दिल्ली के अस्पतालों में दवा संकट, मरीजों को हो रही परेशानी
दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में मरीजों को दवाएं और जांच कराने में दिक्कतें आ रही हैं। मरीजों को आधी दवाएं बाहर से खरीदनी पड़ रही हैं। कैग की रिपोर्ट के अनुसार, बजट की कमी नहीं है, बल्कि प्रबंधन और वितरण में कमी है। अस्पतालों के आसपास दवा और जांच केंद्रों का कारोबार बढ़ रहा है। सरकार ने बजट बढ़ाया है, लेकिन दवाओं के लिए आवंटन कम है।

दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में मरीजों को दवाएं और जांच कराने में दिक्कतें आ रही हैं।
अनूप कुमार सिंह, नई दिल्ली। दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में मरीजों को न तो सभी दवाएं मिल रही हैं और न ही सभी वादे के मुताबिक जांच हो रही हैं। मरीजों को हर चार में से दो दवाएं खुद खरीदनी पड़ रही हैं। यही स्थिति अस्पतालों में होने वाली जांचों की भी है। यही वजह है कि दिल्ली के हर सरकारी अस्पताल के आसपास दवा और डायग्नोस्टिक्स का बड़ा कारोबार पनप रहा है। हर साल खून और रेडियोलॉजी से जुड़ी जांचों और दवाओं का कारोबार करोड़ों रुपये का हो रहा है।
लोकनायक, जीबी पंत, जीटीबी और लाल बहादुर शास्त्री समेत सभी सरकारी अस्पतालों में यही स्थिति है। मरीज परेशान हैं, लेकिन अस्पताल प्रबंधन और सरकार बेपरवाह हैं। यह सिर्फ मरीजों और उनके तीमारदारों का आरोप नहीं है, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य अवसंरचना और स्वास्थ्य सेवाओं के प्रबंधन-2025 पर कैग की रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि करती है। मुख्य बात यह है कि दिल्ली में स्वास्थ्य सेवा के लिए बजट की कोई कमी नहीं है।
कमी बजट प्रबंधन, उसके उचित वितरण, निगरानी और उपयोग की है। यह स्थिति क्यों और कैसे नियोजित या संचालित होती है, यह जांच का विषय है। लोक नायक (एलएनजेपी) अस्पताल आईं विमला शर्मा बताती हैं कि उन्हें डॉक्टर के पर्चे पर लिखी मधुमेह की मानक दवा भी नहीं दी गई। उन्हें बाहर काउंटर से दवा खरीदने की सलाह दी गई।
कान में दर्द और खुजली की शिकायत लेकर अस्पताल आए शाहिद को अस्पताल से बूँदें तो मिलीं, लेकिन दवा लेने से मना कर दिया गया। इसी तरह, जीबी पंत अस्पताल में हृदय रोग का इलाज करा रहे मोहम्मद फखरुद्दीन को तीन दवाएँ लिखी गईं, लेकिन फार्मेसी से उन्हें केवल एक ही मिली। उन्होंने बाकी दो दवाएँ अस्पताल के सामने वाले बाज़ार से खरीदीं।
गुरु गोविंद सिंह अस्पताल में अपनी पत्नी का इलाज कराने आए दिनेश मंडल ने बताया कि वह अपनी पत्नी का अल्ट्रासाउंड अस्पताल में नहीं करा पाए। उन्हें दवा बाहर से खरीदनी पड़ी। पेट दर्द और अन्य शिकायतों के इलाज के लिए आए मांगेराम की भी ऐसी ही शिकायत थी।
उन्होंने कहा कि उन्हें अस्पताल द्वारा लिखी गई आधी दवा ही मिली, बाकी उन्हें खरीदनी पड़ी। जीटीबी अस्पताल के एक किलोमीटर के दायरे में 250 चिकित्सा केंद्र और 50 से ज़्यादा रक्त एवं रेडियोलॉजी जाँच केंद्र हैं, जहाँ इलाज के लिए मरीज़ों का ताँता लगा रहता है। लाल बहादुर शास्त्री (एलबीएस) अस्पताल में भी यही हाल है। वहाँ आई 70 वर्षीय कल्याणी देवी को उच्च रक्तचाप की दवा, एम्लोडिपिन, नहीं मिल पाई। वह कहती हैं कि उन्हें इसे बाहर से 300 रुपये में खरीदना पड़ा। अस्पताल के कर्मचारी भी दस्तानों और पट्टियों की कमी की बात स्वीकार करते हैं।
बजट में वृद्धि, फिर भी संकट बरकरार
2025-26 के बजट में, सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए 12,893 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं, जो पिछले वर्ष की तुलना में 66 प्रतिशत अधिक है। दवाओं और जाँच के लिए लगभग 4,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जबकि वास्तविक ज़रूरत लगभग दोगुनी है। दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में सालाना 6 करोड़ से ज़्यादा मरीज़ आते हैं।
कहां हैं कमियां?
- बजट पूरी तरह से खर्च नहीं हुआ: 2023-24 में लगभग 20 प्रतिशत धनराशि खर्च नहीं हुई।
- बजट का बड़ा हिस्सा बुनियादी ढाँचे और प्रशासनिक प्रणालियों के लिए आवंटित किया गया है, जबकि दवाओं और परीक्षण उपकरणों के लिए आवंटन सीमित है।
- आपूर्ति श्रृंखला और खरीद प्रणाली कमज़ोर है।
- अस्पतालों की संख्या और भीड़ का अनुपात असंतुलित है।

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