जंगलराज, SIR और वोटचोरी नहीं बल्कि...सीमांचल-मिथिलांचल से लेकर चंपारण तक पलायन-रोजगार, बाढ़-भ्रष्टाचार ही असल मुद्दे
बिहार में पहले चरण के मतदान के बाद भी, राजनीतिक दलों के चुनावी विमर्श और जनता के मुद्दों में अंतर है। चंपारण, मिथिलांचल और सीमांचल में पलायन, रोजगार, बाढ़ और भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दे हैं। युवा रोजगार के लिए बाहर जाने को मजबूर हैं, और चुनावी वादे हकीकत से दूर लगते हैं। कोसी और महानंदा नदियों में बाढ़ की समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं निकला है, और सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार व्याप्त है।

नवंबर को दूसरे और अंतिम चरण में होना है मतदान
संजय मिश्र, अररिया। बिहार में जबकि गुरुवार को पहले चरण की वोटिंग हो गई और दूसरे दौर के लिए प्रचार में अब केवल तीन दिन रह गए हैं तब भी अखाड़े में उतरी मुख्य राजनीतिक पार्टियों के चुनावी विमर्श तथा जनता के वास्तविक मुद्दों के बीच एक गैप साफ नजर आ रहा है।
सत्ता की दौड़ में शामिल दोनों प्रमुख राजनीतिक गठबंधन चाहे जंगलराज से लेकर एसआइआर-वोटचोरी के मुद्दे जितना जोर-शोर से उछालें मगर चंपारण और मिथिलांचल से लेकर सीमांचल के इलाके में सभी जगहों पर पलायन-रोजगार, बाढ़ और सरकारी दफ्तरों में लगातार बढ़ता भ्रष्टाचार ही जनता के अपने सबसे चुनावी मुद्दे दिखाई दे रहे हैं।
मतदाताओं का मिजाज बदलने के लिए पार्टियों की यह कसरत राजनीतिक चर्चा की गरमी चाहे बढ़ा दी हो मगर अपने मुद्दों की चुनौतियों से रोज-रोज जूझ रहे।
मतदाताओं को वादों के सपने बेचने की पार्टियों की घोषणाएं बहुत भरोसा नहीं दे रही हैं। इन क्षेत्रों में मतदान दूसरे और अंतिम दौर में 11 नवंबर को होना है।
राजनीतिक पार्टियां भी इस हकीकत से अनजान नहीं कि चंपारण के दोनों जिले, मिथिलांचल और सीमांचल प्रदेश में बाढ़ और पलायन के सबसे बड़े पर्याय हैं। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यहां के लोगों के लिए ये दोनों मसले इस चुनाव में उनकी रोजाना की जिंदगी के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण हैं।
रक्सौल के निकट आदापुर के ग्रामीण युवा नीरज कुमार सिंह तथा रीतेश प्रसाद के शब्दों में कहें तो हमें दिल्ली-मुंबई में एक कमरे में आठ-दस लोगों के साथ सोने और उसमें ही खाना बनाने का शौक नहीं है।
अपने इलाके में पांच हजार महीना कम भी मिले तो काम करने को तैयार हैं। छठ में घर आए दोनों वोटिंग के बाद फिर प्रवास पर निकल जाएंगे मगर यह कहते हैं कि महागठबंधन के आने पर तेजस्वी के रोजगार देने के वादे तो अब जवाब में एनडीए के नौकरी देने के वादे हकीकत बनेंगे इसकी बहुत उम्मीद नहीं फिर भी आने वाली नई सरकार की ओर उनकी निगाहें जरूर रहेंगी।
इसी तरह बेतिया के एमजेके कॉलेज के समीप चाय दुकान पर चुनावी चर्चा करते पांच-छह युवाओं में से एक मयंक तिवारी कहते हैं कि जंगलराज या एसआइआर में खामी के अपने-अपने दावे हो सकते हैं, मगर यह हमारी बेरोजगारी का इलाज तो नहीं।
वे साफ कहते हैं कि नीतीश सरकार में नौकरी की भर्तियां नहीं निकलतीं, कुछ होती भी हैं तो पेपर लीक के फेर में फंस जाती हैं और ऐसे में प्रदेश से बाहर रोजगार के लिए जाना विवशता है।
रोजगार तथा पलायन बड़ा मुद्दा होने का अहसास ही है कि महागठबंधन के जिस परिवार में कोई सरकारी नौकरी में नहीं उसके एक सदस्य को नौकरी देना का वादा किया है जिसकी सरगर्मी के जवाब में एनडीए ने भी प्रदेश में अगले पांच साल में एक करोड़ नौकरी देने के चुनावी वादे किए हैं।
मधुबनी शहर के आरके कॉलेज के समीप इस पर चर्चा करते हुए कुछ युवा आशुतोष ठाकुर और नीतिन कुमार ने कहा कि 20 साल से सत्ता में होने के बाद भी अगर अब नौकरी देने की याद आती है तो साफ है कि यह चुनावी चाकलेट है।
कुछ ऐसी ही बात अररिया के प्रमोद यादव तथा मधुबनी में अपना निजी प्रैक्टिस करने वाले डाक्टर ने अपनी पहचान उजागर नहीं करने की शर्त पर कही।
वहीं बाढ़ तथा सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार की बातें भी इन लोगों में लगभग सभी वर्ग और समूहों के बीच एक समान रही।
कोशी तथा महानंदा नदियों के बाढ़ प्रकोप से लगभग हर साल रूबरू होने वाले चंपारण के रमगढ़वा इलाके के निवासी रामसेवक महतो हों या अररिया के मोहम्मद असलम जैसे तमाम लोगों का कहना है कि कोसी तथा महानदी की बाढ़ को बचपन से हम भोगते हुए 60 की उम्र तक पहुंच चुके हैं, मगर अब तक की सरकारों ने कोई स्थाई उपाय नहीं निकाला।
2024 में इन इलाकों में भयंकर बाढ़ आई थी, मगर गनीमत है कि इस साल ऐसी नौबत नहीं आई, मगर यह दैवीय कृपा रही न कि सरकारी व्यवस्था का परिणाम है।
जनता से जुड़े सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार की शिकायतें पर सभी जगह एक ही सुर सुनाई दिए कि बिना रिश्वत दिए कोई काम नहीं होता।
चाहे यह सरकारी योजनाओं के लाभ लेने का ही मसला क्यों न हो। मोतिहारी के एक चिकित्सक, मधुबनी के पिंटू पटेल से लेकर अररिया के चंद्रमोहन राय हों सबने कहा कि भ्रष्टाचार का आलम यह है कि मृत्यु प्रमाण-पत्र भी रिश्वत के बिना जारी नहीं किया जाता और भूमि सुधार के नीतीश सरकार के प्रयासों के बावजूद अब जमीन रजिस्ट्री कराने के बाद दाखिल-खारिज के लिए हजारों से लेकर लाखों रुपये रिश्वत देना लोगों की नियति बन गई है।

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