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Samudra Manthan: कब और कैसे हुई स्वर्ग की अप्सरा रंभा की उत्पत्ति?

अप्सराएं भोगवादी प्रकृति हैं इन्हें वही अनुकूल और प्रिय लगता है जो राजसी सुख और वर्चस्व को अंगीकार करता हो। यह तथ्य भी तर्क की कसौटी पर खरा है- जब तक इंद्रिय सुख भोगादि के प्रति आसक्ति होती है तबतक शाश्वत-शांति सुधारस का पान कर पाना संभव नहीं है। देवत्व दान-पुण्य आदि का फल है। यह सिद्धांत है- हम जिससे सुख चाहेंगे उसका दास बनना ही पड़ेगा।

By Jagran News Edited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 21 Oct 2024 02:25 PM (IST)
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Samudra Manthan: समुद्र मंथन का धार्मिक महत्व
आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। समुद्र मंथन के सातवें क्रम में रंभादि अप्सराएं निकलीं, जिन्होंने स्वतः देवताओं को वरण कर लिया। अपसराएं मन में निहित कल्प-कल्पांतर, युग-युगांतर और जन्म-जन्मांतर की वासनाओं का प्रतीक हैं। जब कोई साधक संसारमोह सागर को साधना की नौका से पार करने प्रयास करता है, उस संसार की वासनाएं अनेकानेक लुभावने रूप धारण कर उसे विचलित करने का प्रयास करती हैं।

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स्मरण रहे, संसार की वासना आंख और कान के माध्यम से मनुष्य के अंदर प्रवेश करके, उसे पतित और लक्ष्य से च्युत कर उसका विनाश कर देती हैं। इंद्रियों के द्वारा सांसारिक भोगों को भोगते समय प्रथम सुखानुभूति होती है, किंतु बाद में उसका परिणाम विभिन्न प्रकार के रोग-दुखों के द्वारा त्रास देता है। जैसे-जैसे भोग और संग्रह की आसक्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे पापाचार, मिथ्याचार और अनाचार बढ़ता है। यह सिद्धांत है- हम जिससे सुख चाहेंगे, उसका दास बनना ही पड़ेगा। इसलिए परमार्थपथ के पथिक को संसार की नश्वर वासना को आंख और कान नहीं देना चाहिए, क्योंकि जहां आंख जाएगी वहां मन चला जाएगा। यह मन ही हमें संसार में फंसाता है और निकालता भी है। यही बंधन और मोक्ष का कारण है भी है।

"मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो:"। इ्द्रियां घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है, रथ में बैठा जीव ही रथी है। संसार की विषय-वासना ही हरी-भरी घास है, जिसका मन भगवान में रमण करता है, उसके इंद्रिय रूपी घोड़े संसार की विषय-वासना में फंसकर अपना मार्ग नहीं भटकते हैं। अतः मन को भगवान की भक्ति में लगाना चाहिए, जिससे इंद्रियां रूपी घोड़े नश्वर विषय वासना की ओर नहीं भाग सकेंगे।

अप्सराएं भोगवादी प्रकृति हैं, इन्हें वही अनुकूल और प्रिय लगता है, जो राजसी सुख और वर्चस्व को अंगीकार करता हो। यह तथ्य भी तर्क की कसौटी पर खरा है- जब तक इंद्रिय सुख भोगादि के प्रति आसक्ति होती है, तबतक शाश्वत-शांति सुधारस का पान कर पाना संभव नहीं है। देवत्व दान-पुण्य आदि का फल है, किंतु यह भी सत्य है कि पुण्य क्षय होने पर पुनः उन्हें इस मरणधर्मा संसार में जन्म लेना पड़ता है।

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जो दसों इंद्रियों से संसार के नश्वर भोगों को भोग रहा है, वही दशाननन रावण है तथा जिसकी दसों इंद्रियां उसके वश में हैं, वही राजा दशरथ है, जिसके हृदय रूपी आंगन में ज्ञान रूपी भगवान श्रीराम, वैराग्य रूपी श्रीलक्ष्मण, विवेक रूपी श्रीभरत और विचार रूपी श्रीशत्रुघ्न और भक्तिरूपी भगवती श्रीसीता जी सदा विहार करेंगी।