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    राजसत्ता से जनसत्ता तक: बिहार विधानसभा इतिहास के लोकनिष्ठ 'राजपुरुष' राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह

    Updated: Tue, 04 Nov 2025 02:29 PM (IST)

    बिहार की राजनीति में राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने राजतंत्र से जनतंत्र की ओर बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1952 में उन्होंने चार सीटों पर विजय प्राप्त की और 'राइट टू रिकॉल' का विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने किसानों का लगान माफ किया और अपनी संपत्ति दान कर दी। उनका जीवन लोकसेवा और सिद्धांतों के प्रति समर्पण का प्रतीक है, और आज भी उन्हें याद किया जाता है।

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    प्रणय विक्रम सिंह। बिहार का सियासी तापमान आसमान छू रहा है। भय, भूख और भ्रष्टाचार का पर्याय रहे राजनीतिक दल भी इस समय लोकतंत्र की पाठशाला बने हुए हैं। जाति और जुमलों की जुगलबंदी के जाल में जकड़ा बिहार का 'लोकतंत्र' आज बड़ी शिद्दत के साथ अपने उस पुरोधा का स्मरण कर रहा है, जिन्होंने अपने जीवन में यह सिद्ध किया कि लोकतंत्र, लोकसेवा से ही दीर्घजीवी होता है। जी हां, हम बात कर रहे हैं रामगढ़ (झारखंड) के राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह की।

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    वे बिहार विधानसभा के इतिहास में ऐसे 'राजपुरुष' थे जिन्होंने राजतंत्र की रीति को जनतंत्र की नीति में ढाला और लोकमंगल को अपने जीवन का लोकमंत्र बनाया। प्रचंड कांग्रेसी लहर में भी रामगढ़ का इस लोकनिष्ठ राजा ने जनविश्वास का स्वराज कायम रखा था। स्वतंत्र भारत के प्रथम बिहार विधान सभा चुनाव (1952) में छोटानागपुर क्षेत्र की चार सीटों से उन्होंने एक साथ विजय प्राप्त की थी। यह कोई महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि जनाधार की परख थी। जनता ने अपना विश्वास उन्हें सौंपा वे बगोदर, पेटरवार, गोमिया और बड़कागांव सीटों से विजयी हुए थे।

    उन्होंने केवल शासन नहीं किया, जनमन जीता। 1952, 1957, 1962 और 1967 के चुनावों में लगातार जीतकर उन्होंने यह दिखाया कि सत्ता बदल सकती है, पर स्नेह की सत्ता अमर रहती है।

    'राइट टू रिकॉल' : जनमत का ज्योतिर्वाक्य

    राजा बहादुर ने 1946 में सक्रिय राजनीति का आरंभ किया और 1951 में, प्रथम आम चुनाव से पहले, हजारीबाग की एक विराट सभा में अपनी छोटानागपुर- संताल परगना पार्टी की नीतियां घोषित कीं। वह सभा भारतीय लोकतंत्र की दिशा बदलने वाली थी। उन्होंने कहा कि सरकार गरीबों पर करों का बोझ बढ़ा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यदि सरकार को धन चाहिए, तो उसे हम जैसे लोगों से भारी कर लेना चाहिए और फिर जनता से कहा कि हम जनता को वह अधिकार देना चाहते हैं, जिसके बल पर वे अपने विधायकों की सदस्यता समाप्त कर सकें। यही वह क्षण था जब भारत में पहली बार 'राइट टू रिकॉल' का विचार रखा गया। राजा बहादुर ने लोकतंत्र की आत्मा में उत्तरदायित्व का बीज बोया।

    यह वह समय था जब लोकतंत्र बाल्यावस्था में था, और उन्होंने राइट टू रिकॉल का प्रस्ताव रखकर जनता को शासन का सह-शिल्पी बना दिया। उनका यह दृष्टिकोण बताता है कि वे राजनेता नहीं, राजऋषि थे। जो सत्ता नहीं, सजगता के संस्कार बोना चाहते थे।

