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अष्टावक्र गीता: गुरु को वरण करने का मुख्य उद्देश्य अहंकार और मोह को दूर करना है

अष्टावक्र महागीता गुरु-शिष्य संबंधों का एक मानक उदाहरण है। अष्टावक्र गीता का सार तत्व साक्षी भाव है। यदि संसार में घटित होने वाले प्रत्येक कार्य को मनुष्य साक्षी भाव से देखे तो वह न तो मोहग्रस्त होगा और ना ही बंधनयुक्त। यही ज्ञान की प्राप्ति है जो गुरु-शिष्य संबंधों की प्रवणता से उपजती है। शिष्य तभी समर्पित होता है जब गुरु उसमें एकात्म हो जाता है।

By Jagran News Edited By: Pravin KumarMon, 24 Jun 2024 03:31 PM (IST)
अष्टावक्र गीता: जीवन का वास्तविक ज्ञान आत्मा को जानना है

उदयलक्ष्मी सिंह परमार (न्यायाधीश व आध्यात्मिक अध्येता)। गुरु वाक्य ब्रह्म वाक्य हो, ऐसा अनुभव वही गुरु करा सकते हैं, जिन्हें आत्मबोध हो। गुरु-शिष्य का संबंध समर्पण पर आधारित है, शिष्य ने यदि समर्पण किया तो गुरु भी शिष्य के प्रति समर्पित हो जाते हैं। यदि गुरु पर शिष्य का असीम विश्वास हो जाए तो कम शब्दों में ही सार तत्व को बहुत सहजता से समझा जा सकता है। शिष्य तभी समर्पित होता है, जब गुरु उसमें एकात्म हो जाता है। यही गुरुता की प्रवृत्ति है। सद्गुरु वह है, जो शिष्य के मन को अपनी ओर न कर ईश्वर की ओर कर दे।

वस्तुत: अहंकार तथा मोह को दूर करना ही गुरु को वरण करने का मुख्य उद्देश्य है तथा शिष्य की श्रद्धा में ही गुरु का गुरुत्व होता है। राजा जनक एवं महर्षि अष्टावक्र के दृष्टांत से गुरु-शिष्य समर्पण, विश्वास एवं एकात्मकता को समझा जा सकता है। राजा जनक सत्संगी, विद्वान एवं ज्ञान पिपासु हैं, जिनकी सभा में विद्वतजनों द्वारा विभिन्न विषयों पर शास्त्रार्थ किए जाते थे। जनक को सांसारिक विषयों को जानने की लालसा नहीं थी। वे तो परम सत्य के जिज्ञासु थे। जनक की खोज ऐसे ही गुरु की थी, जो महर्षि अष्टावक्र के रूप में पूर्ण हुई।

अष्टावक्र के जन्म की कथा शास्त्रों में है। उसके अनुसार, वेदांताचार्य मुनि उद्दालक के परम प्रिय शिष्य कहोड़ वेदज्ञ एवं शास्त्रों के ज्ञाता थे, जिनके साथ मुनि उद्दालक की पुत्री सुजाता का विवाह हुआ। विवाह के पश्चात कहोड़ मुनि उद्दालक के आश्रम में ही अध्यापन करने लगे। एक दिन कहोड़ पत्नी सुजाता के समीप वेद वाचन कर रहे थे, तभी उन्हें आवाज सुनाई दी -आत्मज्ञान से परे कुछ नहीं, वास्तविक ज्ञान आत्मा को जानने में है। यह सुनकर कहोड़ व सुजाता चौंक गए। यह आवाज सुजाता के गर्भ से आ रही थी।

वेदज्ञ कहोड़ ने क्रोधित होकर अपने गर्भस्थ पुत्र को शाप दे दिया कि वह आठ जगहों से टेढ़ा होकर पैदा होगा। सुजाता ने इसे प्रारब्ध माना, किंतु अपने अजन्मे पुत्र के पालन-पोषण को लेकर चिंतित भी रहने लगीं। कहोड़ राजा जनक के दरबार में आर्थिक सहायता लेने पहुंचे। वहां ऋषि बंदी से शास्त्रार्थ की चुनौती स्वीकार कर उनसे पराजित होने के बाद शास्त्रार्थ के नियमानुसार जल समाधि ले ली। इधर, आश्रम में सुजाता ने पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम ऋषि उद्दालक ने अष्टावक्र रखा।

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दूसरी ओर उद्दालक की पत्नी को भी पुत्र की प्राप्ति हुई, जो श्वेतकेतु कहलाया। आश्रम दोनों बालकों के जन्म की खुशी से आनंदित था, तभी कहोड़ के जल समाधि लेने की जानकारी आश्रम में पहुंची। सुजाता अत्यंत दुखी हो गई, किंतु विधि विधान मान पुत्र का पालन-पोषण करने लगी। बालक अष्टावक्र ऋषि उद्दालक को ही अपना पिता समझता था। जब अष्टावक्र की मां ने उनके पिता के राजा जनक के दरबार में ऋषि बंदी से शास्त्रार्थ में पराजित होने के पश्चात जल समाधि लेने की जानकारी दी, तब वह राजा जनक के दरबार में पहुंचे तथा ऋषि बंदी को शास्त्रार्थ में चुनौती देकर पराजित किया।

इसी घटना के पश्चात राजा जनक ने अष्टावक्र को अपना गुरु स्वीकार किया। कुरुक्षेत्र में कौन्तेय अर्जुन ने विषादग्रस्त होकर भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष शोकग्रस्त होकर प्रश्न पूछा था। ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के लिए जिन संबंधों और भावनाओं से निस्पृहता होनी चाहिए, अर्जुन उससे ऊपर नहीं उठ पा रहे थे, जब भगवान कृष्ण ने स्वयं 18 योगों के द्वारा उनके मोह को हर लिया, तब उन्हें अपने स्वरूप की स्मृति हुई। वहां तो मोहग्रस्त जिज्ञासाओं का साम्राज्य था, किंतु राजा जनक ने महर्षि अष्टावक्र के समक्ष जो जिज्ञासा रखी, वहां मोह या अज्ञान की स्थिति कदापि नहीं है।

