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    अंडरवर्ल्ड डॉन हाजी मस्तान पर बेस्ड है Amitabh Bachchan की 'दीवार' की कहानी? सलीम-जावेद की थी ये भविष्यवाणी

    Updated: Sun, 19 Jan 2025 07:28 AM (IST)

    मेरे पास मां है... मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता ये डायलॉग्स आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े रहते हैं। ये सभी हिट डायलॉग हैं अमिताभ बच्चन की फिल्म दीवार के जो 1975 में सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी जो आज एक कल्ट क्लासिक फिल्म बन चुकी है। इस फिल्म को लेकर सलीम जावेद ने क्या भविष्यवाणी की थी। पढ़ें इस थ्रोबैक स्टोरी में

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    अमिताभ बच्चन की दीवार का दिलचस्प किस्सा/ फोटो- IMDB

    अनंत विजय, नई दिल्ली। 24 जनवरी, 1975 को प्रदर्शित हुई यश चोपड़ा निर्देशित और सलीम-जावेद की लिखी फिल्म ‘दीवार’ का जादू अगर आज तक कायम है तो इसमें अमिताभ बच्चन-शशि कपूर की जोड़ी के अभिनय के अलावा दमदार कहानी, चुस्त पटकथा और एक से बढ़कर एक संवाद की भूमिका रही। 50 साल बाद भी मजबूती से खड़ी हिंदी सिनेमा की इस दीवार के तमाम रहस्य बता रहे हैं इस लेख में...

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    फिल्म ‘दीवार’ ने अमिताभ बच्चन की एंग्री यंगमैन की छवि को मजबूती प्रदान की। साथ ही एक लेखक जोड़ी को भी स्थापित किया जिसकी कहानी सफलता की गारंटी मानी गई। सलीम-जावेद की जोड़ी ने जब ‘दीवार’ की कहानी लिखी तो पहले अमिताभ बच्चन को ही सुनाई। अमिताभ उस समय फिल्म ‘गर्दिश’ की शूटिंग कर रहे थे। सलीम-जावेद ने फिल्म के सेट पर ही कहानी सुनाई थी।

    'दीवार' की कहानी यश चोपड़ा को लगी थी रूखी

    अमिताभ कहानी सुनकर अभिभूत थे। तीनों ने मिलकर तय किया कि इस पर फिल्म बनाने के लिए यश चोपड़ा से संपर्क किया जाए। सलीम-जावेद और अमिताभ, यश चोपड़ा के पाली हिल, बांद्रा के घर गिरनार अपार्टमेंट पहुंचे। इसी अपार्टमेंट में पहली बार यश चोपड़ा ने ‘दीवार’ की कहानी सुनी। नरेशन के समय निर्माता गुलशन राय भी थे। उल्लेख मिलता है कि कहानी सुनाते-सुनाते जावेद साहब अचानक रुकते और कहते कि फिल्म 25 सप्ताह चलेगी। कहानी फिर आगे बढ़ती और जब रुकते तो सलीम साहब कहते कि यह कम से कम 50 सप्ताह चलेगी। इनकी बात सच हुई और कई शहरों में ‘दीवार’ 100 हफ्तों से भी अधिक समय तक चली थी।

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    कहानी सुनने के बाद यश चोपड़ा और गुलशन राय दोनों को लगा था कि स्टोरी बहुत रूखी है और फिल्म में गाने होने चाहिए। निर्माता की राय पर फिल्म में गाने डाले गए। ध्यान से फिल्म देखेंगे तो लगेगा कि इन गानों की आवश्यकता नहीं थी।

    Photo Credit- Imdb

    राजेश खन्ना को दे दिया था एडवांस अमाउंट

    निर्माता और निर्देशक तय होने के बाद कलाकारों के चयन पर बात आरंभ हुई। सलीम-जावेद ने लीड रोल के लिए अमिताभ का नाम सुझाया। गुलशन राय चाहते थे कि राजेश खन्ना को लिया जाए। वो एक फिल्म के लिए राजेश खन्ना को अग्रिम भुगतान कर चुके थे। वो अपने पैसे की चिंता कर रहे थे, मगर सलीम-जावेद राजी नहीं हुए। भूमिका अमिताभ को मिली। उनके भाई रवि की भूमिका के लिए लेखकों ने ही शशि कपूर को तैयार किया। उनकी भूमिका छोटी मगर सशक्त थी।

    उनके संवाद दर्शकों को खूब पसंद आए। संवाद की बात हो रही है तो कहना होगा कि फिल्म ‘दीवार’ के संवाद हिंदी फिल्मों में संवाद लेखन का शीर्ष हैं। इसके छोटे-छोटे टुकड़े अक्सर अब भी दोहराए जाते हैं। ‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता’, ‘मेरे पास मां है’ या निरूपा राय का शशि कपूर को ये कहना कि ‘गोली चलाते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे’ जैसे संवाद बहुत ही पावरफुल हैं।

    Photo Credit- Imdb

    'दीवार' में दिखाई हाजी-मस्तान की कहानी? 

    ये फिल्म दर्शकों को मानसिक तौर पर झकझोरती है। जब एक बच्चे के हाथ पर ‘मेरा बाप चोर है’ लिख दिया जाता है तो उसकी मानसिक स्थिति की कल्पना की जा सकती है। ‘दीवार’ की कहानी में ‘मदर इंडिया’ और ‘गंगा जमुना’ का मिला-जुला प्लॉट नजर आता है, लेकिन सलीम-जावेद ने जिस तरह से कहानी का ट्रीटमेंट किया है, वो इसको एकदम ही अलग जमीन पर लाकर खड़ा कर देता है।

    ‘दीवार’ प्रदर्शित होने के बाद प्रचारित किया गया था कि यह मुंबई के अंडरवर्ल्ड डॉन हाजी मस्तान के जीवन से प्रेरित है। समानता है भी। हाजी मस्तान ने भी मझगांव डाकयार्ड में कुली के तौर पर जीवन शुरू किया था। उसने भी वहां पठान गैंग की दादागिरी के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। फिल्म ‘दीवार’ में विजय भी यही करता है।

    Photo Credit- Imdb

    युवाओं ने फिल्म की कहानी से किया था खुद को कनेक्ट

    इस फिल्म के प्रदर्शित होने के दौर को भी याद करना चाहिए। तब देश में छात्रों और युवाओं का असंतोष चरम पर था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश का असंतुष्ट युवा आंदोलनरत था। फिल्म में भी उस वक्त के युवा वर्ग का सिस्टम के प्रति गुस्सा और अपने बूते पर सब करना होगा, की मानसिकता का प्रतिबिंब नजर आता है। इस कारण जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो युवाओं को उसमें अपनी कहानी दिखी।

    फिल्म के अंत में कानून, न्याय और सत्य की जीत दिखाकर नैतिकता का पाठ भी पढ़ाया गया है। कुल-मिलाकर अगर फिल्म प्रदर्शित होने के 50 वर्ष बाद विचार करें तो यही लगता है कि पावरफुल कहानी, सही स्टारकास्ट और यश चोपड़ा जैसे मंझे हुए निर्देशक के बदौलत ये कल्ट फिल्म बन गई। एक निर्देशक के तौर पर यश चोपड़ा को भी इस फिल्म से नई पहचान मिली, अमिताभ बच्चन तो स्थापित हो ही गए।

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