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    कभी महात्मा गांधी भी आए... अंग्रेजों की कही जाती थी अदालत, 100 साल से ज्यादा का इतिहास समेटे हुए है दिल्ली विधानसभा

    Updated: Fri, 22 Aug 2025 03:49 PM (IST)

    दिल्ली विधानसभा भवन (Delhi Assembly History) एक ऐतिहासिक स्थल है जो 100 वर्षों से अधिक का इतिहास समेटे हुए है। यह कभी अंग्रेजों की अदालत हुआ करता था जहां क्रांतिकारियों को सज़ा सुनाई जाती थी। महात्मा गांधी भी यहां आए थे। आज यह दिल्ली की विधानसभा है और भारतीय लोकतंत्र की नींव का प्रतीक है। 2025 में 27 साल बाद भाजपा की सरकार बनी है।

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    दिल्ली विधानसभा स्वतंत्रता से लोकतंत्र तक का ऐतिहासिक सफर। फाइल फोटो

    वी के शुक्ला, नई दिल्ली।(Delhi Assembly Ka Itihas) दिल्ली विधानसभा भवन 100 से अधिक साल का इतिहास समेटे हुए है, एक तरफ जहां अंग्रेजों ने यहां देश की सत्ता संभाली वहीं आजादी के बाद से दिल्ली की सत्ता भी काफी समय तक इसी भवन से चली है।

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    हालांकि आजादी से पहले यहां पर अंग्रेजों की अदालत भी हुआ करती थी जहां पर क्रांतिकारियों को सजा सुनाई जाती थी। इतिहास के तमाम पहलू इस भवन से जुड़े हुए हैं।

    महात्मा गांधी यहां पर तीन बार आए थे, मार्च 1919 में जब इस भवन में उस समय की संसद में क्रांति को कुचलना के लिए अंग्रेज कानून लेकर आए थे, तब महात्मा गांधी भी इसी सदन की गैलरी में मौजूद थे।

    उन्होंने इस कानून के पास हो जाने पर गहरी निराशा व्यक्त की थी, यह कानून था कि अंग्रेज बिना किसी अपराध के किसी को भी गिरफ्तार कर जेल में डाल सकते थे, इस कानून के लागू होने के कुछ समय बाद 1919 में अमृतसर में जलियांवालाबाग नरसंहार हुआ था।

    अर्धचंद्राकार वह भवन अब जिसे पुराना सचिवालय के नाम से जाना जाता है, इसमें आजदी के बाद से दिल्ली की विधानसभा चल रही है। इससे पहले यहां 1913-1921 तक शाही विधान परिषद और 1921-1927 तक केंद्रीय विधान सभा रही।

    यानी अंग्रेजी हुकूमत के समय यह संसद थी और उन्होंने इस समय तक यहीं से देश पर राज्य किया। यह इमारत एक लंबे इतिहास की गवाह है।

    यह इमारत अलीपुर रोड के सामने, रिज के पास स्थित है और न केवल दिल्ली और 20वीं सदी के भारत के निर्माण की प्रक्रिया का साक्षी रहा है, बल्कि यह वह स्थल भी रहा है जहां से आधुनिक भारत के राजनीतिक क्षितिज पर लोकतंत्रीकरण की बयार बही।

    यहीं पर इस सदी की शुरुआत में भारतीय संसदीय प्रणाली की नींव रखी गई थी। 1911 में, भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग ने शाही राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने और इसे केंद्र सरकार का मुख्यालय बनाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। राजधानी का वास्तविक स्थानांतरण 1912 में हुआ।

    लेकिन विधान सभा वाले परिषद कक्ष का इतिहास बहुत पुराना है। यह कक्ष वास्तव में इंपीरियल विधान परिषद की बैठक के लिए बनाया गया था, जिसका पुनर्गठन 1909 के मार्ले-मिंटो अधिनियम के तहत किया गया था और जो 1910 से कलकत्ता में कार्यरत थी।

    इंपीरियल विधान परिषद का पहला सत्र जनवरी, 1914 में इसी परिषद कक्ष में हुआ था। बाद में इंपीरियल विधान परिषद के स्थान पर दो सदन स्थापित किए गए, अर्थात केंद्रीय विधान सभा और राज्य परिषद, जिसका गठन 1921 में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम, 1919 के तहत किया गया था।

