जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद पहली बार हुए विधानसभा चुनाव में आईएनडीआईए को बहुमत मिला। इसमें नेशनल कॉन्फ्रेंस को सबसे ज्यादा 42, कांग्रेस को 6 और सीपीआई (एम) को एक सीट मिली। सरकार बनाने के लिए 48 सीटों (पांच नॉमिनेट विधायक समेत) की जरूरत होती है।
केंद्र शासित प्रदेश के पहले सीएम बनने वाले उमर अब्दुल्ला राजनीतिक सफर और निजी जिंदगी कैसी है? यहां पढ़िए...
कौन हैं उमर अब्दुल्ला?
डॉ. फारूक अब्दुल्ला के बेटे और शेख अब्दुल्ला के पोते हैं उमर अब्दुल्ला। उनका जन्म 10 मार्च, 1970 को इंग्लैंड में हुआ। उमर को राजनीति अपने पिता की तरह ही विरासत में मिली। उमर ने अपनी शुरुआती शिक्षा भारत के एक बोर्डिंग स्कूल से पूरी की। फिर श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स (SRCC) दिल्ली विश्वविद्यालय ग्रेजुएट किया। आगे की शिक्षा उन्होंने लंदन से पूरी की।
2011 में दी थी तलाक के लिए अर्जी
साल 1994 में उमर अब्दुल्ला ने पायल नाथ से शादी की थी। हालांकि, दोनों के बीच ज्यादा समय तक रिश्ता कायम नहीं रह सका और 2011 में उन्होंने डिवोर्स के लिए अर्जी दे दी थी।उमर अब्दुल्ला ने 2011 में सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि वे और उनकी पत्नी अलग हो रहे हैं। दोनों के बीच तलाक हुआ या नहीं, इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है। उमर और पायल के दो बेटे- जहीर अब्दुल्ला और जमीर अब्दुल्ला हैं।
पिता ने सही समय देख बेटे उमर का राजनीति में डेब्यू कराया
साल 1996 की बात है। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए। नेशनल कॉन्फ्रेंस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। मौके की नजाकत को देखते हुए फारूक अब्दुल्ला ने बेटे उमर अब्दुल्ला को राजनीति में लॉन्च कर दिया।इस बारे में उमर अब्दुल्ला ने एक इंटरव्यू में कहा था, “मैं पढ़ाई-लिखाई के लिए लंबे समय से जम्मू-कश्मीर से बाहर था। घर लौटा, लेकिन राजनीति में आने के बारे में नहीं सोचा। 1996 में पार्टी को मिली जीत के बाद से राजनीति में आने को लेकर गंभीरता से सोचा और पार्टी में शामिल हो गया।”
उमर ने आगे बताया था,”मैं अपने दादा शेख अब्दुल्ला के साथ ईदगाह जरूर गया था, लेकिन कभी किसी राजनीतिक रैली में नहीं गया था। जब मैं छोटा था, उन दिनों उन्होंने कभी राजनीति के बारे में बात नहीं की थी।”
सबसे युवा विदेश मंत्री बने उमर
1998 के लोकसभा चुनाव में फारूक अब्दुल्ला ने बेटे को नेशनल कॉन्फ्रेंस से टिकट देकर श्रीनगर से चुनाव लड़वाया। उमर चुनाव जीत गए और केंद्र में मंत्री बने। 1999 के लोकसभा चुनाव में महबूबा मुफ्ती को हराकर फिर संसद पहुंचे और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री बने।
साल 2001 में वो देश के सबसे युवा विदेश मंत्री बने। हालांकि, 17 महीने बाद ही यानी दिसंबर 2002 को उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद फारूक ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। तभी विधानसभा चुनाव हुए। उमर गांदरबल विधानसभा सीट से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए।
उमर ने नहीं मानी पिता की बात
मैं उमर को राजनीति में लाने के पक्ष में नहीं था। जब मैंने राजनीति में शामिल होने की प्लानिंग की तो मेरे पिता (शेख अब्दुल्ला) ने मुझसे कहा था कि राजनीति एक ऐसी नदी है। एक बार तुम इसमें कूदोगे तो तुम नदी की धार के साथ बहोगे या धारा से लड़ोगे। कभी इससे बाहर नहीं निकल सकोगे। मैंने भी उमर को राजनीति में न आने की सलाह दी, ... हंसते हुए- लेकिन उमर ने भी अपने पिता की बात नहीं मानी और राजनीति में आ गए।
मां ने की थी बेटे को सीएम बनाने की पैरवी
साल 2009 में जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए। नेशनल कॉन्फ्रेंस चुनाव जीती। जब फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की तैयारी कर रहे थे, तब उनकी पत्नी और उमर की मां मौली अब्दुल्ला ने अपने बेटे को सीएम बनाने के लिए मोर्चा संभाला।
मौली ने पति से बात की। कहा- अब आपको सत्ता अगली पीढ़ी के हाथ में सौंपनी चाहिए। फारूक ने पत्नी की बात मान ली। इस तरह जनवरी, 2009 में शेख अब्दुल्ला की तीसरी पीढ़ी यानी उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने।
उमर अब्दुल्ला के परिवार के बारे में भी जानें...
