कागज के पन्नों से आज भी राजनीति की नब्ज टटोलते हैं बुजुर्ग, अखबार के पन्नों में ढूंढते हैं चुनाव के किस्से
चुनावी माहौल में युवा सोशल मीडिया पर ध्यान देते हैं, वहीं बुजुर्ग आज भी अखबार से राजनीति की थाह लेते हैं। वे सुबह चाय के साथ अखबार पढ़ते हैं और नेताओं के वादों की तुलना करते हैं। बुजुर्गों का मानना है कि मोबाइल पर गलत सूचनाएं हैं, जबकि अखबार सच्ची खबरें देता है।
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अकबरनगर शिव मंदिर चौक पर अखबार पढ़ चुनावी माहौल जानते बुजुर्ग। (जागरण)
नमन कुमार, अकबरनगर। चुनावी मौसम में जहां युवा मोबाइल या सोशल मीडिया से नेताओं के भाषणों और पोस्ट पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वहीं गांव- कस्बों के बुजुर्ग आज भी अखबार के पन्नों से राजनीति की नब्ज टटोलते हैं।
सुबह की पहली किरण के साथ अखबार उनके आंगन में गिरता है, जिसके बाद चाय और चर्चा की रोजमर्रा की सभा शुरू हो जाती है।
अकबरनगर शिव मंदिर चौक के पास चाय की दुकान पर बैठे 65 वर्षीय मनोज झा मुस्कुराते हुए कहते हैं, 'मोबाइल तो बलाय है, कुछ भी दिखा देता है। सच्ची बात तो अखबार में ही मिलती है।' उनके साथी पप्पू दा जोड़ते हैं, 'अब तो मोबाइलवालों को खुद नहीं पता, कौन सच्चा, कौन झूठा। हम तो 40 साल से अखबार पढ़ते आ रहे हैं, उसी पर भरोसा बना है।'
गांव के चौराहों और हाट बाजारों में अब भी अखबार पढ़कर सुनाने वाले बुजुर्गों की परंपरा कायम है। ये लोग पन्नों के बीच नेताओं के पुराने वादों और नए वचनों की तुलना करते हैं।
चर्चा का मुद्दा कभी स्थानीय सड़क बन जाती है, तो कभी अस्पताल की हालत। कई बुजुर्ग कहते हैं कि पहले चुनाव में नेता घर-घर आते थे, अब बस मोबाइल पर वीडियो भेजते हैं। युवाओं की नई पीढ़ी जहां इंटरनेट सर्वे और ट्रेंडिंग पोस्ट को राजनीति की समझ मान रही है, वहीं बुजुर्ग इसे केवल दिखावा बताते हैं।
70 वर्षीय धनेश्वर ठाकुर कहते हैं, 'मोबाइल ने बात करने की आदत ही छुड़ा दी। पहले लोग बहस करते थे, अब फॉरवर्ड भेजते हैं।' गांव के कई हिस्सों में यह बहस अब नई कहानी बन गई है। एक ओर डिजिटल दौर की राजनीति, दूसरी ओर अखबार में सहेजी लोकतंत्र की परंपरा।
चुनावी चर्चा में ये बुजुर्ग अब भी जनता की आवाज बने हुए हैं, जो मानते हैं कि वोट सिर्फ बटन दबाने से नहीं, सोच से बदलता है। सत्येंद्र सिंह मुस्कुराते हुए कहते हैं, 'हम मोबाइल नहीं चलाते, पर हालात समझते हैं।'
बाजार में सुबह-सुबह जब अखबार खुलता है, तो राजनीति का नया किस्सा ज़रूर मिलता है। किसी नेता ने सभा में कहा, 'अगर हमारी सरकार बनी तो गांव में बिजली दौड़ेगी।' इस पर पान की दुकान पर बैठे बुजुर्ग ठहाका लगाते हैं, 'पहले सड़क तो बनवा दो, फिर बिजली आ जाएगी।'
अखबार की सुर्खियां भी मजेदार हैं - वादों की बारिश, सड़कों पर कीचड़। गांव के बुजुर्ग इन सुर्खियों को जोड़कर कहते हैं, 'राजनीति भी अब मजाक बन गई है, पर अखबार पढ़ने का मजा अब भी वही है।'

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