ली-एनसीआर समेत उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पार कर गया। इसी के साथ वायु प्रदूषण से निपटने के सारे वादे धरे के धरे रह गए। अपने देश में प्रदूषण चाहे वह वायु का हो या जल का, किसी पर भी प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पा रहा है और इसे लेकर जो प्रयास किए जाते हैं, वे अपर्याप्त ही साबित होते हैं। अब इसके वैज्ञानिक साक्ष्य हैं कि वायु प्रदूषण बीमारियों का कारण बनता है।
वायु प्रदूषण के मामले में यह देखने को मिल रहा है कि उस पर नियंत्रण के उपाय तब किए जाते हैं, जब हवा जहरीली होनी शुरू हो जाती है। इस मामले में सरकारों के साथ सुप्रीम कोर्ट भी नाकाम है और इसका कारण यह है कि वायु प्रदूषण को सिर्फ सर्दियों की समस्या मान लिया गया है। यह ठीक है कि सर्दी शुरू होने पर प्रदूषण बढ़ता है, लेकिन उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में वह करीब-करीब 12 महीने रहता है।
सर्दियों के मुकाबले अन्य मौसम में उसकी तीव्रता कम रहती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि बाकी दिनों हवा पूरी तरह शुद्ध रहती है। समस्या यह है कि सरकारों की ओर से प्रदूषण से निपटने के प्रयत्न सर्दियों के आगमन के साथ तब किए जाते हैं, जब पराली जलना शुरू हो जाती है। जब सर्दियों में बारिश होती है तो वायु प्रदूषण से कुछ समय के लिए राहत मिल जाती है और इसी के साथ सरकारों का ध्यान प्रदूषण रोधी उपायों से हट जाता है।
सरकारों को यह समझना होगा कि वायु प्रदूषण से निजात तब मिलेगी, जब उसे नियंत्रित करने के प्रयास पूरे वर्ष किए जाएंगे। प्रदूषण के प्रमुख कारणों में पराली-पत्तियों आदि को जलाना, वाहनों और कल-कारखानों का उत्सर्जन और सड़कों एवं निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल है। ऐसा नहीं है कि इन कारणों का निवारण नहीं किया जा सकता, लेकिन दीर्घकालिक उपायों के अभाव में यह काम नहीं हो पा रहा है।
पंजाब, हरियाणा आदि में पराली न जलाई जाए, इसके लिए तब प्रयास किए जाते हैं, जब उसे जलाना शुरू कर दिया जाता है। इन राज्यों में पराली जलाने पर कुछ रोक तो लगी है, लेकिन पूरी तौर पर नहीं और अब उसे अन्य राज्यों में भी जलाया जाने लगा है। यदि पराली को जलाने से रोकने में सफलता मिल जाए तो भी वायु प्रदूषण की समस्या का समाधान नहीं होने वाला, क्योंकि वाहनों का उत्सर्जन भी हवा को विषाक्त बनाता है।
जब ट्रैफिक जाम के कारण वाहन धीमी गति से चलते हैं तो वे और अधिक विषाक्त उत्सर्जन करते हैं। दिल्ली-एनसीआर समेत देश के सभी बड़े शहरों में ट्रैफिक जाम एक आम समस्या बन गई है। इसका कारण रास्तों के बाटलनेक यानी वे स्थल हैं, जहां सड़कें संकरी हो जाती हैं। ऐसे बाटलनेक बढ़ते ही जा रहे हैं। वाहन इसलिए भी धीमी गति से चलते हैं, क्योंकि पैदल यात्री फुटपाथों पर अतिक्रमण के कारण सड़क पर चलने के लिए विवश होते हैं। इससे वाहनों के लिए सड़कें संकरी हो जाती हैं और वे धीमी गति से रेंगने को बाध्य होते हैं।
