सारण से कांग्रेस का 'हाथ' उखड़ा, 2 चुनाव, 0 उम्मीदवार, जिलाध्यक्ष ने दिया इस्तीफा
छपरा से आई खबर के अनुसार, कभी बिहार की राजनीति में मजबूत पकड़ रखने वाली कांग्रेस पार्टी अब सारण जिले में कमजोर हो गई है। पिछले दो चुनावों में पार्टी ने यहाँ से एक भी उम्मीदवार नहीं उतारा है, जिससे कार्यकर्ताओं में निराशा है। जिलाध्यक्ष ने भी इस्तीफ़ा दे दिया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि गठबंधन की राजनीति और संगठन की कमजोरी के कारण कांग्रेस अपने गढ़ से गायब हो रही है, और अब उसे आत्ममंथन की आवश्यकता है।

सारण से कांग्रेस का 'हाथ' उखड़ा
शिवानुग्रह सिंह, छपरा। कभी बिहार की राजनीति में कांग्रेस का ''हाथ'' जिस जमीन पर मजबूती से जमता था, वहीं जमीन अब पार्टी के पैरों तले से खिसक चुका है। बात हो रही है राजनीतिक शुचिता वाले सारण जिले की।
वह सारण, जिसने एक दौर में कांग्रेस के लिए चुनावी जीत की गारंटी का काम किया था। पर, आज हालात यह है कि पिछले दो विधानसभा चुनावों - 2020 और इस बार के चुनाव में कांग्रेस ने जिले की 10 सीटों में से किसी एक पर भी अपना प्रत्याशी नहीं उतारा।
यह न केवल राजनीति समीकरण में बदलाव की कहानी है, बल्कि कांग्रेस की गिरती संगठनात्मक स्थिति पर भी गहरी टिप्पणी करता है।
कार्यकर्ताओं में गुस्सा और हताशा
सारण जिले के कांग्रेस कार्यकर्ताओं में इन दिनों मायूसी और नाराजगी दोनों है। पार्टी का जिला कार्यालय लगभग सुनसान पड़ा हुआ है। स्थानीय नेताओं का कहना है कि जब चुनाव मैदान में उतरने का मौका ही नहीं मिलेगा तो कार्यकर्ता किस बात पर जुटेंगे।
पार्टी नेतृत्व के इस रवैये से नाराज होकर जिलाध्यक्ष बच्चू प्रसाद बीरू ने चुनाव के वक्त दल और पद दोनों से इस्तीफा दे दिया है। उनका कहना है कि जिला इकाई को दरकिनार कर शीर्ष नेतृत्व ने स्थानीय भावना और जमीनी सच्चाई को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है।
जब मांझी सीट पर फहराया था विजय पताका
वक्त की सुई को अगर कुछ पीछे घुमाएं तो सारण में कांग्रेस की तस्वीर कुछ और थी। 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जिले की मांझी सीट से विजय शंकर दुबे को उम्मीदवार बनाया था।
यह वह चुनाव था जब कांग्रेस ने सीमित सीटों पर राजनीतिक दांव खेले और मांझी ने पार्टी को उम्मीद दी। दुबे जी यहां से जीत कर विधानसभा पहुंचे और कांग्रेस को जिले में अपनी मौजूदगी का अहसास कराया।
दिलचस्प बात यह है कि मांझी सीट कांग्रेस के लिए ऐतिहासिक रूप से शुभ रही है। स्वतंत्रता के बाद से लेकर 2015 तक के अधिकांश विधानसभा चुनावों में न केवल प्रत्याशी उतारे बल्कि जीत भी दर्ज की। यानी सारण के राजनीतिक नक्शे में मांझी सीट कांग्रेस के पहचान की प्रतीक रही। लेकिन, अब वह भी सीट पार्टी के चुनावी नक्शे से गायब हो चुकी है।
2010 में 10 में 10 सीटों पर थी मौजूदगी
सारण जिले में कुल 10 विधानसभा सीटें हैं। छपरा, गड़खा, अमनौर, परसा, तरैया, बनियापुर, एकमा, मांझी, मढ़ौरा और सोनपुर। दो नवगठित सीट अमनौर और एकमा को छोड़ दें तो 2010 तक चुनाव में कांग्रेस ने लगभग सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे।
तब पार्टी के झंडे तले नारे गूंजते थे, जुलूस निकलते थे और जिला कांग्रेस कमेटी से लेकर बूथ स्तर तक सक्रियता दिखती थी। मगर उस चुनाव में हार के बाद पार्टी ने जैसे धीरे-धीरे अपने हाथ खींच लिए।
2015 के चुनाव में केवल एक सीट मांझी पर, फिर 2020 और 2025 के चुनाव में किसी भी सीट पर नहीं - यह कांग्रेस की कमजोर होती संगठनात्मक पकड़ का साफ संकेत है।
गठबंधन की राजनीति में गुम हो गया कांग्रेस का चेहरा
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सारण जैसे अपने मजबूत गढ़ से कांग्रेस के गायब हो जाने की वजह केवल संगठन की कमजोरी नहीं, बल्कि गठबंधन की अनिश्चित रणनीति भी है।
महागठबंधन की सीट बंटवारे की प्रक्रिया में कांग्रेस को अक्सर त्यागी की भूमिका निभानी पड़ती है। राजद और वामदलों के बीच सीटों के खींचतान में सारण जैसी पारंपरिक सीट कांग्रेस के हिस्से से निकल जाती है।
पर, स्थानीय कार्यकर्ता पूछ रहे हैं - अगर गठबंधन में रहकर अपनी जमीन ही गंवानी है, तो फिर संगठन क्यों। वहीं सारण के राजनीतिक पंडितों का कहना है कि कांग्रेस को अब आत्ममंथन की जरूरत है। चुनाव में सीटों पर न लड़ना सिर्फ रणनीति नहीं, आत्मसमर्पण है।
सारण की राजनीति में कांग्रेस का ''हाथ'' पर्याय था।
वहीं ''हाथ'' दो चुनावों से गायब है और संगठन के भीतर खामोशी पसरी है। जिलाध्यक्ष के इस्तीफा से लेकर कार्यकर्ताओं की नाराजगी तक इस बात की गवाही है कि कांग्रेस को अब आत्ममंथन की नहीं, पुनर्जन्म की जरूरत है। वरना आने वाले चुनावों में यह सवाल बार-बार उठेगा कि सारण में कांग्रेस कहां है।

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