Thamma Review: दिल थामने का मौका नहीं देती 'थामा', कमजोर कहानी से फीकी पड़ी आयुष्मान-रश्मिका की फिल्म
दीवाली पर बॉक्स ऑफिस की रौनक भी दो फिल्मों के साथ जगमग हुई है। पहली फिल्म है 'एक दीवाने की दीवानियत' (Ek Deewnane ki Deewaniyat) और दूसरी है 'थामा' (Thamma)। मैडॉक फिल्म्स ने स्त्री, स्त्री 2, भेड़िया और मुंज्या के बाद प्रोड्यूसर दिनेश विजन फिल्म थामा को लेकर आए हैं, जो कि रिलीज भी हो गई है। इस फिल्म में भी पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर प्रेम कहानी के साथ हारर कामेडी को गढ़ने का प्रयास हुआ है। हालांकि कहानी में ताजगी का अभाव दिखता है।

दिल थामने पर मजबूर नहीं करती 'थामा'
फिल्म रिव्यू : थामा
प्रमुख कलाकार : आयुष्मान खुराना, रश्मिका मंदाना, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, परेश रावल, गीता अग्रवाल
निर्देशक : आदित्य सरपोतदार
अवधि : दो घंटा तीस मिनट
स्टार : दो
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई: दीवाली पर बॉक्स ऑफिस की रौनक भी दो फिल्मों के साथ जगमग हुई है। पहली फिल्म है 'एक दीवाने की दीवानियत' (Ek Deewnane ki Deewaniyat) और दूसरी है 'थामा' (Thamma)। मैडॉक फिल्म्स ने स्त्री, स्त्री 2, भेड़िया और मुंज्या के बाद प्रोड्यूसर दिनेश विजन फिल्म थामा को लेकर आए हैं, जो कि रिलीज भी हो गई है। इस फिल्म में भी पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर प्रेम कहानी के साथ हारर कामेडी को गढ़ने का प्रयास हुआ है। हालांकि कहानी में ताजगी का अभाव दिखता है। फिल्म का शीर्षक थामा यानी सबसे ताकतवर और बेतालों का नायक है, लेकिन उसकी दुनिया को फिल्म कम खंगालती है। सही मायने में हॉरर कामेडी के तौर पर प्रचारित इस फिल्म में हॉरर का तड़का कम है वहीं कामेडी भी दमदार नहीं बन पाई है।
कहानी की शुरुआत 323 बीसी से होती है। प्राचीन यूनानी सम्राट सिकंदर जंगल से गुजर रहा होता है जब बेतालों का नायक यक्षासन (नवाजुद्ददीन सिद्दिकी) उसे अपना शिकार बना लेता है। फिर कहानी वर्तमान में आती है। दिल्ली के आजाद न्यूज चैनल का रिपोर्टर आलोक गोयल (आयुष्मान खुराना) अपने दो दोस्तों के साथ ट्रैकिंग के लिए आया होता है। जंगल में सेल्फी के चक्कर में अचानक भालू के आक्रमण से घायल हो जाता है। जंगल में रहने वाली ताड़का (रश्मिका मंदाना) उसकी जिंदगी बचाती है। उसके साथियों को उसके बारे में पता चलता है। वह उसे शापित पर्वत पर कैद में रखे गए यक्षासन के सामने फेंक देते हैं ताकि वो उसका खून पी सके, लेकिन ताड़का उसे बचाकर ले जाती है। वो आलोक की जान बचाने की खातिर उसके साथ उसके घर आती है। नाटकीय घटनाक्रम के बाद ताड़का उसे अपने बारे में बताती है। इंसान और बेताल की दुनिया में संतुलन बना रहा पुलिस अधिकारी पीके यादव (फैजल मलिक) ताड़का को वापस जाने को कहता है। वो वापस जा रही होती है तभी उसे रोकने आलोक आता है। उसकी कार का एक्सीडेंट हो जाता है। ताड़का उसे बेताल बना देती है। इसके बाद आलोक की जिंदगी में क्या बदलाव आता है। ताड़का की ये गलती किस प्रकार उस पर भारी पड़ती है, इसी के साथ कहानी आगे बढ़ती है।
