Bihar Chunav 2025: आई जब बरात की बारी, दूल्हा बनने के लिए होने लगी मारामारी... BJP, JDU, RJD, Congress सबके यहां एक ही हाल
Bihar Politics बिहार में बिगुल बस बजने ही वाला है। ऐसे में भागलपुर की राजनीति इस बार कुछ अलग रंग दिखा रही है। अब तक पर्दे के पीछे रहकर संगठन संभालने और टिकट दावेदारों का प्रस्ताव पटना-दिल्ली भेजने वाले जिलाध्यक्ष इस बार खुद मैदान में उतरने को तैयार हैं। टिकट की दौड़ में बीजेपी जदयू राजद कांग्रेस और लोजपा रामविलास के जिलाध्यक्ष भी कूद पड़े हैं।

संजय सिंह, भागलपुर। Bihar Chunav 2025 भागलपुर की राजनीति इस बार कुछ अलग ही रंग दिखा रही है। अब तक पर्दे के पीछे रहकर संगठन संभालने और नेताओं के प्रस्ताव पटना-दिल्ली भेजने वाले जिलाध्यक्ष खुद मैदान में उतरने को तैयार हैं। जदयू जिलाध्यक्ष विपिन बिहारी सिंह का दो टूक कहना है, दूसरों को जिताने में उम्र बीत गई, अब अपनी किस्मत आजमाने का वक्त है।
कांग्रेस जिलाध्यक्ष परवेज जमाल कहलगांव विधानसभा से दावेदारी वाली ताल ठोक रहे हैं। राजद जिलाध्यक्ष चंद्रशेखर यादव ने सुल्तानगंज को अपना ठिकाना बना लिया है। उसी सीट से जदयू जिलाध्यक्ष बिपिन बिहारी सिंह भी दावा ठोक रहे हैं। भाजपा जिलाध्यक्ष संतोष साह भागलपुर विधानसभा की ओर नजर गड़ाए हैं। वहीं लोजपा (रामविलास) जिलाध्यक्ष सुबोध पासवान पीरपैंती से टिकट की जुगत में हैं। यानी संगठन की कमान संभालने वाले लगभग हर बड़े दल के कप्तान इस बार खुद चुनावी अखाड़े में उतरने की तैयारी में हैं।
यह समीकरण दिलचस्प भी है और चुनौतीपूर्ण भी। दिलचस्प इसलिए कि जिलाध्यक्ष अब केवल संगठन के पहरेदार भर नहीं रहना चाहते, बल्कि सत्ता की चाबी अपने हाथ में देखना चाहते हैं। चुनौतीपूर्ण इसलिए कि जिन सीटों पर उन्होंने नजरें गड़ाई हैं, वहां पहले से ही दिग्गज नेता जमे हुए हैं। कई तो लंबे समय से चुनाव लड़ते आए हैं और इस बार भी पटना-दिल्ली तक पैरवी में जुटे हैं। ऐसे में जिलाध्यक्षों की दावेदारी पार्टी के भीतर टकराव को जन्म दे सकती है और पुराने समीकरणों को बदल सकती है।
जिलाध्यक्षों का तर्क भी सीधा है, संगठन खड़ा हमने किया, कार्यकर्ताओं को जोड़ा हमने, पसीना बहाया हमने। तो टिकट का पहला हक भी हमारा होना चाहिए। वर्षों से जिला स्तर पर पार्टी को खड़ा करने और हर छोटे-बड़े चुनाव में निष्ठापूर्वक काम करने का हवाला देकर वे खुद को सही दावेदार बताते हैं। दूसरी ओर, विरोधियों का कहना है कि अध्यक्ष संगठन की जिम्मेदारी भूलकर निजी महत्वाकांक्षाओं में खो गए हैं। ऐसे में पार्टी की प्राथमिकता गुटबाजी से बचने की होगी या जिलाध्यक्षों की आकांक्षा पूरी करने की, यह देखना दिलचस्प होगा।
राजनीतिक गलियारे में इसे एक बड़े बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। अब तक जिलाध्यक्षों की छवि पर्दे के पीछे की ताकत की होती थी। वे उम्मीदवार तय करने में परामर्शदाता रहते, कार्यकर्ताओं को साधने में अहम भूमिका निभाते और चुनावी प्रबंधन की जिम्मेदारी संभालते। लेकिन इस बार कांग्रेस से लेकर भाजपा, राजद, जदयू और लोजपा (रामविलास) हर जगह जिलाध्यक्ष खुद सुर्खियों में हैं। यह साफ इशारा है कि संगठन की कुर्सी अब सत्ता की सीढ़ी बन गई है।
इस बदलती तस्वीर का एक और पहलू भी है। जिलाध्यक्षों की सक्रियता इस बात का प्रमाण है कि जिले में संगठन और चुनावी जमीन पर काम करने वालों का धैर्य अब जवाब देने लगा है। पहले वे पार्टी के बड़े नेताओं को मजबूत करने में ही संतुष्ट हो जाते थे। लेकिन अब उन्हें लग रहा है कि मेहनत का असली फल तभी मिलेगा, जब वे खुद जनता का प्रतिनिधित्व करें। यही वजह है कि उन्होंने सीधे टिकट की दौड़ में कूदने का फैसला किया है।
हालांकि यह राह आसान नहीं है। पार्टी नेतृत्व के सामने मुश्किल यह है कि यदि जिलाध्यक्षों की दावेदारी को तरजीह दी गई, तो पुराने नेताओं और पूर्व प्रत्याशियों का विरोध झेलना पड़ सकता है। वहीं यदि उन्हें नजरअंदाज किया गया, तो संगठन पर उनकी पकड़ ढीली पड़ सकती है। ऐसे में आलाकमान किसे साधे और किसे नाराज करे। यही सबसे बड़ी चुनौती बन गई है।
भागलपुर की राजनीति इस बार इन्हीं समीकरणों की गवाह बनेगी। कांग्रेस से लेकर भाजपा, राजद, जदयू और लोजपा (रामविलास) हर दल में जिलाध्यक्ष टिकट की लाइन में खड़े हैं। अब देखना यही है कि पार्टी आलाकमान अपने संगठन के सिपहसालारों को इनाम देता है या एक बार फिर उनकी भूमिका प्रस्ताव भेजने और कागज पर हस्ताक्षर तक सीमित रह जाती है।
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