Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    अंधविश्वास और पाखंड से सचेत करता सिनेमा, जब फिल्मों और सीरीज में दिखीं झकझोरने वाली कहानियां

    सिनेमा और समाज एक-दूसरे से बंधे हुए हैं। कहा जाता है कि सामाजिक घटनाओं का प्रतिविम्ब सिनेमा में दिखता है। हालांकि सिनेमा पर भी आरोप लगते हैं कि उनकी कहानियां समाज को प्रभावित करती हैं ज्यादातर गलत रूप में। बहरहाल ऐसी बहसों के बीच सिनेमा मनोरंजन के साथ अक्सर अपनी कहानियों से समाज को सचेत भी करता रहा है। पाखंड और अंधविश्वास पर कुछ फिल्में और सीरीज की बात।

    By Jagran News Edited By: Manoj Vashisth Updated: Sun, 14 Jul 2024 12:01 PM (IST)
    Hero Image
    फर्जी बाबाओं पर बनी फिल्में और सीरीज। फोटो- इंस्टाग्राम

    स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। आस्था की आड़ में होने वाले अनाचार और पाखंड को सिनेमा कभी काल्पनिक तो कभी सच्ची घटनाओं के जरिए दर्शाता आया है। इस तरह की फिल्में और वेब सीरीज की आवृत्ति इस बात की परिचायक है कि समाज में कुछ परिवर्तन शेष है। मनोरंजन जगत के इसी सरोकार पर स्मिता श्रीवास्तव का आलेख।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    बीते दिनों हाथरस (उत्तर प्रदेश) में स्वयं को भगवान की संज्ञा देने वाले गुरु सूरज पाल जाटव के चरणों की धूल ना मिलने पर उनकी गाड़ियों के पहियों से उड़ती धूल को माथे पर लगाने की होड़ में वहां मौजूद भक्तों में 121 लोग दब-कुचल कर मर गए।

    हादसे के बाद सामने आए सूरज पाल के अतीत ने सभी को स्तब्ध कर दिया। यह घटना दर्दनाक, हृदयविदारक होने के साथ आस्था और अंधविश्वास का फर्क समझने की जरूरत बता गई। इससे पहले भी कई तथाकथित बाबाओं के दोहरे चरित्र उजागर हुए हैं।

    यह भी पढ़े: Bollywood Godmen- कभी 'महाराज' तो कभी 'ग्लोबल बाबा', जब पर्दे पर फैला 'बाबाओं' का मायाजाल

    सामाजिक जिम्मेदारी निभाता सिनेमा

    धर्म की आड़ में होने वाले कुकृत्यों और पाखंड को सिनेमा कभी काल्पनिक तो कभी सच्ची घटनाओं के जरिए दर्शाता आया है। इस साल प्रदर्शित श्रेयस तलपड़े अभिनीत फिल्म ‘करतम भुगतम’ एक नास्तिक शख्स की कहानी है, जो परिस्थितिवश एक तांत्रिक के चक्कर में पड़कर अपना सर्वस्व गंवा देता है और सुधबुध भी खो देता है।

    दरअसल, इंसान जब मुश्किलों से जूझ रहा हो, उसे कोई राह नहीं दिखाई दे रही हो तो वह आस्था के किसी भी रूप का सहारा ले लेता है। हालांकि, मदद से ज्यादा उनके विश्वास को छला जाता है, महिलाओं की मर्यादा को तार-तार किया जाता है और आस्था के नाम पर उन्हें चुप रहने को कहा जाता है।

    जैसा कि बॉबी देओल अभिनीत ‘आश्रम’ वेब सीरीज में दिखाया भी गया है। बीते दिनों नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित फिल्म ‘महाराज’ 1862 के दौरान धर्म के नाम पर बढ़ती कुरीतियों पर थी। उस दौरान जातिवाद और साम्राज्यवाद विरोधी के तौर पर जाने गए दादाभाई नौरोजी के साथ काम करने वाले पत्रकार करसनदास मुलजी ने ताकतवर पुजारी के खिलाफ आवाज बुलंद की।

