ए. सूर्यप्रकाश। भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार गठित होने के बावजूद अभी तक चुनावी प्रदर्शन का अलग-अलग कोण से विश्लेषण जारी है। इन चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अपेक्षा से कुछ कमजोर रहा और पिछले चुनाव की तुलना में उसकी 63 सीटें घट गईं तो उसके कारणों के पीछे की पड़ताल की जा रही है। इसमें एक प्रमुख कारण आरक्षण और संविधान को लेकर विपक्षी दुष्प्रचार रहा कि भाजपा इनके साथ छेड़छाड़ करेगी।

भाजपा इस नैरेटिव की समय रहते प्रभावी काट नहीं ढूंढ़ पाई और उसे इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी। जबकि भाजपा ने संविधान संरक्षण से लेकर दलितों-आदिवासियों और ओबीसी वर्ग के लिए जो कुछ किया, उससे वह विपक्षी एजेंडे की हवा निकाल सकती थी। भाजपा मतदाताओं को यह बता ही नहीं पाई कि उसने दलितों और ओबीसी के हित में कितने व्यापक कदम उठाए।

जैसे कि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में संसद और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की समयसीमा को दस वर्ष आगे बढ़ाने संबंधी संविधान संशोधन को जनवरी 2000 में मंजूरी प्रदान की गई थी। मोदी सरकार भी उसी राह पर आगे बढ़ती रही।

उसने भी जनवरी 2020 में उक्त आरक्षण को 104वें संविधान संशोधन के माध्यम से दस वर्षों के लिए और आगे बढ़ाया। वर्ष 1950 में संविधान लागू होने के बाद इस आरक्षण का 10 वर्ष के लिए प्रविधान किया गया था। यह सही है कि एक के बाद एक सरकारों में इस आरक्षण को आगे बढ़ाने की परिपाटी रही, लेकिन यदि भाजपा के मन में इसे लेकर कोई खोट होती तो क्या उसकी सरकारें ऐसा कदम उठातीं?

वाजपेयी सरकार के दौरान तीन अन्य संविधान संशोधनों से दलित और ओबीसी वर्ग के प्रति उसकी प्रतिबद्धता मुखरता से रेखांकित होती है। वाजपेयी सरकार ने जून 2000 में 81वें संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 16 में संशोधन कर लंबित पड़ी (बैकलाग) रिक्तियों में एससी और एसटी के आरक्षण को संरक्षण प्रदान किया।

सितंबर 2002 में 82वें संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 335 में संशोधन कर एससी और एसटी के आवेदकों को प्रोन्नति में आरक्षण से जुड़ी अर्हता के कुछ पैमानों पर रियायत प्रदान की गई। इसमें क्वालिफाइंग मार्क्स का पहलू भी शामिल था। जनवरी, 2002 में वाजपेयी सरकार ने 85वें संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 16 में पुन: संशोधन किया। यह एससी-एसटी के लोगों की प्रोन्नति में वरिष्ठता के क्रम को संबोधित करने पर केंद्रित था।

वाजपेयी सरकार द्वारा किया गया 89वां संविधान संशोधन भी इतना ही महत्वपूर्ण रहा, जिसमें राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग को अलग-अलग हिस्सों में विभाजित किया गया। मोदी सरकार ने भी वाजपेयी सरकार की उसी विरासत को आगे बढ़ाते हुए उसे और समृद्ध किया। उसने विधायी संस्थाओं में एससी-एसटी के लिए आरक्षण की मियाद को तो बढ़ाया ही, बल्कि कई अन्य क्रांतिकारी कदम भी उठाए, जिन्होंने एससी-एसटी तबके के उत्थान में अहम भूमिका निभाई।

