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    खजाना तो भारी है, अपनी जेब भले कुछ हल्की; बिहार चुनाव से पहले समझिए अर्थव्यवस्था का गणित

    Updated: Tue, 09 Sep 2025 07:57 AM (IST)

    कभी एरिया ऑफ डार्कनेस कहे जाने वाला बिहार अब विकास की राह पर है पर अभी भी विकसित राज्यों से पीछे है। राज्य में आर्थिक स्थिरता लाने के प्रयास जारी हैं पर सब्सिडी और मुफ्त योजनाओं के कारण विकास की गति धीमी है। कृषि क्षेत्र में सुधार और औद्योगिक विकास पर ध्यान देना आवश्यक है।

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    खजाना तो भारी है, अपनी जेब भले कुछ हल्की

    राज्य ब्यूरो, पटना। हाई कोर्ट ने जंगलराज की टिप्पणी तो बाद में की, उससे पहले ही वैश्विक पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने बिहार को एरिया आफ डार्कनेस करार दिया था। तब 21वीं सदी की शुरुआत ही हुई थी। नरसंहार और नक्सलवाद के साथ अपराध का ऐसा बोलबाला था कि श्रम और मेधा के साथ पूंजी का भी पलायन शुरू हो गया।

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    रही-सही कसर झारखंड के विभाजन ने पूरी कर दी। स्वतंत्रता के समय जो बिहार भारत के उद्योग जगत की रीढ़ था, वह आधी सदी बीतते-बीतते रोटियों का मोहताज हो गया। खजाने की सेहत पतली थी और भ्रष्टाचार चरम पर। रोजमर्रा के खर्च के लिए भी कर्ज बमुश्किल मिल रहा था। वेतन-पेंशन के लाले पड़ गए, लेकिन राजनीतिक गलियारे के रास-संग पर कोई असर नहीं पड़ा।

    तब बिहार की अर्थव्यवस्था कुछ हजार करोड़ की थी और राजकोषीय घाटा बेहिसाब। अपने बूते एक सड़क-पुल तक बनाने की औकात नहीं थी। दक्षिण-पश्चिम के राज्यों के लिए मजदूर बन चुके बिहार ने एक दिन जलालत का वह चोंगा उतार दिया। उसने दूसरे राज्यों के साथ कदमताल की ठानी और फिर निकल पड़ा विकास की राह पर।

    विकास की यह कहानी पिछले दो दशक की है। इस दौरान सरकारी खजाने की सेहत भी सुधरी और अपनी जेब की हालत भी। बावजूद बिहार विकसित राज्यों से काफी पीछे है, तो कारण यह कि कारगुजारियों ने इतना बड़ा फासला बना दिया है कि उस दूरी को नापने के लिए अब मेट्रो नहीं, बुलेट ट्रेन चाहिए। इस संदर्भ में विकाश चन्द्र पाण्डेय की रिपोर्ट।

    डेढ़ दशक की आशातीत प्रगति के बाद बिहार की अर्थव्यवस्था में पिछले पांच वर्षों से ठहराव-सी आने लगी है। हालांकि, बजट आकार बढ़ रहा, लेकिन प्रतिस्पर्द्धी राज्यों की तुलना में प्रति व्यक्ति आय और निवेश में उल्लेखनीय सुधार नहीं हो रहा। अव्वल तो भौगौलिक संरचना ही कुछ ऐसी है और उस पर सस्ते श्रम का आपूर्ति-कर्ता बनकर इसने अपने लिए ताउम्र का दर्द मोल लिया है।

    इधर के दिनों में सब्सिडी और रेवड़ियों (फ्रीबीज) का जो चलन शुरू हुआ है, उसकी पीड़ा आने वाली पीढ़ियां झेलेंगी। बढ़ते राजस्व व्यय के कारण पूंजीगत परिव्यय में कटौती की शुरुआत हो चुकी है। स्पष्ट है कि आधारभूत संरचना पर खर्च अपेक्षाकृत कम होता जा रहा। बिहार ने विकास की जो पटकथा लिखी है, उसमें तीन चौथाई से भी अधिक का योगदान द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र का है।

    विनिर्माण-खनन वगैरह इसी दायरे में आते हैं। यह क्षेत्र मेंटेनेंस की मांग रखता है, जिस पर खर्च लाजिम है। आशय यह कि विकास की इस अवस्था में भी बने रहने के लिए बिहार को अपेक्षाकृत अधिक धन की आवश्यकता होगी। औद्योगिक परिवेश नहीं होने से आय के स्रोत सीमित हैं और केंद्रीय करों में हिस्सेदारी या अनुदान निर्धारित मानदंडों के अनुरूप ही मिलेगी। उसके बाद आसरा कर्ज का ठहरा, जो धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है।

