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    India Partition Tragedy: बारह ट्रकों में थे सैंकड़ों लोग, काला मंडी पहुंचने से पहले सभी की हत्या

    भारत विभाजन त्रासदी को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। पानीपत में रह रहे दरबारी लाल आज भी इस त्रासदी को याद कर सिहर जाते हैं। उन्‍होंने बताया कि सैकड़ों लोगों की आंखों के सामने हत्‍या कर दी गई थी। सुरक्षित निकालने के लिए एसएचओ को दिए चांदी के सिक्के।

    By Anurag ShuklaEdited By: Updated: Mon, 15 Aug 2022 11:22 AM (IST)
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    दरबारी लाल अपने परिवार के साथ में। जागरण

    पानीपत, जागरण संवाददाता। मैं दरबारी लाल, मेरा जन्म पाकिस्तान के गुजरावालां जिला की तहसील शेखूपुरा के गांव सखी में हुआ था। विभाजन के समय मेरी आयु सात साल थी।त्रासदी की कुछ घटनाएं एक दर्द की तरह दिमाग में चलचित्र की तरह आज भी चलती हैं तो कुछ पिता-माता ने घटनाएं सुनाईं। इतना याद है कि 12 ट्रकों में लदकर काला मंडी की ओर चले थे, सैंकड़ों हिंदुओं-सिखों का पाकिस्तानियों ने धारदार हथियारों से कत्ल कर दिया था।

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    पिता रामलाल और मां रामराखी द्वारा बताई घटनाओं का जिक्र करते हुए दरबारी लाल ने बताया कि पाकिस्तान में करियाना की दुकान थी। गहने बनाने का भी काम था, जमींदारा भी था। देश का विभाजन हाेने पर गांव का माहौल अचानक से भयावह हो गया था। जान बचाने के लिए सब कुछ छोड़कर गांव छोड़ना पड़ा । मां अपने भाई व मुझे घोड़े पर बैठाकर, करीब 10-12 किमी. दूर काला की मंडी में रिश्तेदारों के घर लेकर पहुंची थी।

    वहां करीब 10-12 दिनों तक रहे, एक रात मां ने सपना देखा कि काला की मंडी में आग लग गई । अनहोनी की आशंका से पुन: गांव सखी लौट गए। गांव में 10-12 घर हिंदुओं के थे। पिता को पता चला कि परिवार निशाने पर है तो अन्य हिंदू परिवार हमारे घर पर जमा हो गए थे। अंदर से पिता ने कुंडी लगा ली, मुसलमानों ने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया था। वे लाठी, बल्लम, बरछी लेकर घर के बाहर टहल रहे थे। जिस समय की यह घटना है तो मैं घर से बाहर मुस्लिम दोस्त शबीरू के साथ खेल रहा था।

    मेरी जान बचाने के लिए शबीरू क की मां अपने घर ले गई और भरोला(मिट्टी से बना एक बड़ा ड्रम) में छिपा दिया था। इसके बाद पिता ने एसएचओ को 1,100 चांदी के सिक्के दिए,उसने हमें सुरक्षित निकाला। परिवार चलने लगा तो शबीरू की मां मुझे लेकर आई और पिता के सुपुर्द किया था।

    ट्रकों में भेड़-बकरी की तरह लदे थे हिंदू

    उस दौरान ट्रकों में हिंदू भेड़-बकरी की तरह लदे थे।दादा जगीरामल और नानी इंदर कौर भी साथ थीं। तीसरे ग्रुप के साथ ट्रक में सवार होकर पहले अमृतसर पहुंचे। वहां करीब डेढ़ महीने तक एक छोटी सी दुकान में रहे। उसके बाद हम ट्रेन से कुरुक्षेत्र स्थित कैंप पहुंचे। वहां भी लगभग तीन माह रहे। वहां, दो रिश्तेदारों की बीमारी से मौत हुई तो पिता ने परिवार संग शिविर छोड़ दिया।

    पानीपत में किया संघर्ष

    माता-पिता पाकिस्तान से कुछ चांदी के सिक्के छिपाकर लाने में कामयाब हुए थे। पेट भरने के लिए अमृतसर में एक सिक्का बेचा तो 85 रुपये मिले थे। कुरुक्षेत्र में भी सिक्के बेचने पड़े थे। पानीपत पहुंचे तो बची हुई चांदी को बेचकर सूत का काम किया। पंजाब से सूत का धागा खरीदते और हथकरघा मालिकों को बेचते थे। वर्ष 1970 में खेस, चादर व कपड़ा बेचने का काम किया, नुकसान हुआ। 1999 में मिलों के धागे बेचने का काम शुरू किया था।