    स्वराज से पहले स्वाभिमान : प्रजा जागरण का प्रणेता

    भारत जब स्वतंत्रता की दहलीज पर था, तब रामगढ़ का यह राज दरबार प्रजा जागरण का केंद्र था। देश को स्वाधीनता 1947 में मिली, पर रामगढ़ के राजा ने 1944 में ही किसानों का लगान माफ कर दिया। यह घटना केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक मुक्ति का शंखनाद थी। उनके भीतर राजसी अहंकार नहीं, प्रजा पालक संवेदना थी। सन 1940 में जब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और बाबू राम नारायण सिंह की प्रेरणा से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ऐतिहासिक अधिवेशन रामगढ़ में हुआ, तब राजा कामाख्या नारायण सिंह ने तन-मन-धन से उस आयोजन को अपने कर-कमलों से सिंचित किया।

    दामोदर के तट पर सजे उस अधिवेशन में महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेता उपस्थित थे। और वहीं राजा बहादुर ने गांधीजी के समक्ष राज-संपत्ति समर्पण की घोषणा कर दी। ये वह क्षण था जब राजसी स्वामित्व, लोक-संगठन में विलीन हुआ। इसी अधिवेशन ने 'भारत छोड़ो आंदोलन' की आधारभूमि रखी, और रामगढ़ जनजागरण की ध्वजा बना।

    स्वतंत्रता के बाद भी उनका तेज और त्याग कम नहीं हुआ। जब पंडित नेहरू की कांग्रेस लहर हर ओर फैली हुई थी, तब इस राजकुमार ने छोटानागपुर-संताल परगना जनता पार्टी बनाई। यह केवल राजनीतिक संगठन नहीं, जनसत्ता की जागृति थी।

    1952, 1957, 1962 और 1967 के विधानसभा चुनावों में राजा कामाख्या नारायण सिंह निरंतर विजयी रहे क्योंकि वे जनसेवा को राजनीति की रीढ़ मानते थे। 1962 में उनकी पार्टी ने 50 सीटें जीतीं और वे मुख्य विपक्ष बने और बिहार विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में लोकतंत्र का नया अध्याय लिखा। उनके भाई कुंवर बसंत नारायण सिंह, पत्नी ललिता राजलक्ष्मी देवी और पुत्र टिकैत इंद्र जितेंद्र नारायण सिंह ने भी जनसेवा की परंपरा को आगे बढ़ाया।

    सिद्धांतों के संन्यासी : सत्ता से बड़ा स्वाभिमान

    जब नेहरू ने उन्हें 'जमींदारों की पार्टी' कहकर आलोचना की, तो उन्होंने प्रत्युत्तर नहीं दिया। जनता से संवाद किया। 1966 में उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर एकता का परिचय दिया, पर जब मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने वचन भंग किया, तो उन्होंने मंत्रिपद त्यागकर मर्यादा का मस्तक ऊंचा रखा। 25 जून, 1968 को उन्होंने शास्त्री सरकार से समर्थन वापस लेकर बिहार में पहली बार राष्ट्रपति शासन लागू कराया। यह विरोध नहीं, विवेक का व्रत था।उनकी राजनीति में स्वार्थ का अंधकार नहीं, सिद्धांतों का सूर्य था।

    भूदान का महाभिषेक : भूमि से लोकधर्म तक

    विनोबा भावे के आह्वान पर उन्होंने ढाई लाख एकड़ भूमि भूदान में दे दी। यह केवल भूमि का दान नहीं था, यह भारतभूमि के प्राणों में परमार्थ का प्रवाह था। जब कोई राजसी पुरुष भूमिहीनों के लिए अपनी धरती तक दे दे तो वह राजा नहीं, राष्ट्रात्मा बन जाता है। जहां अन्य राजा भूमि बांटते थे, वहां रामगढ़ के राजा ने भूमि को मुक्त कर दिया। यह वो क्षण था जब राजनीति ने परोपकार का स्पर्श पाया और धरती ने दान में धर्म का अर्थ समझा। यह वो घड़ी थी जब राज्य ने समाज को प्रणाम किया और ‘राज’ ने ‘लोक’ के चरण धोए। उनका यह कार्य उन्हें इतिहास में नहीं अमरात्माओं की परंपरा में स्थापित करता है।

