Sunny Deol इस फिल्म में Dimple Kapadia को नहीं लेना चाहते थे डायरेक्टर, राज कपूर से भी जुड़ा है किस्सा
सनी देओल 80 और 90 के दौर के सबसे बड़े एक्शन स्टार में से एक थे। 40 साल पहले उनकी सिनेमाघरों में एक फिल्म रिलीज हुई थी जिसने बॉक्स ऑफिस पर गदर मचा दिया था। हाल ही में डायरेक्टर ने बताया कि वह इस फिल्म में किसी भी अभिनेत्री को नहीं लेना चाहते थे।

जागरण न्यूजनेटवर्क, मुंबई। ढीली टाई और शर्ट के बटन आधे खुले हुए...पढ़े-लिखे होने के बावजूद नौकरी ना मिलने की खीझ, भ्रष्ट राजनेताओं के प्रति गुस्सा लिए नायक अर्जुन मालवंकर का असर ऐसा था कि युवा भी उसी के रंग में ढल गए थे। 10 मई, 1985 को प्रदर्शित हुई फिल्म ‘अर्जुन’ के निर्देशक राहुल रवेल साझा कर रहे हैं फिल्म के रोचक किस्से...
जिस दिन ‘अर्जुन’ सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी, उसी दिन फिल्म के हीरो सनी देओल की शादी की वर्षगांठ भी थी। उन्होंने मुंबई के ताज होटल में पूरी यूनिट के लिए भव्य पार्टी रखी थी। फिल्म को मिली जोरदार सफलता मानो सनी के लिए शादी की वर्षगांठ का उपहार थी। मजेदार बात ये थी कि फिल्म की मेकिंग के दौरान सिनेमेटोग्राफर बाबा आजमी, सुप्रिया पाठक और मेरी भी शादी हुई थी, तो हम सभी को सेलिब्रेशन का दोहरा मौका मिल गया था।
अर्जुन फिल्म में नहीं थी कोई कहानी
‘अर्जुन’ में कोई कहानी नहीं थी, वो तो एक किरदार अर्जुन मालवंकर था, जो दर्शकों के दिलों पर छा गया था। जावेद साहब ने फिल्म लिखी थी। पहले निर्माता मूरानी बंधुओं के साथ हम एक अन्य फिल्म बनाने वाले थे। जावेद साहब ने हमें दूसरी स्क्रिप्ट सुनाई थी, जिसमें ऋषि कपूर और सनी देओल काम करने वाले थे। फिल्म का एक गाना भी रिकॉर्ड हो गया था ‘ममाया केरो... ’। हालांकि बाद में वो फिल्म ड्रॉप हो गई। हमने नई कहानी पर काम शुरू किया। यहां मोरानी बंधुओं ने शर्त रख दी थी कि फिल्म में ‘ममाया केरो...’ गीत जरूर होगा।
हम एक माह के लिए लोनावला गए, ताकि वहां सुकून से कहानी लिख सकें। काफी सोच-विचार के बावजूद कहानी नहीं सूझी तो हमने तय किया कि लौटकर मुंबई चलते हैं। सुबह मुंबई निकलना था तो रात दस बजे हम सोने चले गए। अचानक रात तीन बजे मेरे दरवाजे पर जावेद जी ने दस्तक दी। उन्होंने कहा चलिए साथ में चाय पीते हैं। उसी दौरान उन्होंने मुझे ‘अर्जुन’ की स्क्रिप्ट सुनाई। महज पांच घंटे में उन्होंने फिल्म की स्क्रिप्ट लिख ली थी।
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हमारा आइडिया यही था कि चाहे माफिया हो या राजनीति, किस तरह से वहां के बड़े खिलाड़ी युवाओं को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, उसी पर फिल्म बनाएंगे। फिल्म बनी और हिट रही। उसकी एक बड़ी वजह थी कि हमने उस दौर के मुद्दों को छुआ था। बेरोजगारी संवेदनशील मुद्दा था। उसे लेकर युवाओं में क्रोध था। फिल्म में एक दृश्य है कि अर्जुन अकेले बैठा कैरम के स्ट्राइकर से इधर-उधर गोटियों पर हिट कर रहा है, इसमें एक युवक की दुविधा झलकती है कि वो क्या करे। इस फ्रस्टेशन को हमने किसी संवाद की जगह कैरम के माध्यम से दर्शाया!
राज कपूर और गुरु दत्त की याद में
फिल्म में छतरियों वाला एक सीक्वेंस है, जिसकी काफी प्रशंसा हुई थी। दरअसल राज कपूर साहब जब भी मुंबई से पुणे जाते थे तो वो डेक्कन क्वीन ट्रेन से ही यात्रा करना पसंद करते थे। उन्हें खाने-पीने का शौक था और स्टेशन के निकट गली में भीतर एक दुकान है पंचम पूड़ी हाउस, जो आज भी है। वहां हमारे अलावा सैकड़ों की संख्या में लोग खाने पहुंचते थे।
राज साहब के साथ वहां आते-जाते मैंने देखा था कि जब भी बारिश होती तो वहां सिर्फ काली छतरियां दिखती थीं। मुझे वह बेहद नाटकीय लगता था। फिल्म में जब सत्यजीत मरता है तो वहां मैंने वह विजुअल इस्तेमाल किया। फ्लोरा फाउंटेन में हमने भीड़ के बीच में सनी का फाइट सीक्वेंस भी ऐसे शूट किया जैसे वास्तविक लड़ाई हो रही हो। लोग कुछ समझ पाते, उससे पहले ही हमने अपने ही पुलिस की वर्दी में एक्टर तैयार रखे थे, जो बीच-बचाव कराने पहुंच गए। इसी तरह एक दृश्य है कि जिसमें अर्जुन राजनेता बने अनुपम खेर की रैली में पहुंचकर आरोप लगाता है। वो जिस तरह बैकलाइट में खड़ा होता है, वो दृश्य गुरु दत्त की फिल्म ‘प्यासा’ से प्रेरित है। ये उनको मेरी ओर से श्रद्धांजलि है।
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सनी के घर का सेट हमने राजकमल स्टूडियो में लगाया था। राज साहब उसे देखने पहुंचे। उन्होंने सुझाव दिया कि बेस्ट की बस को लाए बिना आप मुंबई के सेट को विश्वसनीय नहीं बना सकते। फिर हमने बेस्ट की बस मंगवाई। इस तरह सुझावों और असल जीवन के अनुभवों के साथ हमने ‘अर्जुन’ फिल्म तैयार की।
यह थी बिना अभिनेत्री वाली फिल्म
हमने जब फिल्म एडिट की तो वह दो घंटे चार मिनट की रह गई, जबकि उस दौर में तीन घंटे से ऊपर की फिल्में बनती थीं। फिल्म में डिंपल का पात्र कहानी में कुछ खास जोड़ने वाला नहीं है। मैंने उसे हटाकर बिना हीरोइन के फिल्म प्रदर्शित करने की बात कही, तो निर्माता तैयार नहीं हुए। उन्हें लगा कि बिना हीरोइन के पिक्चर कैसे बन सकती है, फिर मुझे कुछ दृश्य जोड़ने पड़े। आज के दौर में तो बिना हीरोइन के फिल्में बनती हैं, जिनकी अवधि भी करीब दो घंटे हो तो सहज लगता है। मुझे लगता है कि करीब 40 वर्ष पहले जो मेरा दृष्टिकोण था, वर्तमान सिनेमा उसी लीक पर आगे बढ़ रहा है। शायद मैं समय से पहले चला था।
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