The Signature Review: हस्ताक्षर के पीछे का दर्द दिखाती है 'द सिग्नेचर', झकझोर देगी फिल्म की कहानी
अनुपम खेर और नीना गुप्ता स्टारर फिल्म द सिग्नेचर ओटीटी प्लेटफॉर्म Zee5 पर रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म की कहानी एक बेबस पति की है जिसकी पूरी सेविंग्स लगाने के बाद भी पत्नी के इलाज में पैसे पूरे नहीं होते। गजेंद्र अहीरे के निर्देशन में बनी इस फिल्म की कहानी से निश्चित तौर पर आप खुद को कनेक्ट कर सकते हैं। यहां पर पढ़ें पूरा रिव्यू-
एंटरटेनमेंट डेस्क, मुंबई। अगर कोई अपना वेंटिलेटर पर हो तो उसकी जान बचाने के लिए डॉक्टर प्रयास करते हैं, लेकिन उसके साथ बड़े-बड़े मेडिकल बिल आम इंसान की कमर तोड़ देते हैं। जी 5 पर स्ट्रीम हुई फिल्म द सिग्नेचर इसी विषय से जुड़े तमाम पहलुओं को छूती हैं, लेकिन ढेर सारे मुद्दों को समेटने के चक्कर कहानी सबके साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाती है।
क्या है 'द सिग्नेचर' की कहानी?
सेवानिवृत्त लाइब्रेरियन अरविंद (अनुपम खेर) अपनी पत्नी मधु (नीना कुलकर्णी) साथ यूरोप ट्रिप पर जा रहे होते हैं। उनकी इस यात्रा के आरंभ होने से पहले ही उस पर ग्रहण लग जाता है। एयरपोर्ट में प्रवेश गेट पर ही मधु बेहोश हो जाती हैं। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जाता है। डॉक्टर उन्हें ब्रेन हेमरेज होने की बात कहते हैं। पत्नी के इलाज के खर्च लिए अरविंद की सारी बचत कम पड़ती हैं।
उन्हें पत्नी को वेंटिलेटर पर रखने के लिए काफी धन की अवश्यकता होती है। बेटा कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते हाथ खींच लेता है और उनके नाम पर साझा संपत्ति को बेचने के लिए भी तैयार नहीं होता। धन को इकठ्ठा करने के लिए परेशान अरविंद को डीएनआर (do-not-resuscitate) फॉर्म पर हस्ताक्षर करने की नैतिक दुविधा का सामना करना पड़ता है। वह क्या निर्णय लेगा, और इसकी क्या कीमत होगी? फिल्म इसी मुद्दे पर है।
जीवन की कड़वी सच्चाई को दिखाती फिल्म
मराठी फिल्मों के प्रख्यात निर्देशक गजेंद्र अहीरे की 'द सिग्नेचर' जिदंगी की कड़वी सच्चाई को दर्शाती है कि किस प्रकार धन अपने प्रियजन के जीवन को बचाने में अहम भूमिका निभाता है। वर्तमान में अभी भी बहुत सारे लोग मेडिकल बीमा के महत्व को पूरी तरह से नहीं समझते हैं। इसकी अहमियत जब समझ आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।वह अरविंद के जरिए वेंटिलेटर पर रहने वाले मरीजों के महंगे इलाज, अस्पताल के भारी भरकम बिल, जिंदगी के सुख रिटायरमेंट के बाद उठाने की सोच जैसे पहलुओं को छूते हैं। साथ ही अगर चुनाव करने की बात आती है कि अस्पताल के बिस्तर का हकदार कौन है? कोई युवा जिसके आगे पूरी जिंदगी पड़ी है, या कोई बुजुर्ग जिसके लिए मान लिया गया है कि उसकी उम्र बीत चुकी है जैसे सवालों को भी उठाती है।
हालांकि कई संवेदनशील मुद्दों को उठाने के चक्कर में लेखक-निर्देशक उसके साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। कहानी बिखरी सी लगती है। अहम पहलुओं के बावजूद यह शिकायतों का पिटारा बनकर रह जाती है।