    भगवान के साथ रिश्ता बेहद निजी: सिद्धार्थ पी मल्होत्रा

    प्रदर्शित होने से पहले ही फिल्म पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप लगे, लेकिन अदालत ने फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया। फिल्म बनाने को लेकर इसके निर्देशक सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा का कहना है,

    यह वो दौर था जब समाज बाल विवाह को प्रोत्साहित करता था। विधवा पुनर्विवाह अपराध माना जाता था, करसनदास उस समय औरतों के लिए खड़े हुए तो वह असली समाज सुधारक हैं। उन्होंने आस्था की आड़ में होने वाले महिलाओं के शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की। भले ही समय बदल गया, लेकिन आस्था की आड़ में कुछ ढोंगी-पाखंडी लोगों द्वारा महिलाओं का शोषण करने या मासूम लोगों को ठगने की खबरें सुर्खियों में आती रहती हैं। हमारी फिल्म में निहित संदेश सार्वभौमिक है। यह साफ कह रही है कि आपका आपके भगवान के साथ निजी रिश्ता होता है। बाबा का सम्मान करो, वो एक माध्यम है पर भगवान नहीं। वो अगर भगवान बन जाए तो समस्या हो सकती है।

    इसकी ताजा बानगी सूरज पाल जाटव है, जिस पर यौन शोषण का भी आरोप लग चुका है। इससे पहले स्वामी नित्यानंद का भंडाफोड़ हुआ। उस पर डाक्युमेंट्री फिल्म ‘माय डाटर ज्वाइंट ए कल्ट’ आई। उसमें स्वयंभू बाबा के कारनामों पर लोगों ने अपनी आपबीती बयां की। कथावाचक आसाराम दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न समेत कई आरोपों में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे हैं।

    यह भी पढ़ें: बात-बात पर देओल परिवार के लोगों को है रोने की आदत! Bobby Deol बोले- हमें शर्म नहीं आती

    समाज को झकझोरती कहानियां

    पिछले साल जी5 पर उनके जीवन सेआई फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ ने कोर्ट रूमा ड्रामा के तौर पर बाबा की करतूतों के साथ पीड़िता की व्यथा और कानूनी लड़ाई लड़ने के जज्बे को दिखाया। यह फिल्म सिर्फ लड़कियों को जागरूक नहीं करती, बल्कि पूरे समाज को झकझोरती है, जो आस्था और अंधविश्वास में फर्क करना जरूरी नहीं समझते।

    इसमें वकील पी.सी. सोलंकी (मनोज बाजपेयी) रामायण के प्रसंग को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि रावण द्वारा सीता हरण को शिव भगवान ने महापाप माना। उसकी वजह थी कि रावण ने साधु के वेष में इस कृत्य को अंजाम दिया था, जिसका प्रभाव पूरे संसार के साधुत्व और सनातन पर सदियों तक रहेगा, जिसकी कोई माफी नहीं है।

    आस्था और अंधविश्वास में फर्क जरूरी: अपूर्व सिंह कार्की

    शास्त्रों में भी धर्म की आड़ में किए गए गलत कामों को क्षमा नहीं किया गया है। ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ के निर्देशक अपूर्व सिंह कार्की कहते हैं-

    गुरु को हमारे धर्म में ईश्वर से बड़ा दर्जा दिया गया है। गुरु का वचन यानी ईश्वर वाणी, लेकिन आस्था और अंधविश्वास में फर्क समझना जरूरी है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि आप जिसकी भक्ति करोगे, वैसा स्वरूप पाओगे। तो आपकी भक्ति का आदर्श सर्वोत्तम होना चाहिए। वरना हमारे इतिहास में ऐसी कई कहानियां है कि जिसमें अंधविश्वास ने इंसान से क्या-क्या करवा दिया है।

    सिनेमा में आस्था और अंधविश्वास को लेकर ‘ओह माय गॉड’, ‘पीके’, ‘ग्लोबल बाबा’ जैसी अनेक फिल्में बनी हैं, जो आस्था के नाम पर धंधा कर रहे बाबाओं के कारनामों को सामने लाने में अहम भूमिका निभा रही हैं। मगर जागना तो दर्शक को ही होगा, तभी इस पर नियंत्रण लगेगा। तब तक सिनेमा तो सरोकार के रूप में इन विषयों को उठाता ही रहेगा!