    अभी गनीमत यही है कि बिहार की कुल देनदारी अधिकतम सीमा (जीएसडीपी का 40.44 प्रतिशत) के भीतर है। राबड़ी देवी के शासन-काल के अंतिम वर्षों में यह 60 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। तब राजकोषीय घाटा छह प्रतिशत तक गया, जो अब 2.9 प्रतिशत है। इसे तीन प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।  सरकार जब स्थिर होती है तो विकास को गति मिलती है।

    अर्थशास्त्रियों की दृष्टि में इस स्थिरता का आशय जड़ता नहीं। कर्ज के सहारे होने वाला विकास निरंतर नहीं रहता, जबकि बिहार को विकसित राज्यों की प्रतिस्पर्द्धा में दहाई अंक में विकास की दर निरंतर बनाए रखनी होगी। इस पैमाने पर 2005 से 2015 तक की उपलब्धि उल्लेखनीय रही है। प्रयास आज भी जारी है, लेकिन राजस्व प्राप्तियों की तुलना में बढ़ता राजस्व व्यय बता रहा कि तनिक भी ढिलाई पर कमान हाथ से निकल जानी है।

    2020-21 में यह 108.4 प्रतिशत तक पहुंच गया था। राजस्व व्यय हमेशा बेकार नहीं होता, क्योंकि सामाजिक सरोकारों पर होने वाले खर्च इसी दायरे में आते हैं, लेकिन इसका उत्पादक नहीं हो पाना चिंताजनक है। लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या की निर्भरता आज भी प्राथमिक क्षेत्र (कृषि-पशुपालन आदि) पर निर्भर है, जिसका सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में कुल योगदान 20 प्रतिशत पर ठहर गया है।

    इस बड़ी जनसंख्या का तंगहाल होना स्वाभाविक है। इसका भार अंतत: खजाने पर ही पड़ेगा। कम कृषि आय लोगों को अपनी पूरी क्षमता से विकास करने से रोक सकती है। स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य आवश्यकताओं तक उनकी पहुंच को सीमित करके गरीबी के चक्र को लंबा खींच सकती है।

    सच तो यह है कि प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के अवसान के साथ ही बिहार की अर्थव्यवस्था भी डंवाडोल होने लगी थी। सरकारों की उठापटक में न तो विकास की चिंता रही और न ही खजाने की। पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में तो बिहार नकारात्मक विकास की ओर बढ़ चला था।

    उदारीकरण के बाद पश्चिमी राज्यों (पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात आदि) में जो विकास हुआ, वह भूमि, श्रम और जल संसाधन से अपेक्षाकृत संपन्न बिहार तक नहीं पहुंचा। इस कारण प्रवासन की स्थिति बनी। तात्कालिक रूप से अगर प्रवासन नहीं होता तो विकास पर और प्रतिकूल असर पड़ता।

    अब जाकर गाड़ी पटरी पर आई है। बिहार के जीएसडीपी की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर 2005 से अब तक औसतन 9.2% रही है। यह वृद्धि मुख्य रूप से अर्थव्यवस्था के द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में हुई प्रगति का परिणाम है। अभी अर्थव्यवस्था के तीनों क्षेत्रों में आय के हिस्से और रोजगार सृजन के अनुपात के बड़ा अंतर है। उच्च बेरोजगारी दर का यह भी एक कारण है।

    बिहार का ब्योरा (करोड़ रुपये में)

    वित्तीय वर्ष जीएसडीपी बजट आकार अपना राजस्व केंद्र से राजस्व कुल देनदारी
    2005-06 78,500 26,328.67 4,083.40 13,753.31 56.36
    2010-11 204,000 53,758.56 10,855.38 33,676.94 30.09
    2015-16 342,000 120,685.32 27,634.82 68,488.20 31.40
    2020-21 618,628 211,761.49 36,543.05 91,625.29 36.67
    2025-26 1,097,644 316,895.02 67,740.57 193,101.05 37.04

    (नोट : राशि वर्तमान मूल्य पर, देनदारी जीएसडीपी के प्रतिशत में, 2025-26 के आंकड़े अनुमानित हैं।)