Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    'दुश्मन के साथ कैसा दोस्ताना', सांस्कृतिक रिश्तों के बीच तनाव और पाकिस्तानी कलाकारों पर विवाद, पढ़िए आलेख

    By Anu Singh Edited By: Anu Singh
    Updated: Sun, 01 Jun 2025 03:55 PM (IST)

    कला की कोई सरहद नहीं होती लेकिन अगर दोस्ती के नाम पर कोई धोखा दे तो ऐसे कलाकारों से दूरी ही बना लेने में भलाई है। इसीलिए आवश्यक है कि हम पाकिस्तानी दुर्भावनाओं को नजरअंदाज न करें और बंद ही रखें हर तरह की सांस्कृतिक आवाजाही। पढ़िए विनोद अनुपम का आलेख।

    Hero Image
    भारत और पाकिस्तान के तनाव के बावजूद सांस्कृतिक रिश्ते (Photo Credit- X)

    विनोद अनुपम, मुंबई। एक देश के रूप में पाकिस्तान से भारत के रिश्ते कभी दोस्ताना नहीं रहे, लेकिन यह भी सच है कि इसी तनाव के बीच पड़ोसी होने के नाते औपचारिक रिश्ते भी बने रहे। चाहे क्रिकेट का हो या कला का। चूंकि दोनों देशों की सांस्कृतिक जमीन एक ही रही है इसीलिए तमाम तनावों के बीच सांस्कृतिक आवाजाही बनी रही, सांस्कृतिक सामग्रियों के रूप में ही नहीं, सांस्कृतिक व्यक्तियों के रूप में भी।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    यहां तक कि पाकिस्तान के कंटेट पर केंद्रित स्वतंत्र टेलीविजन चैनल की शुरुआत हुई। यह भारत की ओर से पाकिस्तान की तमाम दुर्भावनाओं को नजरअंदाज कर सांस्कृतिक रिश्ते बनाए रखने की कोशिश ही थी कि ‘हिना’ ही नहीं, ‘वीर जारा’ और फिर ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी फिल्में भी बनीं। जिसके बाद पाकिस्तानी कलाकारों के लिए हिंदी सिनेमा के दरवाजे भी खोले गए और दर्शकों ने उन्हें सिर-माथे पर बिठाया भी।

    मिटती नहीं पहचान

    वास्तव में यह कला की खासियत भी है कि जब हम उससे रूबरू होते हैं, तो उसे पसंद-नापसंद करने का कोई दूसरा आधार नहीं होता। सिनेमा देखते हुए कलाकार की राष्ट्रीयता या उसके चरित्र या अन्य चीजों पर हम ध्यान दे ही नहीं सकते। गुलाम अली की गजलें सुनें तो आप सिर्फ और सिर्फ उनके गायन से जुड़ते हैं, उनकी राष्ट्रीयता से नहीं। कला और कलाकार में फर्क होता है।

    कला तमाम सीमाओं से परे होती है, मगर व्यक्ति चाहे कलाकार ही क्यों न हो, सीमाएं होती हैं। कला को पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती, कलाकार को होती है। कला को स्वीकार करते हुए अक्सर हम भूल जाते हैं कि कलाकार कोई एलियन नहीं होता। उनका भी देश होता है, समाज होता है, जाति होती है, धर्म होता है। दिलीप कुमार की फिल्में वैश्विक अपील रख सकती हैं, लेकिन वे भारतीय की पहचान से कैसे मुक्त हो सकते हैं!

    ये भी पढ़ें- सिनेमाघरों में डराने के बाद OTT पर आ रही Shubham, कब और कहां देखें सामंथा रुथ प्रभु की फिल्म?