    अर्थात, केंद्रीय विधानसभा और राज्य परिषद, जिसका गठन 1921 में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम, 1919 के तहत किया गया था। केंद्रीय विधान सभा और दोनों सदनों के संयुक्त सत्र काउंसिल चैंबर में आयोजित किए जाते थे, जबकि मेटकाफ हाउस राज्य परिषद की बैठकों का स्थान था।

    इसलिए, 1912 से 1926 तक पुराने सचिवालय में केंद्र सरकार के परिषद कक्ष का विशेष स्थान रहा। 24 अगस्त 1925 को बिट्ठलळभाई पटेल को केंद्रीय विधानसभा का अध्यक्ष बुना गया था जो अंग्रेजों के शासन के दाैरान के इकलौते भारतीय अध्यक्ष थे।

    यह विधानसभा बिट्ठलळभाई पटेल, गोपाल कृष्ण गोखले, मोती लाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, तेज बहादुर सप्रू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, मज़हरुल हक, सचिदानंद सिन्हा और अन्य जैसे महान देशभक्त भारतीय नेताओं और सांसदों के जोशीले और भावपूर्ण भाषणों का एकमात्र गवाह है, जिन्होंने राष्ट्र को स्वतंत्रता के लक्ष्य तक पहुंचाया।

    1926 के बाद, केंद्रीय विधानसभा को पुराने सचिवालय से संसद भवन में स्थानांतरित कर दिया गया और पुराना सचिवालय लंबे समय तक उपयोग में नहीं रहा। स्वतंत्रता से पहले दिल्ली में कई नगरपालिकाएं थीं और उनका प्रशासन मुख्य आयुक्त द्वारा देखा जाता था।

    आजादी के बाद पहली बार दिल्ली विधानसभा का गठन 17 मार्च, 1952 को पार्ट-सी राज्य सरकार अधिनियम, 1952 नामक एक कानून के तहत हुआ था। उसी वर्ष पहले चुनाव हुए और कांग्रेस की सरकार बनी।

    कहा जाता है कि उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू देशबंधु गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन पदभार ग्रहण करने से पहले ही गुप्ता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई।

    इससे कांग्रेस के लिए समस्या खड़ी हो गई। नेहरू ने चौधरी ब्रह्म प्रकाश को दिल्ली का पहला मुख्यमंत्री चुना । चूंकि वे एक अप्रत्याशित परिस्थिति में मुख्यमंत्री बने थे, इसलिए लोग अक्सर उन्हें दिल्ली का "एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर" कहते थे।

    चौधरी ब्रह्म प्रकाश ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था और हमेशा सादा जीवन व्यतीत किया। उन्होंने विलासिता की चाह नहीं की। वे अक्सर सरकारी वाहनों के बजाय सार्वजनिक बसों से यात्रा करते थे। दो साल बाद उनसे इस्तीफा ले लिया गया था

    इनके बाद कांग्रेस के ही गुरमुख निहाल सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया और वह 262 दिन इस पद पर रहे। गुरमुख ने 1955 में सीएम की कुर्सी संभाली और दिल्ली में शराबबंदी लागू कर चर्चा में आ गए थे. विवाद बढ़ा तो देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को दखल देना पड़ा, मगर उन्होंने नेहरू की भी नहीं मानी तो गुरमुख को पद से इस्तीफा देना पड़ा।

    1956 में विधानसभा को भंग कर दिया गया। बाद में, 1966 में , महानगर परिषद नामक एक नई संस्था का गठन किया गया। इस महानगर परिषद में 56 निर्वाचित सदस्य और 5 मनोनीत सदस्य थे। यह दिल्ली के शासन में सहायता करती थी, लेकिन इसे विधानसभा जैसी पूर्ण शक्तियां प्राप्त नहीं थीं।

    यह व्यवस्था 1990 तक रही। इसके बाद 1993 में यानी 41 साल बाद फिर से दिल्ली सरकार का गठन हुआ। तब दिल्ली में भाजपा की सरकार बनी थी और मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने थे, तब विधानसभा अध्यक्ष भाजपा के वरिष्ठ नेता चरतीलाल गोयल बने थे और विपक्ष के नेता कांग्रेस के जगप्रवेश चंद्र थे।

    जो एकअनुभवी नेता माने जाते थे जो विधानसभा में अंग्रेजी में ही बात रखते थे। उसके बाद 2025 में 27 साल बाद अब भाजपा की सरकार बनी है इससे पहले तीन बार कांग्रेस और तीन बार आप की सरकार रही है। दिल्ली विधानसभा परिसर 112 साल का गौरवशाली इतिहास समेटे हुए है।