डॉ। ऋषि गुप्ता। नेपाल में वाम दल की सरकार एक बार फिर अस्थिरता की ओर बढ़ रही है। इसका कारण नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) का मौजूदा गठबंधन से अलग होना है। पूर्व प्रधानमंत्री और एमाले पार्टी प्रमुख केपी ओली ने 2022 के संसदीय चुनाव में उभरी सबसे बड़ी पार्टी नेपाली कांग्रेस के प्रमुख शेर बहादुर देउबा के साथ समझौता कर नई सरकार बनाने की बात कही है।

275 सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में नेपाली कांग्रेस के पास 89 सीटें हैं, एमाले के पास 78 और पुष्प कमल दहल प्रचंड की पार्टी माओवादी सेंटर 32 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर है। प्रचंड के पास अब इस्तीफा देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह गया है। हालांकि यह पहली बार नहीं होगा कि केपी शर्मा ओली और नेपाली कांग्रेस पार्टी प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा मिलकर सरकार बनाएंगे। वह पहले भी ऐसा कर चुके हैं।

इनकी गठित होने वाली सरकार मौजूदा वाम सरकार की अपेक्षा काफी स्थिर होगी, क्योंकि दोनों ही इस पर सहमत हैं कि ओली और देउबा बारी-बारी से सरकार चलाएंगे। वैसे नेपाली राजनीति में समझौतों का सम्मान विरले ही हुआ है और यदि यह सरकार भी गिरती है तो आश्चर्य नहीं होगा, लेकिन सरकारों का बार-बार गिरना नेपाली लोकतंत्र का एक चिंताजनक पहलू है। नेपाल की अस्थिरता भारत के लिए भी चिंता का विषय है।

नेपाल में 2008 का साल लोकतंत्र की स्थापना और एक नई व्यवस्था के आरंभ का पड़ाव बना। दस वर्ष लंबे चले माओवादी विद्रोह के बाद सदियों पुराने हिंदू राजशाही वाले शासन का अंत हुआ। उसी वर्ष पहले लोकतांत्रिक चुनावों में माओवादी सेंटर को अच्छी-खासी सीटें मिलीं और प्रचंड पहले लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार साल भर भी नहीं चली। तब से लेकर आज तक नेपाल की कोई भी पार्टी न अकेले बहुमत हासिल कर पाई है और न ही किसी गठबंधन सरकार ने पांच वर्षों का कार्यकाल पूरा किया है।

2008 से नेपाल में 14 प्रधानमंत्री बन चुके हैं। पिछले दो वर्षों में ही तीन बार सरकारें बनी हैं, जिनमें दो बार वाम गठबंधन वाली सरकारें रहीं। नेपाली राजनीति और राजनीतिक दलों को नजदीकी से देखने पर एक बात साफ तौर पर सामने आती है कि वाम दलों के नेता इसी प्रयास में रहते हैं कि कब प्रधानमंत्री बनने का मौका मिले। प्रचंड और ओली वामपंथी होने के बावजूद एक-दूसरे के धुर-विरोधी हैं और सरकार में रहते हुए भी सत्ता के लिए लड़ते रहे हैं।

वेस्टमिंस्टर संसदीय व्यवस्था में गठबंधन सरकारों का गिरना और बनना आम बात है, लेकिन जिस तरह नेपाल में लोकतंत्र का विकास हुआ है, उसने उसका अधिक नुकसान ही किया है। राजनीतिक अस्थिरता के चलते नेपाल से हर वर्ष लगभग डेढ़ लाख युवा अन्य देशों में काम की तलाश में पलायन कर रहे हैं। वहां इस स्तर का पलायन 1996 से 2006 के बीच हुए माओवादी विद्रोह के दौरान देखा गया था, लेकिन शांति काल में ऐसा होना चिंतनीय है। इसे देखते हुए माना जा रहा है कि आने वाले वर्षों में नेपाल में युवाओं की संख्या कम होती जाएगी। इस राजनीतिक अस्थिरता का उसके व्यापार, विदेशी निवेश और पर्यटन पर भी काफी असर पड़ा है।

एक स्थलरुद्ध देश होने के बावजूद नेपाल अभी तक भारत और चीन के विषय में एक विस्तृत विदेश नीति का खाका नहीं तैयार कर पाया है। जब तक कोई नई सरकार और मंत्री नेपाल की विदेश नीति को समझ पाते हैं और नीतिगत निर्णय लेने के बारे में कुछ सोचते हैं, तब तक वह सरकार ही गिर जाती है। किसी देश की विदेश नीति उसके व्यापार और निवेश को कई मायनों में निर्धारित करती है। इसी कारण नेपाल विकास के मोर्चे पर लगातार पिछड़ रहा है।

केपी ओली की विदेश नीति जगजाहिर है। ओली की पिछले दस वर्षों की राजनीति भारत विरोध और चीन के साथ नजदीकी पर टिकी रही है। इस बार भी इसमें ज्यादा अंतर नहीं दिखेगा। वैसे भारत के साथ नेपाल के व्यापार पर इसका अधिक असर नहीं होगा, लेकिन चीन के सामरिक प्रभाव के चलते नेपाल में भारत के सहयोग से चल रहीं पनबिजली और बुनियादी ढांचे के विकास की योजनाओं की गति में कमी देखी जा सकती है।

ओली चीन के साथ ज्यादा से ज्यादा जुड़ने की कोशिश करेंगे। 2017 में नेपाल चीन की अत्यंत महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड पहल का हिस्सा बना था, लेकिन उस पहल के अंतर्गत अभी एक भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो पाया है। चूंकि बेल्ट एंड रोड पहल चीन के सामरिक नजरिये से महत्वपूर्ण है, लिहाजा वह चाहेगा कि केपी ओली इसमें जान फूंकें।

भारत के साथ सीमा विवाद के चलते चीन नेपाल में अपने सैन्य प्रभाव को भी बढ़ाने पर जोर देता रहा है। 2017 और 2018 में नेपाल और चीन की सेना के बीच ‘सागरमाथा मित्रता संयुक्त सैन्य अभ्यास’ हुआ था। 2019 से यह सैन्य अभ्यास बंद पड़ा है। चीन का प्रयास रहेगा कि ओली इसे पुनः शुरू करें।

भारत मानचित्र और कालापानी विवाद के बावजूद नेपाल नीति को एक नई दिशा देने में काफी हद तक सफल रहा है। नेपाल में कुछ दलों की भारत विरोधी नीतियों के बावजूद भारत ‘पड़ोसी प्रथम’ नीति के तहत उससे लगातार संपर्क करता रहा है, लेकिन ओली के सत्ता में आने के बाद भारत को चीन के प्रभाव और भारत विरोधी भावनाओं से निपटने के लिए तैयार रहना होगा। भले ही चीन भारत और नेपाल के व्यापार और सांस्कृतिक संपर्क को न तोड़ पाए, लेकिन नेपाली युवाओं में भारत के खिलाफ कालापानी विवाद के मुद्दे पर भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।

(लेखक एशिया सोसायटी पालिसी इंस्टीट्यूट, दिल्ली के सहायक निदेशक और नेशनल चेंगची यूनिवर्सिटी ताइपे में फेलो हैं)