हिंदू ब्राह्मण थे अब्दुल्ला के पूर्वज
अब्दुल्ला परिवार की कहानी झेलम नदी के किनारे बसे श्रीनगर के सौरा इलाके से शुरू होती है। उनके पूर्वज सप्रू गोत्र के कश्मीरी ब्राह्मण थे। यह बात खुद उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला ने कई बार सार्वजनिक तौर पर स्वीकार की थी।
शेख ने अपनी आत्मकथा 'आतिशे चीनार' में इसका जिक्र किया है। इसमें लिखा है- 'उनके पूर्वज हिंदू ब्राह्मण थे। साल 1766 की बात है। उनके परदादा सूफी मीर अब्दुल रशीद बैहाकी से खासा प्रभावित हुए और उन्होंने इस्लाम अपना लिया था।' शेख के परदादा का नाम बालमुकुंद कौल था।
पाकिस्तान बनाए जाने के खिलाफ थे शेख अब्दुल्ला
शेख अब्दुल्ला भारत के टुकड़े कर नया राष्ट्र पाकिस्तान बनाने के खिलाफ थे। इस कारण शेख उस वक्त के कट्टर मुस्लिम नेताओं के निशाने पर आ गए थे। कश्मीरी पत्रकार बशारत पीर ने अपनी किताब 'कर्फ्यूड नाइट' में इसका जिक्र किया है।
'कर्फ्यूड नाइट' के मुताबिक, 1947 में जब देश विभाजन होने जा रहा था। तब सवाल ये था कि कश्मीर किसके साथ जाए। विलय पर फैसला लेने के लिए कश्मीर के राजा हरि सिंह और शेख अब्दुल्ला ने दिल्ली से समय मांगा था। बाद में शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करने का समर्थन किया, लेकिन साथ ही धर्मनिरपेक्ष भारत के भीतर राज्य के लिए एक विशेष दर्जा देने की मांग भी की थी।माना जाता है कि वे जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का दो कारणों से विरोध कर रहे थे। पहली- वह पंडित जवाहरलाल नेहरू के दोस्त थे और जिन्ना की राजनीति के विरोधी। दूसरी- वह कश्मीर पर पंजाबी मुस्लिमों का प्रभुत्व नहीं चाहते थे।
जम्मू-कश्मीर आधिकारिक तौर पर किसके साथ जाएगा, इस पर फैसला होता, उससे पहले ही पाकिस्तानी सेना के साथ कबाइलियों ने हमला कर दिया था। ऐसे में कश्मीर के राजा हरि सिंह ने बिना स्पेशल दर्ज के ही तुरंत भारत में विलय करने फैसला लिया। शेख ने भी इसका समर्थन किया।
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दोस्ती के बावजूद नेहरू ने शेख को कैद करवाया
तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू दिल्ली और कश्मीर के बीच शेख को ब्रिज मानते थे। यही वजह है कि नेहरू ने 1947 में राजा हरिसिंह दबाव डाला और शेख को कश्मीर का प्रधानमंत्री (आजादी के बाद पहली बार सभी राज्यों में सीएम नहीं, पीएम पद हुआ करता था, ज ) नियुक्त करवा दिया। आजादी के बाद भी राज्य से संबंधित फैसलों के लिए नेहरू शेख से बात करते थे।फिर एक घटना ऐसी हुई कि सब बदल गया। नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री पद से हटाकर जेल में डाल दिया। बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व वकील द्वारा लिखी किताब '370 अ कॉन्स्टिट्यूशनल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर' में इसका जिक्र किया गया है।किताब में लिखा है- ' नेहरू ने 31 जुलाई 1953 को एक नोट शेयर किया था। नोट में कश्मीर की सदर-ए-रियासत को राज्य में चल रही अनियमितताओं के चलते कुछ लोगों को पद से हटाए जाने की बात लिखी थी। एक हफ्ते बाद नेहरू ने एक पत्र लिखकर शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री पद से हटा दिया। उनकी जगह बख्शी गुलाम मोहम्मद को प्रधानमंत्री बना दिया।'
(देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ शेख अब्दुल्ला।)शेख को प्रधानमंत्री पद से हटाने के पीछे उनकी भारत सरकार विरोधी नीतियां मानी जाती हैं। शेख अब्दुल्ला ने 1947 से 1953 के बीच कई बार कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने की बात कही थी। पद से हटाए जाने के बाद शेख को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। वह 11 साल जेल में रहे। शेख को अप्रैल 1964 में जेल से रिहा किया गया। तब तक उन्होंने आजाद कश्मीर की मांग छोड़ दी थी। फिर से राजनीतिक कामकाज में जुट गए।
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पुष्प वर्षा के साथ हुई थी फारूक की ताजपोशी
इतिहास की किताबों और पुरानी मीडिया रिपोर्टों को खंगालने पर पता चलता है कि उमर अब्दुल्ला के दादा अपने बेटे फारूक से ज्यादा बेटी खालिदा को तवज्जो देते थे। हालांकि, जब बात राजनीति में अगली पीढ़ी को लाने यानी राजनीतिक विरासत सौंपने की आई तो बड़े बेटे फारूक को जिम्मेदारी दी।जर्नलिस्ट अश्विनी भटनागर की किताब 'फारूक ऑफ कश्मीर' के मुताबिक, फारूक अब्दुल्ला 1965 में जयपुर के एमएसएस मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस करने के बाद वे लंदन चले गए। वहां उन्होंने ब्रिटिश महिला (अब मौली अब्दुल्ला) से शादी कर ली और उनको ब्रिटिश नागरिकता भी मिल गई।
(पत्नी मौली अब्दुल्ला के साथ फारूक अब्दुल्ला। फाइल फोटो)साल 1975 में फारूक कश्मीर लौट आए। 1980 के चुनाव में शेख अब्दुल्ला ने बेटे फारूक को श्रीनगर से चुनावी मैदान में उतारा। फारूक चुनाव जीत गए। इसके एक साल बाद शेख ने पार्टी की कमान फारूक को सौंप दी।इससे पहले शेख अब्दुल्ला ने पार्टी नेताओं संग बैठक की, ताकि फारूक की ताजपोशी को यादगार बनाया जा सके। रैली निकाली गई। शेख ने एक होटल की बालकनी से फूल बरसाकर स्वागत किया। फिर मंच से फारूक को पार्टी का अध्यक्ष बनाने का एलान किया। इस दौरान फारूक की शर्ट पर नेशनल कॉन्फ्रेंस का बैज भी लगाया।
(जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अपने बेटों के साथ।फाइल फोटो)
उमर के पिता और फूफा के बीच हुई थी सियासी जंग
शेख अब्दुल्ला का सितंबर 1982 में निधन हो गया। इसके कुछ दिन बाद ही पार्टी और राज्य की सत्ता को लेकर फारूक अब्दुल्ला और बहनोई के बीच संघर्ष शुरू हो गया था।बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह ने फारूक की सरकार बर्खास्त करवा दिया था और कांग्रेस व अन्य पार्टियों के समर्थन से खुद सीएम बन गए थे। उस समय राज्य के राज्यपाल जगमोहन मल्होत्रा ने अपनी किताब 'माई फ्रोजन टर्बुलेंस' में इस किस्से का उल्लेख किया है।
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