2013 से पहले नाबालिग से दुष्कर्म पर साबित करनी होगी उम्र, 20 वर्ष पुराने केस में दिल्ली HC का फैसला
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि 2013 से पहले के पॉक्सो एक्ट मामलों में, पीड़िता की नाबालिग उम्र साबित करना अभियोजन पक्ष की जिम्मेदारी है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि उम्र को लेकर संदेह होने पर आरोपी को इसका लाभ मिलेगा। यह फैसला 2008 के अपहरण और बलात्कार के एक मामले की सुनवाई के दौरान सुनाया गया।
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दुष्कर्म के दो दशक पुराने मामले में अपीलकर्ता को बरी करते हुए अदालत ने सुनाया फैसला
जारगण संवाददाता, नई दिल्ली। नाबालिग से दुष्कर्म के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा कि आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम- 2013 से पहले के मामलों में अभियुक्तों की दोषसिद्धि के लिए अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि नाबालिग पीड़िता 16 वर्ष से कम आयु की थी।
2005 में 11 वर्षीय किशोरी के साथ दुष्कर्म के दोषी व्यक्ति को बरी करते हुए अदालत ने कहा कि यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि अपराध वर्ष 2005 में किया गया था, जब आईपीसी की धारा 375 के तहत सहमति की आयु 18 वर्ष के बजाय 16 वर्ष थी। हालांकि, 2013 में संशोधित किया गया था। इसलिए, दोषसिद्धि के लिए अभियोजन पक्ष को यह साबित करना आवश्यक था कि अभियोक्ता की आयु 16 वर्ष से कम थी।
2013 के संशोधन अधिनियम ने यौन संबंध के लिए सहमति की आयु बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी। इससे 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति के साथ यौन संबंध बनाना एक आपराधिक अपराध बन गया। दोषी ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी करार देने व पांच साल के कठोर कारावास की सजा को चुनौती दी थी। 2007 में दायर अपील के लंबित रहने तक 2008 में सजा निलंबित कर दी गई थी।
अपील स्वीकार करते हुए, न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता और नाबालिग ने स्वीकार किया था कि वे शादी के बाद पति-पत्नी के रूप में साथ रह रहे थे और उनके बीच यौन संबंध थे।
पीठ ने कहा कि जब पुलिस ने पीड़िता को बरामद किया और मेडिकल परीक्षण के लिए पेश किया, तो एमएलसी में उसकी उम्र 14 साल दर्ज थी, जो अभियोजन पक्ष के इस तर्क से मेल नहीं खाती कि उस समय उसकी उम्र केवल 11 साल और सात महीने थी।
पीठ ने कहा कि नाबालिग की उम्र से संबंधित पूरा मामला पूरी तरह से स्कूल की प्रधानाध्यापिका द्वारा जारी प्रमाण पत्र पर आधारित है, जिसे उम्र का विश्वसनीय प्रमाण नहीं माना जा सकता।
इतना ही नहीं नाबालिग की उम्र में विसंगतियों को दूर करने के लिए कोई अस्थिभंग परीक्षण नहीं किया गया था। ऐसे में अपीलकर्ता की दोषसिद्धि बरकरार नहीं रखा जा सकता है और उसे संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए। ट्रायल कोर्ट के निर्णय को रद करते हुए अदालत ने अपीलकर्ता को रिहा करने का आदेश दिया।

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