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नई न्याय संहिता की उलझनों में घिरा सिनेमा और ओटीटी, 'मिर्जापुर' सीरीज को लेकर क्या बोले विनोद अनुपम

पुराने कानून और नई सीरीज का घालमेल है मिर्जापुर का सीजन 3। अमिताभ बच्चन की फिल्म सेक्शन 84 भी कतार में है। लोकप्रिय कोर्टरूम ड्रामा फिल्मों के उल्लेख के साथ ही संवादों के माध्यम से आईपीसी की धाराओं के अर्थ बताती फिल्में कितनी प्रासंगिक रह जाएंगी साथ ही नई भारतीय न्याय संहिता का क्या असर होगा फिल्मों व ओटीटी के लेखन पर बता रहे हैं विनोद अनुपम...

By Jagran News Edited By: Karishma Lalwani Updated: Sat, 13 Jul 2024 02:07 PM (IST)
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'मिर्जापुर 3' शो सिम्बॉलिक इमेज. फोटो क्रेडिट - इंस्टाग्राम
जागरण न्यूज नेटवर्क, मुंबई। रमाकांत पंडित को आप भले ही नहीं जानते हों उनके बेटे गुड्डू भैया को तो जानते ही होंगे, वही मिर्जापुर वाले। गुड्डू भैया को फर्जी एनकाउंटर से बचाने के प्रयास में वह एक पुलिस अधिकारी को गोली मार देते हैं और अपराध भी स्वीकार कर लेते हैं। अब कोर्ट में मुकदमा शुरू होता है।

सरकारी वकील और रमाकांत पंडित के बीच जिरह शुरू होती है कि इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) की धारा 302 के तहत उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जा सकती है या नहीं। अब लेखकों को क्या पता था कि इसके प्रदर्शित होने के दो दिन पहले देश में आईपीसी और उसकी धाराएं ही खत्म हो जाएंगी और उसके स्थान पर नई धाराओं के साथ भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की शुरुआत हो जाएगी।

दर्शकों को होगी ये कठिनाई

यह तय तो काफी पहले हो गया था लेकिन लेखकों को शायद लगा होगा कि अभी दर्शकों को नई धाराओं को समझने में कठिनाई होगी, इसीलिए 302 ही सही होगा। वास्तव में आईपीसी 302 के स्थानापन्न बीएनएस 103 को स्वीकार करने में अभी जितनी असुविधा होगी, उससे कहीं अधिक असुविधा तब होगी जब कुछ अंतराल के बाद हम आईपीसी को पूरी तरह भूल चुके होंगे। कुछ वर्ष के बाद जब नए दर्शक यही सीरीज देखेंगे, तो उन्हें समझने में कठिनाई होगी कि हत्या के लिए वकील साहब 302 का मुकदमा क्यों चला रहे हैं।

मुहावरों की तरह स्मृतियों में बसी धाराएं

वाकई 'मिर्जापुर' ऐसा कोई एक उदाहरण नहीं। हिंदी सिनेमा ने तो अपने जन्म के साथ आईपीसी की धाराएं ही पढ़ीं और दर्शकों को उन्हें अच्छी तरह रटवा भी दिया। यदि 302 और 420 जैसी धाराएं मुहावरे की तरह आम लोगों की जुबान पर चढ़ी हैं, तो उसमें सिनेमा का योगदान कम नहीं माना जा सकता। ताजिरात ए हिंद के दफा का मतलब भले ही हम नहीं समझते हों पर कोर्ट रूम ड्रामा हिंदी सिनेमा का प्रिय जॉनर रहा है।

विनोद अनुपम ने कहा कि 1960 में बनी बीआर चोपड़ा की कानून से लेकर पिंक और फिर ओएमजी 2 तक, कानून जैसी फिल्मों के तो केंद्र में ही धारा 302 है। अब जब नए दर्शक इस फिल्म को देखेंगे तो किस तरह सारी बहस को समझ पाएंगे। आज महसूस न भी करें, पर आने वाले समय में जैसे-जैसे आईपीसी धाराएं विस्मृति में चली जाएंगी। ऐसी तमाम फिल्मों को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की चुनौती का सामना करना होगा।