यह वैज्ञानिक तौर पर स्थापित है कि धीमी गति से चलते वाहन प्रदूषण बढ़ाने का ही काम करते हैं, लेकिन इसके उपाय नहीं किए जा पा रहे हैं कि शहरों का यातायात सुगम हो सके। वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण सड़कों और निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल है। चूंकि सड़कों की सफाई इस तरह नहीं होती कि उनमें धूल न रहे, इसलिए वह वायु प्रदूषण को बढ़ाने का काम करती है। भारत की अधिकांश सड़कें इस तरह निर्मित हैं कि उन पर वैक्यूम क्लीनर चलाना कठिन है।
नगर निकायों के जो सफाई कर्मचारी सड़कों पर झाड़ू लगाते हैं, वे धूल को सिर्फ इधर-उधर कर देते हैं और वह उड़ती रहती है। रही बात कंस्ट्रक्शन से पैदा होने वाली धूल की तो अभी तक भारत में निर्माण के आधुनिक तरीके अपनाए ही नहीं गए हैं और लगता भी नहीं कि हाल-फिलहाल अपनाए जाएंगे, क्योंकि यह किसी की प्राथमिकता में ही नहीं। वायु प्रदूषण पर नियंत्रण पाना तभी संभव होगा, जब हम इन समस्याओं का समाधान वैज्ञानिक तरीके से करने के लिए आगे बढ़ेंगे।
वायु प्रदूषण की तरह जल प्रदूषण की रोकथाम करने की भी आवश्यकता बढ़ती जा रही है। तमाम दावों के बाद भी हमारे नदी-नाले एवं अन्य जल स्रोत दूषित होते जा रहे हैं। कई शहरों में सीवर का बिना शोधित पानी नदियों में जा रहा है। जैसे-जैसे शहरों की आबादी बढ़ रही है, सीवरों के दूषित जल की मात्रा नदियों में बढ़ रही है।
नदियों के प्रदूषण की चिंता भी हम खास मौकों पर करते हैं, जैसे अभी छठ पर की गई। वायु और जल प्रदूषण का एक बड़ा कारण ठोस कचरा है, जो बढ़ता ही जा रहा है। सभी बड़े शहरों में खड़े कचरे के पहाड़ हवा के साथ भूजल को भी दूषित करते हैं। प्रदूषण हमारे शहरों में अधिक है और इसका कारण उनका बेतरतीब विकास है।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रदूषण को नियंत्रित करने की बातें करने वाली सरकारें उसकी रोकथाम के लिए जमीनी स्तर पर कुछ नहीं करतीं। इसका कारण आधारभूत ढांचे को ठीक करने के लिए आवश्यक धन के साथ शहरी विकास की ठोस एवं दीर्घकालिक नीतियों को लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। इस अभाव के मूल में है वोट बैंक की राजनीति। इसके चलते ही पराली जलती रहती है, सड़कों पर अतिक्रमण होता रहता है और शहरों में अनियोजित विकास होता रहता है।
एक समस्या यह भी है कि आम आदमी प्रदूषण से त्रस्त होने के बाद भी उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता। प्रदूषण गंभीर हो जाए तो राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप तो शुरू हो जाता है, लेकिन आम लोग बेपरवाह ही रहते हैं। यदि आम जनता जानलेवा साबित होने वाले प्रदूषण को मुद्दा बनाने लगे और यह कहने लगे कि चुनावों में उसके वोट देने का आधार प्रदूषण नियंत्रण होगा तो स्थिति बदल सकती है।
आम जनता को जानलेवा होते प्रदूषण को लेकर चेतना होगा और साफ हवा-पानी की मांग करनी होगी। इसलिए और करनी होगी, क्योंकि प्रदूषण सेहत को खतरे में डालने के साथ आर्थिक हानि का कारण भी बन रहा है। प्रदूषणजनित बीमारियों के कारण लोगों की उत्पादकता प्रभावित होती है और उनकी असमय मौतें भी होती हैं।

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