19 साल की सत्ता का राज! जातीय घेरा तोड़ विकास को आधार बनाकर नीतीश ने हमेशा की अपनी शर्तों पर राजनीति
नीतीश कुमार ने बिहार में 19 वर्षों तक सत्ता में रहकर एक मिसाल कायम की है। उन्होंने जातीय समीकरणों को तोड़कर विकास को अपना मुख्य आधार बनाया। शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे में सुधार करके, उन्होंने अपनी शर्तों पर राजनीति की और एक मजबूत नेता के रूप में उभरे।

नीतीश कुमार 10वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बने
अरुण अशेष, पटना। नीतीश कुमार 10वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने जा रहे हैं। यहां की राजनीति में यह उनकी सर्व स्वीकार्यता का प्रमाण है, जब अनवरत पिछले 20 वर्षों से यहां की जनता उनमें अपनी उम्मीद देखती चली आ रही है। यह यूं ही नहीं है। उन्होंने इसे विकास के फलक पर प्रमाणित भी किया गया है।
इसी का परिणाम है कि आम जनता ने नीतीश को सुशासन के एक चेहरे के रूप में देखा और इसी रूप में वे स्थापित हो चुके हैं। समाज की वह आबादी, जो हाशिए पर है, उसके उत्थान का न केवल सोच, बल्कि उसे साकार भी करना।
महिलाओं को एक वर्ग के रूप में देखते हुए उनके सामाजिक विकास, स्वाभिमान और सपनों को उड़ान देने का स्वपन।
नीतीश ने अपनी परिकल्पना को साकार भी किया। यह गांव-समाज में देखा जा सकता है, जहां बिहार की महिलाएं तेजी से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ीं।
नई पीढ़ी में आने वाला कल देखते हुए उसे उस रूप में तैयार करना, एक दूरद्रष्टा का सोच। इन सबने नीतीश को बिहार की राजनीति का ही नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना में भी शिखर पुरुष बनाया।
यह 1995 के विधानसभा चुनाव का समय था। उस समय के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद चौतरफा संघर्ष में घिरे थे। उनके विरोध में कांग्रेस, भाजपा, समता और बिपीपा जैसी पार्टियां खड़ी थी।
चतुष्कोणीय लड़ाई में फंसे लालू प्रसाद अकेले पड़े थे। तय था कि चुनाव परिणाम मंडल आयोग की सिफारिशों के कारण समाज के वंचित तबके के लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षा को प्रकट करेगा।
समता पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किए गए नीतीश कुमार के बारे में यही राय बन रही थी कि वे सामाजिक न्याय की धारा को अपनी ओर मोड़ लेंगे। लालू प्रसाद को सत्ता से हटा कर शासन की बागडोर संभाल लेंगे।
लेकिन, चुनाव परिणाम समता पार्टी के लिए निराशाजनक संदेश लेकर आया। एकीकृत बिहार में विधानसभा की सदस्य संख्या 324 थी। समता पार्टी के हिस्से केवल सात सीटें आईं थीं।
उसके उम्मीदवार 310 सीटों पर खड़े थे। वोट प्रतिशत भी महज 7.1 प्रतिशत था। बताने की जरूरत नहीं है कि सरकार बनाने के इरादे से चुनाव मैदान में गई समता पार्टी परिणाम के बाद उपहास का पात्र बन गई थी।
परिणाम से नीतीश कुमार परेशान हुए। लेकिन, हताश नहीं हुए। 1991 में वे बाढ़ संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीते थे। 1995 में हरनौत विधानसभा से भी उनकी जीत हुई।
उन्हें यह तय करने में समय लगा कि विधायक की हैसियत से बिहार में रहें या लोकसभा सदस्य के नाते अपनी भूमिका का विस्तार करें। काफी सोच विचार कर यह तय हुआ कि नीतीश विधानसभा की सदस्यता से त्याग पत्र दे दें।
लोकसभा सदस्य रहें और बिहार में अपनी सक्रियता बढ़ाएं। 1995 के चुनाव में लालू प्रसाद के जनता दल को पूर्ण बहुमत मिल गया था। वाम और झारखंड की कुछ पार्टियों के साथ तालमेल के आधार पर जनता दल चुनाव लड़ा था।
हालांकि सरकार बनाने के लिए लालू प्रसाद को सहयोगी दलों की जरूरत नहीं थी। अकेले जनता दल को 167 सीटें मिल गई थी। नीतीश इस तथ्य को समझ रहे थे कि अकेले कोई दल लालू प्रसाद को परास्त नहीं कर सकता है।
1995 में उन्होंने भाकपा माले के साथ कुछ सीटों पर समझौता किया था। यह कारगर नहीं रहा। भारतीय जनता पार्टी विपक्ष की बड़ी पार्टी बन गई थी।
उसे विपक्ष का दर्जा भी मिल गया था। लेकिन, उसे भी अगली लड़ाई के लिए सहयोगी की जरूरत थी।
समता पार्टी और भाजपा की दोस्ती का परिणाम 1996 के लोकसभा चुनाव में सामने आया। भाजपा 18 और समता पार्टी की छह सीटों पर जीत हो गई। 1998 के लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा 30 पर पहुंच गया।