नई समझ बिठाने की चुनौती

चारसौबीसी हमारे स्वभाव में हो न हो, लेकिन हिंदी मुहावरे में तो शामिल है। मामूली झूठे बहाने बनाने वाले को भी हम कह देते हैं कि चारसौबीसी नहीं करो और वह समझ जाता है। अब कहना पड़ेगा 318 नहीं करो। भारतीय न्याय संहिता में धोखाधड़ी के लिए यही धारा निर्धारित की गई है। हिंदी में तो कम से कम दर्जन भर फिल्में होंगी, जिनके शीर्षक में ही '420' है, राज कपूर की 'श्री420' से लेकर कमल हासन की चाची 420 और फिर अक्षय कुमार की खिलाड़ी 420 तक। यह कोई स्लेट पर लिखी इबारत तो नहीं कि मिटा कर बदल दी जाए। 

जिस तरह नई पीढ़ी चेन्नई और मुंबई के साथ अधिक सहज हो गई है, 420 सुनना उसके लिए किसी अजूबे से कम नहीं होगा। शायद तब तक 318 उसके मुहावरे में शामिल हो चुका होगा। ऐसे में इस तरह की कई कालजयी फिल्मों का अप्रासंगिक होना वाकई चिंतित कर सकता है। शीर्षक की ही बात करें तो 2019 में बनी अक्षय खन्ना और हुमा कुरैशी अभिनीत सेक्शन 375 को सेक्शन 63 के रूप में आना होगा, क्योंकि दुष्कर्म के लिए भारतीय न्याय संहिता में धारा 63 निर्धारित की गई है।

उपाय खोजने होंगे

आईपीसी में 511 धाराएं थीं। अब बीएनएस में 356 बच रही हैं। कुछ बदल दी गईं, कुछ हटा दी गईं, तो कुछ जोड़ी भी गईं। जाहिर है अपराध और कानून के आसपास विचरते हिंदी सिनेमा को अब अपने को भारतीय न्याय संहिता की जानकारियों से समृद्ध करना होगा। आप मुल्क, थप्पड़ या पिंक जैसी गंभीर फिल्म बना रहे हों या सामान्य अपराध कथा।

अब दर्शक उम्मीद करेंगे कि सिनेमा उन्हें अपने नए कानूनों से ही जोड़ने की कोशिश करे। हालांकि यह सवाल वहीं है कि कानून और श्री420 जैसी फिल्मों का क्या होगा? क्या इन्हें भारतीय न्याय संहिता की धाराओं के साथ संशोधित किया जाएगा। वास्तव में कोई भी कला अपने समय के साथ संवाद करती है।

नए दर्शक महसूस करेंगे जुड़ाव

'पथेर पांचाली' या 'गोदान' की वास्तविकता हम आज के भारत में नहीं ढूंढ़ सकते, बावजूद इसके उन्हें हम कालजयी कृतियां मानते हैं। उनके माध्यम से उस समय के भारत को जानने का प्रयास करते हैं। इस तरह की फिल्मों को भी यदि पीरियड फिल्म की ही तरह देखा जाए, तो शायद नए दर्शक जुड़ाव महसूस कर पाएंगे।

'सेक्शन 375' या 'पिंक' जैसी अपेक्षाकृत नई फिल्मों में दृश्य के साथ डिस्क्लेमर का भी सहारा लिया जा सकता है। बदलाव कैसा भी हो। छोटा या बड़ा, उसे स्वीकार करना आसान नहीं होता। सिनेमा को भी बदलाव के लिए प्रयास तो करना ही होगा, तभी उनकी प्रासंगिकता व महत्व कायम रह सकेगा।

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