So Long Valley Review: सो लॉन्ग और बोरिंग कहानी, सस्पेंस से भरी इस मूवी का नहीं है कोई सिर-पैर
सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों का क्रेज ऑडियंस के बीच साफ तौर पर देखने को मिलता है। ऐसे में हाल ही में एक फिल्म थिएटर में रिलीज हुई है जिसका टाइटल है सो लॉन्ग वैली। सस्पेंस और क्राइम थ्रिलर की कहानी दिखाने के चक्कर में मेकर्स दर्शकों को क्या पेश करना चाहते हैं यहीं गड़बड़ी कर दी। नीचे पढ़ें फिल्म की पूरी कहानी
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। सस्पेंस और मर्डर मिस्ट्री वाली फिल्मों के लिए शिमला, मनाली जैसे लोकेशन फिल्मकारों के पसंदीदा रहे हैं। ऐसी जगहों पर उन्हें कहानी को रहस्यमयी बनाने के लिए अच्छे मौके मिलते हैं। सो लांग वैली की कहानी भी शिमला और मनाली के बीच रखी गई है।
क्या है 'सो लॉन्ग वैली' की कहानी?
मनाली पुलिस स्टेशन में मौशमी (अलीशा परवीन) अपनी बहन रिया (आकांक्षा पुरी) की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाने आती है। वह शिमला से मनाली के लिए टैक्सी ड्राइवर कुलदीप (विक्रम कोचर) की टैक्सी में बैठती है। मनाली पुलिस स्टेशन की इंस्पेक्टर सुमन (त्रिधा चौधरी) केस की जांच करती है। शिमला पुलिस से इंस्पेक्टर देव (मान सिंह) भी इसमें शामिल होता है। फोन की लोकेशन से पता चलता है कि रिया सो लांग वैली के आसपास कहीं है। आगे की कहानी के लिए फिल्म देखनी होगी।
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निर्देशक ही है फिल्म का अभिनेता
मान सिंह ने फिल्म में अभिनेता, निर्देशक-निर्माता और लेखक चारों की जिम्मेदारी उठाई है। कहानी का प्लाट रोमांचक है, जिसमें एक लड़की सो लांग वैली में गायब है। उसे ढूंढने का तरीका दिलचस्प हो सकता था। सस्पेंस दिखाने का पूरा मौका था। लेकिन पुलिस की अजीबो-गरीब जांच का तरीका, उस बीच होने वाले घटनाक्रम, संवाद और क्लाइमैक्स इसे कमजोर कहानी और ऊबाउ बना देते हैं।
पुलिस को शुरुआती दौर में रिया की फोन लोकेशन से पता चल जाता है कि वो सो लांग वैली में है। लेकिन मनाली और शिमला पुलिस, वहां टीम भेजने की बजाय बस बेकार की पूछताछ में लगे रहते हैं। एक सीन में टीवी पर दिल्ली के निर्भया केस को मुंबई का बताकर दिखाया जाता है, लेकिन फिर भी लड़की को ढूंढने में पुलिस कोई तत्परता नहीं दिखाती। सुमन बस परेशान होकर पुलिस स्टेशन में बैठी रहती है, तो वहीं इंस्पेक्टर देव ख्याली पुलाव और पुलिस की टीमें बनाते रहता है। दोनों का ही अतीत भी है, जिसका कहानी से कोई लेना-देना नहीं।
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इन सवालों के फिल्म में नहीं मिलेंगे कोई जवाब
सुमन अपने ब्वायफ्रेंड से कटी-कटी सी क्यों रहती है, नहीं पता। फिल्म में अचानक से देव को हीरोइक दिखाने के लिए बैकग्राउंड म्यूजिक बज जाता है, जो हास्यास्पद लगता है। पुरुषसत्तात्मक समाज में महिलाओं की जिस स्थिति पर मान सिंह बात करना चाहते थे, वह एक संवाद में ही सिमट कर रह जाता है। फिल्म के अंत में यौन उत्पीड़न का मामला भी है, जिसमें पुलिस की सहायता लेने की बजाय रिया का अपने ही अपहरण का प्लान बनाना बेवकूफी भरा लगता है। हालांकि, सिनेमैटोग्राफर श्रीकांत पटनायक ने अपने कैमरे से फिल्म को थोड़ा बहुत रोमांचक बनाने का सफल प्रयास किया है।
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सिर्फ एक एक्टर की वजह से देख पाएंगे फिल्म
आश्रम में अपने अभिनय से ध्यान आकर्षित करने वाली त्रिधा की भूमिका फिल्म में थकी-थकी सी लगती हैं, लेकिन अपने संवादों पर उनकी पकड़ मजबूत है। मान सिंह का पात्र को यूं तो सख्त दिखना था, लेकिन बेकार की डायलॉगबाजी और स्वैग के चक्कर में वह न प्रभावशाली लगते हैं, न ही सख्त। आकांक्षा पुरी को अगर अभिनय के क्षेत्र में ही रहना है, तो उन्हें बहुत मेहनत करने की जरुरत है। उनके चेहरे पर डर या खुशी का भाव ही नहीं दिखता। अच्छा कलाकार कैसे कमजोर कहानी में भी बेहतरीन काम कर सकता है, यह विक्रम कोचर सिखाते है। सनकी व्यक्ति की भूमिका में उन्होंने कमाल का काम किया है।
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