जनक मोहग्रस्त नहीं हैं, दृश्य और द्रष्टा ही यहां पर जिज्ञासा और समाधान के रूप में हैं। जनक की अष्टावक्र के समक्ष जिज्ञासा है - कथं ज्ञानवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भिविष्यति, वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद। अर्थात ज्ञान प्राप्ति का क्या उपाय है? मेरी मुक्ति किस प्रकार होगी? वैराग्य कैसे प्राप्त होता है? जिस ग्रंथ में ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और शरणागति की संपूर्ण शाखाओं का समावेश होकर समाधान दिया गया हो, उसे ही गीता कहते हैं।

यहां राजा जनक द्वारा पूछे गए गूढ़ प्रश्नों के उत्तर महर्षि अष्टावक्र द्वारा दिए गए, इसीलिए उक्त ग्रंथ का नाम है - अष्टावक्र गीता। यह अद्वैत वेदांत का ग्रंथ है। इसमें ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और समाधिस्थ योगी की दशा का वर्णन है। महर्षि अष्टावक्र तथा राजा जनक के संवादानुसार, मनुष्य को विषयजनित आसक्तियों यथा द्वेष, मोह, अहंकार, लोभ, क्रोध का त्याग कर उदारचित्त, दयावान, सत्यभाषी बनने हेतु कहा गया।

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महर्षि अष्टावक्र आत्मा को महत्व देते हुए शरीर को तुच्छ बताते हैं। मुक्ति को कहीं से खोजकर नहीं लाया जाता, यह आत्मा की सहज प्रवृत्ति है। मुक्ति के आकांक्षी को अपने आंतरिक चैतन्य को जानकर बाहरी आवरणों से विरक्त होना पड़ता है। ज्ञान का अर्थ है सद और असद का विवेक हो जाना और परम ज्ञान का अर्थ है सद को ग्रहण कर लेने के पश्चात असद का त्याग कर देना, तत्पश्चात त्याग की स्मृति का भी त्याग कर देना अर्थात आत्मज्ञान ही परम ज्ञान है, जिसे प्राप्त करने के पश्चात व्यक्ति समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है।

आत्मज्ञान को प्राप्त करने का तरीका स्वयं को कर्ताभाव से मुक्त करना है अर्थात मैं का अंत कर प्रत्येक स्थिति में ईश्वर या अज्ञात की कृपा को स्वीकार कर लेना। आत्मज्ञानी व्यक्ति में किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं रहती। वह कभी पीड़ित या क्लांत नहीं होता। इसका यह आशय नहीं कि वह कर्म नहीं करता। कर्म करते हुए भी उसकी कार्यशैली में अंतर होता है। यदि प्रवृत्ति में भी प्रवृत्त होता है, तब भी निवृत्ति का आनंद लेता है, क्योंकि उसकी सभी चित्तवृत्तियां शांत होती हैं और राग-द्वेष की भावना उसमें नहीं होती है।

आत्मज्ञानी में द्वैत का कोई स्थान नहीं होता है। उसकी दृष्टि व्यापक होती है। अष्टावक्र के अनुसार, संसार में कोई दूसरा है ही नहीं, सर्वत्र एक ही आत्मा विद्यमान है। जब तक कोई व्यक्ति द्वैत भाव से रहेगा, तब तक वह वैराग्य को प्राप्त नहीं हो सकता। यदि दृश्य पदार्थों, स्थान व व्यक्तियों में गुण अथवा द्वेष दिखाई देंगे तो वे गुण और दोष हमें कभी वैराग्य में स्थित नहीं होने देंगे।

इसीलिए अष्टावक्र की गीता का सार तत्व साक्षी भाव है। यदि संसार में घटित होने वाले प्रत्येक कार्य को मनुष्य साक्षी भाव से देखे तो वह न तो मोहग्रस्त होगा और न ही बंधनयुक्त। यही ज्ञान की प्राप्ति है। अष्टावक्र द्वारा राजा जनक को जो ज्ञान प्रदान किया गया, वही भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र में मोहग्रस्त अर्जुन को समस्त जीवों में आत्मतत्व की प्रमुखता एवं कर्म के सिद्धांत के रूप में प्रदान किया गया, किंतु अर्जुन एवं राजा जनक तथा श्रीकृष्ण एवं महर्षि अष्टावक्र के उद्देश्य में भिन्नता थी।

यद्यपि महर्षि अष्टावक्र ने जनक की जिज्ञासा को शांत करते हुए उन्हें आत्मज्ञान का उपदेश दिया, तथापि महर्षि अष्टावक्र यह भी जानना चाहते थे, जो उन्होंने जनक को जो बताया है कि कहीं उसका विस्मरण तो जनक को नहीं हो गया। जनक ने अपने गुरु के भाव को समझकर गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान उनके समक्ष पुन: प्रस्तुत किया और कहा कि मैं निरंजन स्वरूप हो गया हूं। पंचमहाभूतों से मुक्त देवविहीन, मनविहीन, शून्य और समस्त आशाओं-निराशाओं से पूर्ण मुक्त हो गया हूं। यही है गुरु-शिष्य का एकाकार हो जाना। गुरु और शिष्य का एक-दूसरे के प्रति समर्पण और ज्ञान का आदान-प्रदान, समुद्र का समुद्र से प्रश्न, आकाश का आकाश से प्रश्न।