भाजपा के 20 और समता पार्टी के 10 सांसद चुने गए थे। यह सिलसिला आगे तक चलता रहा। इस बीच नीतीश केंद्र में मंत्री बने। 2000 के विधानसभा चुनाव परिणाम में नीतीश को संघर्ष का फल मिला।
वे सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने। इस छोटी अवधि ने नीतीश के आत्मविश्वास को काफी बढ़ाया। तब तक अपराजेय माने जा रहे लालू प्रसाद के बारे में मान लिया गया कि इनकी सत्ता जा भी सकती है।
केंद्र में रेल मंत्री रहते हुए नीतीश ने बिहार पर ध्यान केंद्रीत किया। 2005 के फरवरी वाले चुनाव में वे सत्ता से कुछ दूर रह गए थे।
लेकिन, नवंबर के चुनाव में भाजपा-जदयू को वह जादुई आंकड़ा हासिल हो गया, जिसके सहारे नीतीश आज तक अपराजेय बन हुए हैं।
20 नवंबर से जो उनका कार्यकाल शुरू होने जा रहा है, वह उनका नाम देश के उन मुख्यमंत्रियों की सूची में शामिल करेगा, जो 20 साल से अधिक सत्ता में रहे हैं।
इनमें पश्चिम बंगाल के ज्योति बसु, ओडिशा के नवीन पटनायक, हिमाचल के वीरभद्र सिंह, मिजोरम के ललथन हवला और अरुणाचल के गगोंग अपांग के नाम शामिल हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री के पद पर अधिकतम समय तक रहने का रिकार्ड उनके नाम पहले दर्ज हो चुका है। उनसे पहले डा. श्रीकृष्ण सिंह के नाम 17 साल का रिकार्ड दर्ज है।
2025-30 का कार्यकाल पूरा करने के बाद नीतीश देश के पहले ऐसे मुख्यमंत्री होंगे, जिन्हें करीब 25 साल शासन करने का अवसर मिला। अभी यह ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के नाम दर्ज है।
महिलाओं को एक वर्ग के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास
वे पांच अत्यंत पिछड़ी जातियों को संगठित करने के बाद नीतीश ने महिलाओं को जाति और धर्म के बदले एक वर्ग के रूप में परिवर्तित करने का सुनियोजित प्रयास किया।
इसकी शुरुआत शिक्षा और त्रिस्तरीय पंचायतों में आरक्षण से हुई। सबसे पहले छात्राओं के लिए मुफ्त पुस्तक-पोशाक योजना शुरू की गई। उन्हें साइकिल दी गई।
उसी समय त्रिस्तरीय पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण शुरू किया गया। कल्पना कीजिए 2005 में जो बच्ची पहली कक्षा में थी, अब वह वोटर भी है।
हालांकि बाद में छात्राओं को दी जाने वाली सभी सुविधाएं छात्रों को भी दी गईं। महिलाओं को वर्ग में बदलने की योजना को जीविका दीदियों से जमीन पर उतारा।
2025 के विधानसभा चुनाव में जीविका दीदियों की खूब चर्चा हुई। उनसे जुड़ी महिलाओं को 10-10 हजार रुपये दिए गए। ढंग से काम करने पर दो लाख रुपये तक देने का वादा किया गया है।
इनके अलावा सरकारी नौकरियों और दाखिले में आरक्षण देकर महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में शामिल किया गया। महिलाओं की तरह युवाओं के साथ भी सरकार का व्यवहार एक वर्ग की तरह किया गया।
सरकारी नौकरी और रोजगार देने के केंद्र में यही वर्ग है। देखिए, तो नीतीश ने अपने पूरे कार्यकाल में राजनीति के पुराने विमर्श को बदल कर विकास को विमर्श का मुख्य विषय बना दिया।
यही कारण है कि इस चुनाव में सभी दलों ने रोजी-रोजगार और विकास को मुख्य मुद्दा बना दिया। इसे भी नीतीश की सफलता के रूप में चिन्हित किया जा सकता है।
पूरे कार्यकाल में नीतीश ने अपने को इस तरह स्थापित किया कि कोई भी राजनीतिक समीकरण उनके बिना सत्ता तक नहीं पहुंचा सकता है। यही कारण है कि पक्ष और विपक्ष के दलों ने उनके नेतृत्व को सहर्ष स्वीकार किया।
राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद, जिनकी सत्ता को चुनौती देकर नीतीश की सरकार बनी थी, उन्हें भी नीतीश का नेतृत्व स्वीकार करने से परहेज नहीं हुआ।
हालांकि, इसके लिए उनकी आलोचना अवसरवादी के रूप में भी होती है। सच यह भी है कि उन्होंने अपनी शर्तों पर राजनीति की। वह अपनी जगह स्थिर रहे।
दूसरे दल उनके पास आए। जिस किसी दल से सत्ता में साझीदारी के लिए समझौता किया, उसमें शर्तें उनकी ही होती हैं।
इस बार के विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद भी दूसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद उन्हीं की शर्तें लागू हुईं।

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