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    रामलीला या रावण दहन से अलग है Kullu Dussehra की परंपरा, देव मिलन से जुड़ा है 375 साल पुराना उत्सव

    Updated: Tue, 30 Sep 2025 10:06 AM (IST)

    दशहरा पूरे भारत में बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस दिन रावण का पुतला जलाया जाता है लेकिन हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में यह उत्सव बिल्कुल अलग अंदाज में मनाया जाता है। जी हां यहां रावण नहीं जलता बल्कि देवता एक-दूसरे से मिलने आते हैं। 375 सालों से चली आ रही यह परंपरा Kullu Dussehra को दुनिया के सबसे अनूठे त्योहारों में से एक बनाती है।

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    रावण दहन नहीं, देव मिलन से जुड़ा है कुल्लू दशहरा का उत्सव (Image Source: Instagram)

    लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। भारत के हर कोने में दशहरा विजय का प्रतीक माना जाता है। कहीं रावण दहन होता है, तो कहीं रामलीला का मंचन, लेकिन हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में दशहरा का रंग ही कुछ अलग है। जी हां, यहां यह पर्व रावण दहन से नहीं, बल्कि देवताओं के भव्य मिलन से पहचाना जाता है। यही कारण है कि Kullu Dussehra न केवल भारत में, बल्कि पूरी दुनिया में अपनी अनोखी परंपरा और आध्यात्मिकता के लिए प्रसिद्ध है।

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    साल 2025 में अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा 2 अक्टूबर से 8 अक्टूबर तक धूमधाम से मनाया जाएगा। इस पूरे सप्ताह घाटी में लोक नृत्य, वाद्ययंत्रों की गूंज और हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ एक अलौकिक दृश्य रच देती है।

    कैसे हुई कुल्लू दशहरे की शुरुआत?

    इस अनोखे त्योहार की शुरुआत 17वीं शताब्दी में कुल्लू के राजा जगत सिंह ने की थी। एक पौराणिक कथा के अनुसार, लालच और गलत निर्णय के कारण राजा पर एक ब्राह्मण परिवार का शाप लग गया। इस श्राप से राजा को बेचैनी रहने लगी और उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। जब किसी भी उपाय से लाभ नहीं हुआ, तो एक साधु ने उन्हें भगवान राम (रघुनाथ जी) का आशीर्वाद लेने की सलाह दी।

    राजा ने अपनी गलती के पश्चाताप के लिए भगवान रघुनाथ की मूर्ति स्थापित की और पूरे कुल्लू घाटी के देवताओं को निमंत्रण भेजा। तभी से यह परंपरा शुरू हुई और आज 375 साल से ज्यादा बीत जाने के बाद भी हर साल विजयदशमी के दिन से शुरू होने वाला यह 7 दिवसीय उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।

    कुल्लू दशहरे में क्या होता है?

    दशहरा यहां विजयादशमी से शुरू होता है और पूरे सात दिन तक चलता है। इस दौरान कुल्लू घाटी के दूर-दराज गांवों से सजी-धजी पालकियों में देवताओं को लेकर लोग डलपुर मैदान तक आते हैं।

    ढोल-नगाड़ों की थाप, लोकनृत्य, और पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन से पूरा वातावरण गूंज उठता है। अंतिम दिन भगवान रघुनाथ की रथयात्रा डलपुर मैदान तक पहुंचती है, जिसे देखने के लिए हजारों श्रद्धालु उमड़ पड़ते हैं। यह दृश्य मानो देवताओं और इंसानों का अद्भुत संगम प्रतीत होता है।

    असली हिमाचल को जीने का मौका

    अगर आप एक टूरिस्ट हैं, तो कुल्लू दशहरा सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि संस्कृति और लोकजीवन को करीब से देखने का मौका हो सकता है। यहां आपको हिमाचली नृत्य, लोकगीत, और पीढ़ियों से चली आ रही परंपराएं एक साथ देखने को मिलेंगी।

    ध्यान रहे, इस दौरान कुल्लू और आसपास के सभी होटल और होमस्टे लगभग भर जाते हैं। इसलिए अगर आप इस साल यहां आने की योजना बना रहे हैं, तो अपनी बुकिंग समय रहते कर लें। कई गांवों में तो स्थानीय परिवार मेहमानों को अपने घरों में ठहराते हैं, जहां आपको असली हिमाचली मेहमाननवाजी का अनुभव मिलेगा।

    कुल्लू के आस-पास घूमने लायक जगहें

    कुल्लू दशहरा देखने के साथ-साथ आसपास की वादियों का भी आनंद लिया जा सकता है।

    • नग्गर: कभी कुल्लू साम्राज्य की राजधानी रहा नग्गर, अपने किले और निकोलस रोरिक आर्ट गैलरी के लिए प्रसिद्ध है। यहां से पूरी घाटी का नजारा देखने लायक होता है।
    • मनाली: सिर्फ एक घंटे की दूरी पर बसा मनाली हर मौसम का पसंदीदा ठिकाना है। हडिम्बा देवी मंदिर, पुराने मनाली की कैफे संस्कृति और देवदार की खुशबू से भरे रास्ते यहां खास आकर्षण हैं।
    • तीर्थन घाटी: अगर आप भीड़ से दूर रहना चाहते हैं, तो तीर्थन की शांत नदियां और ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क की ट्रेकिंग आपको प्राकृतिक सुकून का अनुभव देंगी।
    • कसोल और पार्वती घाटी: पहाड़ों की शांति और ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए यह जगह बेहतरीन है। पार्वती नदी के किनारे बसे कैफे और जंगलों की गहराई में जाती पगडंडियां यात्रियों को खास अनुभव देती हैं।

    कैसे पहुंचे कुल्लू?

    कुल्लू का नजदीकी हवाई अड्डा भुंतर है, जो दिल्ली से जुड़ा हुआ है। हालांकि मौसम के कारण उड़ानें प्रभावित हो सकती हैं। ऐसे में, ज्यादातर टूरिस्ट सड़क मार्ग को ही चुनते हैं। चंडीगढ़ या मनाली से कुल्लू तक का सफर देवदार के जंगलों और ब्यास नदी के किनारे-किनारे गुजरता है, जो ट्रिप को और भी यादगार बना देता है।

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