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'मुंज्या' के बाद आदित्य सरपोतदार ने इस यूनिवर्स की पांचवीं फिल्म थामा का निर्देशन किया है। इस बार 'मुंज्या' जैसा जादू वो नहीं क्रिएट कर पाए हैं। उसकी वजह है नीरेन भट्ट, सुरेश मैथ्यू और अरुण फुलारा द्वारा लिखी गई थामा की कहानी में नयापन और ताजगी का अभाव है। इसमें दिखाई गई दुनिया हो या घटनाएं इन्हें पहले भी अलग-अलग फिल्मों में देखा गया है। बेतालों की दुनिया को भी गहराई से एक्सप्लोर नहीं किया गया है। एक दृश्य में ताड़का बताती है बेताल रक्त पीते हैं और कभी नहीं मरते। ये पृथ्वी की रक्षा के लिए बनाए गए हैं। ऐसे में यक्षासन उनका थामा कैसे बना? इसका जवाब नहीं मिलता। थामा को जानने की जिज्ञासा अधूरी रह जाती है। क्लाइमेक्स में थामा और आलोक के बीच की तकरार को थोड़ा और दिलचस्प बनाने की जरूरत थी। वो जल्दबाजी में निपटाया गया लगता है। अंत में दिया गया सीक्वल का संकेत प्रभावी नहीं बन पाया है। एक्शन डायरेक्टर परवेज शेख और जसपर ग्रांट हुली (JASPER GRANT HULLEY) के स्टंट हालीवुड की सुपरहीरो फिल्मों की याद दिलाते हैं। फिल्म के दो गाने तुम मेरे न हुए, दिलबर की आंखों का पहले से ही दर्शकों के बीच हिट हो चुके हैं। बैकग्राउंड स्कोर से कई जगह डर पैदा करने की कोशिश हुई है, लेकिन बाद में वो शोर की तरह ही लगता है।
फिल्म 'ड्रीम गर्ल 2' की रिलीज के करीब दो साल बाद आयुष्मान खुराना थामा में नजर आए हैं। यहां पर उनका किरदार अजीब सी परिस्थितियों में फंसे आम आदमी का लगता है। हालांकि उसे वो सहजता से निभा ले जाते हैं। वो डर और उत्सुकता के भाव जगाते हैं लेकिन कमजोर स्क्रीन प्ले उनका दायरा सीमित कर देता है। रश्मिका मंदाना की आंखें हिरण जैसी खूबसूरत हैं। उनके जरिए वो अपने एक्सप्रेशन्स को खूबसूरती से व्यक्त करती हैं। हालांकि कुछ इमोशनल सीन्स में रश्मिका फीकी नजर आती हैं। थामा को डायलॉग्स के जरिए भले ही खतरनाक बताया गया हो, लेकिन स्क्रीन पर ऐसा दिखता नहीं है। कमजोर लेखन की वजह है कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे मंझे कलाकार उसे यादगार नहीं बना पाए हैं। आलोक के पिता की भूमिका में परेश रावल और मां बनीं गीता अग्रवाल महज कुछ सीन्स के बीच-बीच हंसी के पल लाते हैं। वरूण धवन का कैमियो भी दिलचस्प मोड़ लाने में नाकामयाब दिखता है। इस लिहाज से ये कहना गलत नही होगा कि, मैडॉक फिल्म्स की ये फिल्म हॉरर कॉमेडी यूनिवर्स की बाकी फिल्मों जैसा जादू नहीं दिखा पाती है और मैडॉक फिल्म्स के बाकी फिल्मों के जैसे दिल को थाम कर देखने जैसी नहीं बन पाई हैं।
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