मोदी सरकार ने अगस्त 2021 में अत्यंत महत्वपूर्ण 105वां संविधान संशोधन किया, जिसके जरिये अनुच्छेद 338बी, 342ए और 366 में संशोधन कर ओबीसी को चिह्नित करने की राज्य सरकारों की शक्ति को बहाल किया गया। इससे पहले मई 2021 में उच्चतम न्यायालय ने एक फैसला सुनाया था, जिसमें ओबीसी के लिए जातियों का चयन करने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को दे दिया गया था।

यह संशोधन न केवल राज्य सरकारों के सशक्तीकरण के लिए आवश्यक था, बल्कि इसके जरिये संघवाद के सिद्धांत को भी अक्षुण्ण रखा गया। जिस राजनीतिक दल ने यह सब किया हो, क्या उस पर एससी और एसटी के आरक्षण को समाप्त करने का आरोप लगाया जा सकता है? इन वर्गों का आरक्षण समाप्त करने के आरोपों के उलट भाजपा की सरकारों में हुए 81, 82, 85 और 105वें संविधान संशोधनों के माध्यम से एससी, एसटी और ओबीसी के व्यापक हितों की पूर्ति सुनिश्चित की गई।

संविधान संशोधन संख्या 105 ओबीसी के दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण है। उच्चतम न्यायालय ने ओबीसी के निर्धारण में केंद्र सरकार को ही एकाधिकार प्रदान किया था, लेकिन मोदी सरकार ने यह शक्ति राज्यों को हस्तांतरित करने का फैसला किया, क्योंकि उसकी दृष्टि में ओबीसी को लेकर समुदायों के ऐसे दावों के आकलन में राज्य सरकार कहीं बेहतर स्थिति में होती है।

साथ ही यह संघीय ढांचे को सशक्त करने वाला कदम भी था, जबकि विपक्षी दल यही राग अलापते रहते हैं कि मोदी सरकार संघीय ढांचे को तबाह करने पर तुली है। यह भी एक तथ्य है कि खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ओबीसी समुदाय से आते हैं। अपने शासन काल में उन्होंने पहले जहां दलित समुदाय के राम नाथ कोविन्द को राष्ट्रपति बनाया तो उनके बाद अनुसूचित जनजाति की महिला द्रौपदी मुर्मु को इस शीर्ष संवैधानिक पद तक पहुंचाया।

इन समुदायों के प्रति ऐसी अटूट एवं असंदिग्ध निष्ठा के बावजूद भाजपा विरोधियों द्वारा रचे गए झूठे प्रपंच को परास्त नहीं कर पाई। राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव जैसे विपक्षी नेता पूरे चुनाव अभियान में यही झूठ फैलाकर चुनावी फसल काटते रहे। उत्तर प्रदेश जैसे अपने गढ़ में भाजपा के कमजोर रहने का यह एक प्रमुख कारण रहा।

अखिलेश यादव की सोशल इंजीनियरिंग और चतुराई भरे टिकट वितरण ने भी भाजपा का खेल खराब किया। उन्होंने मुस्लिम-यादव के अपने जांचे-परखे समीकरण में दलितों को भी जोड़ लिया। उन्हें पहली बार मायावती के समर्थकों को भी साधने में सफलता हासिल हुई कि सपा उनके हितों का भी पूरा ख्याल रखेगी।

सात चरणों तक चलने वाली लंबी चुनावी प्रक्रिया ने भी विपक्षी दलों को इस दुष्प्रचार के लिए पर्याप्त समय दे दिया कि दलित और ओबीसी समुदाय के मन में मोदी के प्रति संहेद के बीज बो दिए जाएं। यह झूठ इतने सुनियोजित रूप से फैलाया गया कि इन वर्गों के एक बड़े तबके को यह सच प्रतीत होने लगा। महाराष्ट्र और हरियाणा में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने हैं तो भाजपा को जल्द ही इस मोर्चे पर प्रभावी कदम उठाने होंगे। फिलहाल उसके समक्ष यह एक बड़ी चुनौती लग रही है।

(लेखक संवैधानिक मामलों के जानकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)