'कम अटेंडेंस पर भी परीक्षा से नहीं रोक सकते...', एमिटी के छात्र की आत्महत्या के केस में दिल्ली HC का फैसला
पटना उच्च न्यायालय ने विधि छात्रों को बड़ी राहत देते हुए कहा है कि न्यूनतम उपस्थिति की कमी के कारण उन्हें परीक्षा में बैठने से नहीं रोका जाना चाहिए। अदालत ने यह फैसला उन छात्रों की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया, जिन्हें कॉलेज ने कम उपस्थिति के कारण परीक्षा में बैठने से मना कर दिया था। अदालत ने स्पष्ट किया कि परीक्षा शुल्क जमा करने और योग्य होने पर छात्रों को परीक्षा से वंचित नहीं किया जाना अनुचित है।
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अदालत ने बीसीआई को दिया अनिवार्य उपस्थिति मानदंडों में संशोधन करने का भी दिया आदेश।
जागरण संवाददाता, नई दिल्ली। उपस्थिति कम होने पर परीक्षा देने से रोके जाने के कारण मानसिक आघात से लेकर आत्महत्या जैसा गंभीर कदम उठाने से जुड़े मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने अहम निर्णय पारित किया है। न्यायमूर्ति प्रतिबा एम सिंह व न्यायमूर्ति अमित शर्मा की पीठ ने कहा कि देश में किसी भी कानून के छात्र को न्यूनतम उपस्थिति के अभाव में परीक्षाओं में बैठने से नहीं रोका जाना चाहिए।
साथ ही अदालत ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) से अनिवार्य उपस्थिति मानदंडों में संशोधन करने का भी आदेश दिया। अदालत ने कहा कि उपस्थिति की कमी के कारण छात्र की अगली सेमेस्टर कक्षा में पदोन्नति रोकी नहीं जा सकती है।
अदालत ने उक्त निर्णय व आदेश के साथ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शुरू की गई एक स्वतः संज्ञान याचिका का निपटारा कर दिया। यह याचिका 2016 में एमिटी यूनिवर्सिटी विधि के छात्र सुशांत रोहिल्ला की आत्महत्या के संबंध में थी, जिसे अपेक्षित उपस्थिति के अभाव में सेमेस्टर परीक्षाओं में बैठने से रोक दिया गया था।
पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि इस मामले में सभी पक्षों की दलीलों को विस्तार से सुनने और सामने आई कठोर सच्चाइयों पर विचार करने के बाद, यह अदालत इस बात पर पूरी तरह सहमत है कि सामान्य तौर पर मानदंड शिक्षा और विशेष रूप से कानूनी शिक्षा को इतना कठोर नहीं बनाया जा सकता कि इससे किसी छात्र को मानसिक आघात पहुंचे, उसकी मृत्यु तो दूर की बात है।
एमिटी विश्वविद्यालय के तृतीय वर्ष के विधि छात्र रोहिल्ला ने 10 अगस्त 2016 को अपने घर पर फांसी लगा ली थी, जब उनके कालेज ने आवश्यक उपस्थिति न होने के कारण उन्हें सेमेस्टर परीक्षाओं में बैठने से रोक दिया था। उन्होंने एक नोट छोड़ा था, जिसमें लिखा था कि वह असफल हैं और जीना नहीं चाहते। सितंबर 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने याचिका शुरू की थी, लेकिन मार्च 2017 में इसे हाई काेर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया था।
पीठ ने कहा कि (बीसीआई) को इस उद्देश्य के लिए छात्र निकायों, अभिभावकों और शिक्षकों सहित हितधारकों के साथ शीघ्रता से परामर्श करना चाहिए ताकि अनिवार्य उपस्थिति आवश्यकताओं के कारण परीक्षा में अनुपस्थित रहने या परीक्षा में अनुपस्थित रहने पर छात्रों पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखते हुए छात्रों के जीवन और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा की जा सके।
पीठ ने नोट किया कि बीसीआई इस संबंध में परामर्श ले रहा है, ऐसे में इस बीच निर्देश दिया जाता है कि भारत में किसी भी मान्यता प्राप्त विधि कालेज, विश्वविद्यालय या संस्थान में नामांकित किसी भी छात्र को न्यूनतम उपस्थिति की कमी के आधार पर परीक्षा देने से नहीं रोका जाएगा या करियर में आगे की शैक्षणिक गतिविधियों से नहीं रोका जाएगा।
पीठ ने कहा कि किसी भी विधि काॅलेज, विश्वविद्यालय या संस्थान को उपस्थिति के मानदंड अनिवार्य करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, जो बीसीआइ द्वारा निर्धारित न्यूनतम प्रतिशत से अधिक हों। अदालत ने कहा कि जहां तक बीसीआई द्वारा निर्धारित अनिवार्य उपस्थिति मानदंडों का संबंध है, सभी मान्यता प्राप्त विधि काॅलेजों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों को तत्काल प्रभाव से त्वरित उपाय लागू करने चाहिए।
इसके तहत सबसे पहले छात्रों की उपस्थिति की साप्ताहिक सूचना ऑनलाइन पोर्टल या मोबाइल एप पर देना चाहिए और उपस्थिति में किसी भी कमी के बारे में माता-पिता और कानूनी अभिभावकों को मासिक सूचना देना चाहिए। इसके अलावा न्यूनतम उपस्थिति मानदंडों को पूरा नहीं करने वाले छात्रों के लिए अतिरिक्त शारीरिक या ऑनलाइन कक्षाएं आयोजित करना चाहिए।

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