भारत काे ओलंपिक में भेजवाया; कोहिनूर से बड़ा हीरा गिरवी रख बचाई टाटा स्टील, जानिए कौन थे दोराबजी टाटा
सर दोराबजी टाटा जमशेदजी टाटा के पुत्र ने भारत में आधुनिक उद्योग और खेलों की नींव रखी। 27 अगस्त को जन्मे दोराबजी ने टाटा स्टील को वित्तीय संकट से बचाने के लिए अपनी पत्नी के साथ मिलकर जुबली डायमंड गिरवी रखा। उन्होंने 1920 के एंटवर्प ओलंपिक में भारत की पहली भागीदारी सुनिश्चित की और भारतीय ओलंपिक समिति की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दोराबजी टाटा जयंती विशेष स्टोरी।

जागरण संवाददाता, जमशेदपुर। भारत की औद्योगिक क्रांति के विशाल आकाश में जमशेदजी नसरवान जी टाटा यदि ध्रुव तारा थे, तो उनके ज्येष्ठ पुत्र सर दोराबजी टाटा वह सूरज थे, जिन्होंने अपने पिता के सपनों को ऊर्जा और प्रकाश देकर एक नई हकीकत में बदल दिया।
27 अगस्त, 1859 को जन्मे दोराबजी महज एक उद्योगपति नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी राष्ट्र-निर्माता थे, जिनके सीने में एक खिलाड़ी का दिल और एक महादानी की आत्मा बसती थी। उन्होंने न केवल टाटा स्टील की धधकती भट्टियों से आधुनिक भारत की नींव रखी, बल्कि खेल के मैदान से लेकर परोपकार तक, हर क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी।
यह उनकी ही शख्सियत का कमाल था कि जब टाटा स्टील डूबने की कगार पर थी, तो उनकी पत्नी ने कंपनी को बचाने के लिए अपना बेशकीमती 'जुबली डायमंड' गिरवी रख दिया। यह आकार में कोहिनूर से भी दोगुना बड़ा था।
त्याग की अनूठी मिसाल: 'जुबली डायमंड' की कहानी
यह किस्सा 1924 का है, जब प्रथम विश्व युद्ध के बाद आई मंदी और कई अन्य कारणों से टाटा स्टील वित्तीय संकट के गहरे भंवर में फंस गई थी। कंपनी के पास अपने हजारों कर्मचारियों को वेतन देने के लिए भी पैसे नहीं थे। उस निराशा के क्षण में दोराबजी और उनकी पत्नी लेडी मेहरबाई ने त्याग का एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जो आज भी प्रेरित करता है।
दोराबजी ने अपनी पूरी निजी संपत्ति कंपनी को बचाने के लिए गिरवी रख दी। लेकिन सबसे बड़ा बलिदान लेडी मेहरबाई ने दिया। उन्होंने अपना 245 कैरेट का 'जुबली डायमंड', जो उन्हें दोराबजी ने प्रेम स्वरूप भेंट किया था, इंपीरियल बैंक के पास गिरवी रख दिया ताकि कर्मचारियों का वेतन चुकाया जा सके।
यह हीरा उस वक्त लंदन के एक व्यापारी से एक लाख पाउंड में खरीदा गया था। इस दंपत्ति के निस्स्वार्थ कदम ने न केवल टाटा स्टील को बचाया, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि उनके लिए अपने कर्मचारियों का हित सर्वोपरि था।
खेलों के अनन्य प्रेमी और ओलंपिक के पथ-प्रदर्शक
कैंब्रिज में अपनी पढ़ाई के दौरान ही दोराबजी एक बेहतरीन खिलाड़ी के रूप में उभरे। वे क्रिकेट और फुटबाल के मंझे हुए खिलाड़ी थे और टेनिस में अपने कालेज का प्रतिनिधित्व भी करते थे। घुड़सवारी में भी उन्हें महारत हासिल थी। खेलों के प्रति इसी जुनून ने उन्हें भारत को ओलंपिक के वैश्विक मंच पर ले जाने के लिए प्रेरित किया।
यह दोराबजी ही थे, जिन्होंने 1920 के एंटवर्प ओलंपिक में भारत की भागीदारी की कल्पना की और उसे साकार किया। जब देश में कोई आधिकारिक ओलंपिक निकाय नहीं था, तब उन्होंने अपनी जेब से चार एथलीटों और दो पहलवानों के दल को ओलंपिक में भेजा।
उनके अथक प्रयासों से 1924 के पेरिस ओलंपिक में भारत ने आधिकारिक तौर पर हिस्सा लिया और वे अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति के सदस्य भी बने। उनके द्वारा बोए गए इसी बीज का मीठा फल 1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक में मिला, जब भारतीय हाकी टीम ने अपना पहला स्वर्ण पदक जीता।
जमशेदपुर के शिल्पकार और मजदूरों के हमदर्द
अपने पिता जमशेदजी टाटा के अधूरे सपने को पूरा करते हुए दोराबजी ने छोटा नागपुर के चुनौतीपूर्ण इलाके में भारत के पहले स्टील प्लांट की स्थापना की। उन्होंने टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (अब टाटा स्टील) को न केवल स्थापित किया, बल्कि साकची नामक गांव को एक आदर्श औद्योगिक शहर 'जमशेदपुर' के रूप में विकसित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पत्रकारिता से अपने करियर की शुरुआत
वे श्रमिकों के कल्याण के प्रबल समर्थक थे। 1920 की मजदूर हड़ताल के दौरान वे खुद जमशेदपुर आए और सीधे श्रमिकों से बात कर शिकायतों को सुन शांतिपूर्ण समाधान निकाला। यह उनकी दूरदर्शिता ही थी कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान टाटा स्टील ने मित्र देशों को दो लाख 90 हजार टन स्टील की आपूर्ति की, जिसके सम्मान में ब्रिटिश सरकार ने शहर का नाम साकची से बदलकर जमशेदपुर कर दिया।
पत्रकारिता से अपने करियर की शुरुआत करने वाले सर दोराबजी टाटा को 1910 में 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया गया था। तीन जून, 1932 को उनका निधन हो गया, लेकिन उद्योग, खेल और मानवता की सेवा में जलाई उनकी मशाल आज भी भारत को राह दिखा रही है।
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