    दूर कर दी गलतफहमी

    जब कलाकार व आतंकवादी की बात होती है तो बरबस आमिर खान अभिनीत ‘सरफरोश’ की याद आती है। जान मैथ्यू की यह फिल्म इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी शायद ही किसी भारतीय की स्मृति से निकल सकी है। एक जांबाज पुलिस अधिकारी की इस कहानी में वह पड़ोसी मुल्क द्वारा देश में चलाए जा रहे आपराधिक षड्यंत्रों का खुलासा करता है। इस फिल्म में आतंकवादियों के सरगना के रूप में एक विश्व प्रसिद्ध गजल गायक को चिन्हित किया गया था। वह गायक अपनी कला के बल पर देश की शीर्ष हस्तियों के बीच पकड़ मजबूत बनाता है और उसका उपयोग आपराधिक षड्यंत्रों के लिए करता है।

    सार्वजनिक जीवन में उसके सौम्य व्यक्तित्व और कलाकार के आवरण से उस पर किसी को संदेह भी नहीं होता। निश्चित रूप से ‘सरफरोश’ एक फिल्म थी, एक कहानी कहती थी और हम हमेशा चाहेंगे कि वह कहानी ही बनी रहे, लेकिन यह फिल्म इस ओर भी इशारा करती थी कि किसी को कलाकार कहकर हम उसे देश-दुनिया से ऊपर होने का दर्जा नहीं दे सकते। कलाकारों के बारे में भी यही कहा-सुना जाता रहा है कि वे तो कलाकार हैं। उन्हें देशों की राजनीति से क्या लेना-देना और पलक झपकते ही फवाद खान और माहिरा खान जैसे कलाकार हमारी गलतफहमी साफ कर देते हैं कि वे पाकिस्तान के हर सही-गलत के साथ हैं और हिंदुस्तान उनका दुश्मन है। वास्तव में हम अपने स्वार्थ या कथित उदारता में यह सत्य जान-समझकर भी स्वीकारना नहीं चाहते!

    कला नहीं नीयत का विरोध

    पाकिस्तानी कलाकारों पर रोक की बात जितनी भावनात्मक है, उससे कहीं ज्यादा व्यावहारिक है। आज जब पाकिस्तानी कलाकार अपनी हिंदुस्तानी कमाई का एक बड़ा हिस्सा टैक्स के रूप में पाकिस्तान को दे रहे हैं और पाकिस्तान उसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ आतंकवादियों के नेटवर्क मजबूत करने में लगा रहा होता है तो क्यों न कमाई के इस स्त्रोत का विरोध हो। मुश्किल यह है कि हमारी उदारता ने हमारी याद्दाश्त को कुंद कर दिया है। अन्यथा रोक का यह तीसरा अवसर आता ही नहीं।

    क्या उरी और पुलवामा के बाद पाकिस्तान बदल गया? फिर क्यों फिल्म ‘अबीर-गुलाल’ के लिए फवाद खान को ही लिया गया? हमारे लिए यह मानना मुश्किल है, लेकिन सच यही है कि पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध न कला का विरोध है, न ही भाईचारे का, यह विरोध है नीयत का।

    घृणा है उनका अपराध

    कहा जाता है कि कलाकार तो आतंकवादी नही, फिर इन्हें सजा क्यों। माना वे आतंकवादी नहीं, लेकिन वे उस देश के नागरिक हैं, जिसकी आतंकवादी घटनाओं में स्पष्ट भागीदारी रही है। भारत के प्रति जैसी घृणा इन्होंने इंटरनेट मीडिया पर जाहिर की, स्पष्ट है कि किसी भी सामान्य नागरिक की तरह उनके लिए भी वह नागरिकता प्रथम थी। क्या जब हिंदुस्तान के कलाकार विदेश में काम करते हैं तो हम स्वीकार कर सकते है कि कथित कलाकार होने के नाते वे हिंदुस्तान के हित की बात न करें।

    फिर फवाद खान, अली जफर या माहिरा खान जैसे पाकिस्तानी नागरिकों से अपने देश के खिलाफ बोले जाने की उम्मीद क्यों? वास्तव में किसी पाकिस्तानी कलाकार पर रोक उस देश के प्रति हमारी सामान्य प्रतिक्रिया है,जिसने हमें 77 वर्ष से बेचैन रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हमारे पास यह जांचने का कोई उपकरण नहीं है कि कोई अपने देश के हित में किस हद तक जा सकता है,ऐसे में सहज प्रतिक्रिया है कि या तो आप अदनान सामी की तरह अपने देश के मोह से मुक्त हो जाएं या खुलकर अपने देश के साथ दिखें।

    ये भी पढ़ें- Nushrratt Bharuccha को ऑफर हुई थी रोहित शेट्टी की फिल्म? पीआर टीम ने किया खुलासा