8 घंटे की शिफ्ट पर Emraan Hashmi की दो टूक, अपकमिंग फिल्म Haq को लेकर कही ये बात
बॉलीवुड के फेमस एक्टर इमरान हाशमी (Emraan Hashmi) आने वाले समय में फिल्म हक (Haq) में दिखाई देंगे। इस मूवी को लेकर और सिनेमा जगत में मौजूदा समय में चर्चित 8 घंटे की वर्किंग शिफ्ट के मुद्दे पर इमरान ने दैनिक जागरण को दिए इंटरव्यू में खुलकर बात की है।

हिंदी सिनेमा के लोकप्रिय अभिनेता इमरान हाशमी (फोटो क्रेडिट- एक्स)
एंटरटेनमेंट डेस्क, मुंबई। लंबे समय तक सीरियल किसर की छवि में कैद रहे अभिनेता इमरान हाशमी ने विविध भूमिकाएं निभा कर उससे मुक्ति पाई। अब वह फिल्म हक में पहली बार वकील की भूमिका में नजर आएंगे। यह फिल्म शाह बानो मामले से प्रेरित है। इमरान ने फिल्म, एकसमान कानून और आठ घंटे शिफ्ट समेत कई विषयों पर बात की-
आपको लगता है कि देश में समान अधिकार होना चाहिए?
बिल्कुल, हमारी फिल्म का यही संदेश है कि इंसाफ सभी के लिए एक ही होता है। शाह बानो जब अपने लिए केस लड़ रही थी, तो वह न्याय के लिए लड़ रही थी। वह अपने लिए नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए लड़ रही थी। इसलिए इसे एक लैंडमार्क केस माना जाता है। यह फिल्म उस समय आ रही है, जब यूनिफार्म सिविल कोड की बात कर रहे हैं।

मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के साथ जो टकराव की बात हो रही है, यह फिल्म उसमें सहजता लाने में मदद करेगी?
हम दिखा रहे हैं कि यह केस किस तरह हुआ था। फिल्म सोचने पर मजबूर करेगी, क्योंकि इसमें हमने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। समाज में ऐसी बहस से ही बदलाव आएगा।
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आठ घंटे शिफ्ट की बात हो रही है। क्या आपने कभी तय शिफ्ट के तहत काम किया?
जिसका जिक्र हो रहा है, वह कुछ अभिनेत्रियों के लिए है, जिनकी मां बनने के बाद दिक्कतें बढ़ जाती हैं। मैंने ओपन रखा है। वैसे तो आप 24 घंटे भी काम कर सकते है, लेकिन फिर आप रोबोट की तरह काम करते हैं। अगर शूटिंग के 12 घंटे होते हैं, तो मैं उसे 14 घंटे तक ले जा सकता हूं। वैसे मैंने 24 घंटे भी शूटिंग की है। वह बहुत अनुकूल नहीं होता है।

वकील बनने की तैयारी कैसी रही?
मैंने कई कोर्ट रूम ड्रामा फिल्में और शो तो देखे ही हैं, मुझे पसंद भी हैं।निर्देशक सुपर्ण वर्मा ने कहा था कि अदालत का एक अदब, अनुशासन होता है। कुछ फिल्मों में चल जाता है, लेकिन हमने काफी वास्तविक रखा है।
आपने कहा था कि मुसलमानों को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। डर नहीं लगा एक वर्ग होगा इससे सहमति नहीं रखता होगा?
यह बात तो माननी पड़ेगी कि हर कोई आपकी फिल्म से सहमत नहीं होगा। मैं सिर्फ अपने नजरिये से कह सकता हूं। मैं एक लिबरल मुस्लिम हूं। पत्नी हिंदू हैं, जबकि मां क्रिश्चियन थीं। मेरा बेटा पूजा भी करता है, नमाज भी पढ़ता है। एक सेक्युलर माहौल है। जब कोई दर्शक यह फिल्म देखेगा, वह अपने पारंपरिक या रूढ़ीवादी ट्रेडिशन के नजरिये से देखेगा। मैंने मुसलमान होने के नाते जब स्क्रिप्ट पढ़ी, तो यही चीज लगी कि एक औरत के वजूद की कहानी है, इंसाफ की कहानी है। ऐसा हमारे समाज में होता है। बिना किसी का पक्ष लेने वाला नजरिया हमारे मेकर्स का है।

क्या कहना चाहती है फिल्म?
आपको आईना दिखा रही है कि यह हुआ था, यह आप पर है कि आप इसे कैसे देखते हैं। यह केस साल 1985 में हुआ था। देश दो हिस्सों में बंट गया था। एक निजी आस्था की तरफ, एक संवैधानिक व सेक्युलर अधिकार की तरफ। अगर ऐसा हुआ तो यह हमारे फिल्म का डीएनए है। मैं कह सकता हूं कि मर्दों के लिए एक आत्मविश्लेषण है। हमारा जो पुरुष प्रधान समाज है, जो महिलाओं के आत्मसम्मान को ताक पर रखती है।
आवारापन की सीक्वल भी आ रही है...
मूल फिल्म से भावनात्मक जुड़ाव है। केवल सीक्वल करने के लिए मैं नहीं करना चाहता था। पहले तो हम पात्र को किस तरह से लेकर आएंगे यह अहम सवाल था, क्योंकि पहली फिल्म में अंत हो गया था। सीक्वल में यह तार्किक तरीके से दिखेगा।

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