Caste Census: आसान नहीं होगी जातीय जनगणना की राह, सरनेम को लेकर क्या है सबसे बड़ी समस्या?
जातिगत जनगणना एक जटिल कार्य है जिसका सामना भारत सरकार को करना पड़ रहा है। 1931 की जनगणना के बाद 2011 में मनमोहन सिंह सरकार ने सामाजिक आर्थिक जातीय जनगणना करवाई लेकिन इसके आंकड़ों में अनियमितता के कारण उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सका। मोदी सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में हलफनामे में जातीय जनगणना के आंकड़ों को जारी करने में असमर्थता जताई है।

नीलू रंजन, नई दिल्ली। जातीय जनगणना कराने के लिए मोदी सरकार के फैसले के बावजूद इसे अमली जामा पहनाना कड़ी मशक्कत का काम होगा।
1931 की जातीय जनगणना के बाद मनमोहन सिंह सरकार ने 2011 की जनगणना के साथ ही सामाजिक आर्थिक जातीय जनगणना करायी थी, लेकिन इसके आंकड़ें में इतनी अनियमितता थी कि इसे सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। बाद में मोदी सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में जातीय जनगणना के आंकड़ों को जारी करने में असमर्थता जताई।
कई लोगों ने अपना सरनेम अपने गांव पर रखा
दरअसल पूरे देश में जातियों की अलग-अलग पहचान के लिए कोई फार्मूला सटीक नहीं है। जातियों की पहचान के लिए सरनेम को सबसे बेहतर तरीका माना जाता है। मगर समस्या यह है कि कई लोगों ने अपना सरनेम अपने गांव के नाम पर रख लिया है। जैसे अकाली दल नेता सुखबीर सिंह बादल या भाजपा नेता पुरुषोत्तम रुपाला। सुखबीर सिंह जट सिख हैं और बादल उनके गांव का नाम है।
इसी तरह से पुरूषोत्तम कड़वा पटेल हैं और रूपाला उनके गांव का नाम है। इसी तरह से बिहार और उत्तर प्रदेश की भूमिहार जाति सिंह, शर्मा, मिश्र, सिन्हा समेत कई सरनेम लगाते हैं। जाहिर है सरनेम के आधार पर उनकी जाति का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। कम से कम कंप्यूटर के जरिए तो संभव ही नहीं जाति जनगणना की इस विसंगति को दूर करने के लिए एक विकल्प के रूप में लोगों को जनगणना के दौरान खुद अपनी जाति बताने का मौका देने का तर्क दिया जा रहा है।
लेकिन ओबीसी में आना किसी व्यक्ति को कई सरकारी लाभों का हकदार बना देता है। ऐसे में हर व्यक्ति खुद को ओबीसी बताने की कोशिश करेगा। जाहिर है लोगों को खुद अपनी जाति निर्धारित करने का विकल्प देने से नई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी।
1931 की जनगणना में देश में कुल 4,147 जातियां थी
2011 जातीय सर्वे के आंकड़े जारी करने में सबसे बड़ी बाधा जातियों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी थी। दरअसल 1931 की जनगणना में देश में कुल 4,147 जातियां दर्ज की गई थी। इसी के आधार पर मंडल आयोग ने 1980 में पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ देने की रिपोर्ट दी थी, 1991 में वीपी सिंह सरकार ने इसे लागू किया था। लेकिन 2011 की जनगणना में जातियों की संख्या 46.80 लाख से अधिक पहुंच गई। सवाल यह है कि सरकार जातियों की संख्या 1931 पर ही सीमित रखेगी या फिर आम जनता को खुद जाति बताने का मौका देगी।
वैसे तो 2011 की जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये गए, लेकिन केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र से जुड़े कुछ आंकड़े सुप्रीम कोर्ट में दिये थे, जो चौंकाने वाले हैं। इसके अनुसार 2011 में महाराष्ट्र की 10.3 करोड़ की जनसंख्या में 4.28 लाख जातियां दर्ज की गईं।
इनमें से 99 फीसद जातियां ऐसी थी, जिनकी जनसंख्या 100 से भी कम थी। जबकि 2,440 जातियों की जनसंख्या 8.82 लाख थी। हैरानी की बात है कि इनमें से 1.17 करोड़ यानी लगभग 11 फीसद लोगों ने बताया कि उनकी कोई जाति नहीं है।
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