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जीवन दर्शन: जीवन में हमेशा प्रसन्न रहने के लिए संत और सत्संग दोनों हैं जरूरी

एक छोटी-सी टिमटिमाती लौ हल्की-सी हवा में बुझ जाती है लेकिन यदि आग बड़ा रूप धारण कर ले तो उसे कोई बुझा नहीं सकता। हमारी प्रसन्नता भी ऐसी ही है जो नकारात्मक बातों या घटनाओं की हवा से बुझ जाती है। यदि आप यही सोचकर बैठे रहें कि ‘अरे सब भगवान कर देते हैं’ तो यह ज्ञान का दुरुपयोग है।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarMon, 01 Jul 2024 04:02 PM (IST)
जीवन दर्शन: जीवन में हमेशा प्रसन्न रहने के उपाय

श्री श्री रविशंकर (आध्यात्मिक गुरु, आर्ट ऑफ लिविंग)। प्रसन्नता पाने के लिए सत्संग अवश्य करना चाहिए, क्योंकि जब आप ज्ञान की बातें करते हैं तो वे बातें चेतना में रहती हैं, नहीं तो सारी छोटी-छोटी नकारात्मक बातें मन में घूमती रहती हैं। जीवन में रोना-धोना, सुख-दुख तो आते-जाते रहते हैं, मगर यह जान लेना चाहिए कि ‘मैं एक विशाल मन का एक छोटा-सा अंग हूं’। यह सजगता आप में अथाह सहनशक्ति और ताकत लाती है। 

मन में अपेक्षाएं उठना सामान्य बात है। यदि अपेक्षाएं उठ रहीं हैं तो यह सोचकर कि अपेक्षाएं उठना गलत है, उसे दबाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। जो जिस समय जैसा है, उसको वैसा ही देखें और आगे बढ़ते जाएं। यही मुक्ति है। आप तभी मुक्त हो पाएंगे, जब आपका मस्तिष्क किसी भी परिस्थिति में लिप्त न हो, क्योंकि जब मस्तिष्क किसी चीज में अटक जाता है, तब हम कहने लगते हैं कि ‘यह ऐसे होना चाहिए, वह ऐसा नहीं होना चाहिए। यह हो रहा है, यह नहीं हो रहा है... आदि।’ जिस तरह से जब हलवा पक जाता है तो कढ़ाई में चिपकता नहीं है, इसी तरह से जब हर परिस्थिति के बीच में रहते हुए भी हमारी बुद्धि अलिप्त हो जाती है, तब हम सहज ही प्रसन्न रहते हैं।

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अपेक्षाएं अपने आप उठती हैं। यदि अपेक्षाएं पूरी हो जाती हैं, तब भी सही है और यदि नहीं पूरी हो पाती तो उसमें भी ईश्वर की कृपा है। कई अपेक्षाओं का पूरा न होना भी कृपा है। जब हम इस बात के प्रति सजग हो जाते हैं तो बिल्कुल मक्खन जैसे हो जाते हैं। जब आप मक्खन को पानी में या दूध में डालते हैं तो वह तैरता है, उसी तरह से अपने मन को भी नवनीत और प्रसन्न बनाए रखिए। कहा जाता है कि जीवन में यदि आपके मन के अनुसार काम हुआ तो अच्छा है और अगर नहीं हुआ तो और भी अच्छा है, मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि आप कुछ करें ही नहीं!

यदि आप यही सोचकर बैठे रहें कि ‘अरे सब भगवान कर देते हैं’ तो यह ज्ञान का दुरुपयोग है। जो होता है, उस पर आपका कोई अधिकार नहीं है, मगर जो करना है उस पर आपका पूरा अधिकार है। इसलिए जो आपको करना है, उसमें अपना शत प्रतिशत लगाएं। उसमें कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए। लेकिन हम आम तौर पर इसके विपरीत करते हैं। जब कुछ ‘करने’ की बात होती है, तब कहते हैं कि जो भगवान कराते हैं, ‘वही’ होता है और जो ‘होता’ है उस पर कर्तृत्व भाव लगाकर कर्तापन ले आते हैं। इनके पार्थक्य को जानना और समझना ही विवेक है।

यह समझ में आ जाए कि जो होना है वह प्रभु की इच्छा है, तब आप दुखी नहीं होंगे। जो हो रहा है, उसे ईश्वर पर छोड़ने से कोई दुख नहीं होगा। यदि हम पर कोई मुसीबत आई है, तो इसके लिए संभव है कि हमने ही बीज बोया होगा। यदि बबूल का बीज बोया है तो बबूल के कांटे ही मिलेंगे, मगर ऐसी परिस्थिति के सामने भी घबराना नहीं चाहिए।

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तब सोचना चाहिए कि अब क्या करना है?  उस स्थिति में बबूल के पेड़ से बचकर रहना चाहिए, ताकि उसके कांटे हमें न चुभें। इस तरह से हम ‘अभी’, वर्तमान में जो कर सकते हैं, उसे करना चाहिए। यह सोच कर कि बबूल का पेड़ क्यों हुआ? दुखी होना नासमझी है। बबूल के पेड़ से बचकर रहना हमारा कर्तव्य है। यदि यह बात हम सबको समझ में आ जाए, तब हम निश्चिंत हो जाते हैं, हमारे मन में शांति छा जाती है और फिर कोई भी शक्ति हमारी प्रसन्नता को प्रभावित नहीं कर सकती।