    राजा कामाख्या नारायण सिंह न केवल विधायक, मंत्री और नेता प्रतिपक्ष रहे बल्कि लोकनिष्ठा के ललाट-दीप थे। उनके भाषणों में सामर्थ्य था, आचरण में शुचिता थी, और जनता से जुड़ाव में वह आत्मीयता थी जो आज की राजनीति में विरल है। राजसत्ता खोकर भी उन्होंने जन-सत्ता का सम्मान बढ़ाया।

    विस्मृति का धुंधलका : इतिहास का अन्याय

    आज जब बिहार की राजनीति समीकरणों और स्वार्थों में सिमट गई है, तो यह विस्मरण और भी वेदनापूर्ण प्रतीत होता है। जो जनता के धन से पलते हैं, वे सुर्खियों में हैं, और जो जनता के लिए धरती तक दान कर गए, वे इतिहास की धूल में दबे हैं।

    राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह वह नाम, जिसे राजनीति ने भुलाया, पर जनता ने अपने हृदय में संजोया। उन्होंने दिखाया कि राजतंत्र मिट सकता है, पर राजधर्म अमर रहता है। सत्ता बदलती है, पर संवेदना की सरिता निरंतर बहती रहती है।उनका जीवन सिखाता है कि पद से नहीं, प्रजा से प्रतिष्ठा मिलती है। शासन से नहीं, सेवा से स्वर्णयुग बनता है।

    वे बिहार के नहीं, भारत के राजराजकुमार थे, जिन्होंने भूमि को लोभ से नहीं, लोक से जोड़ा। जिन्होंने राजसत्ता को जनसत्ता में प्रवाहित कर दिया। उनकी स्मृति आज भी कहती है कि राजनीति की नाप पद से नहीं, परोपकार से होती है। उनका जीवन बताता है कि सत्ता से अधिक संवेदना, पद से अधिक परोपकार और राजगद्दी से बड़ा जनविश्वास होता है।

    राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह वह दीप हैं जो आज भी जल रहा है, क्योंकि उन्होंने राजनीति में राग नहीं, राष्ट्र का राग भरा था। वे थे भूमि के भागीरथ, जिन्होंने राजतंत्र की मर्यादा को लोकतंत्र की मर्यादा में रूपांतरित किया और भारतभूमि के अंतःकरण में अमर हो गए।

    आज जब राजनीति के गलियारों में स्वार्थ की सर्द हवा और संवेदनहीनता की छाया फैली है, तब राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह का जीवन दीप-स्तंभ बनकर खड़ा है यह याद दिलाते हुए कि सत्ता का स्थायित्व पद में नहीं, सेवा में है। उन्होंने दिखाया कि लोकतंत्र केवल वोटों से नहीं, व्रतों से जीवित रहता है और शासन की शक्ति शोर में नहीं, श्रद्धा में बसती है। राजा बहादुर का जीवन हमें यह सिखाता है कि जो नेता गद्दी पर बैठकर भी जनमानस में उतरता है, वही इतिहास में अमर होता है।

    आज का बिहार यदि सचमुच आत्ममंथन करना चाहता है, तो उसे उस राजपुरुष की ओर देखना चाहिए जिसने राजमुकुट को नहीं, जनविश्वास को अपना ताज बनाया था। क्योंकि अंततः वही शासक अमर होता है, जो यह जानता है कि राजधर्म की जड़ सत्ता में नहीं, सेवा में है और जनसेवा ही जनमानस का स्थायी शासन है।