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    'निर्दोषों को परेशान करने का साधन नहीं हो सकता आपराधिक कानून', ये कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने रद कर दीं 5 FIR

    Updated: Fri, 17 Oct 2025 11:30 PM (IST)

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपराधिक कानून का इस्तेमाल निर्दोषों को परेशान करने के लिए नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में मतांतरण के आरोप में दर्ज पांच एफआईआर रद कर दीं, जिसमें शुआट्स के कुलपति राजेंद्र बिहारी लाल भी शामिल थे। जस्टिस पार्डीवाला ने कहा कि एफआईआर में कानूनी कमियां थीं और कोई पीड़ित शिकायत लेकर नहीं आया था। अदालत ने माना कि एक ही घटना के लिए कई एफआईआर जांच शक्तियों का दुरुपयोग है।

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    सुप्रीम कोर्ट ने रद की एफआईआर।

    डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। आपराधिक कानून को निर्दोष व्यक्तियों को परेशान करने का साधन बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती जिससे अभियोजन एजेंसियों को मनमर्जी से एवं पूरी तरह से अविश्वसनीय सामग्री के आधार पर अभियोजन शुरू करने की अनुमति मिल सके; यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को हिंदुओं को ईसाई धर्म में मतांतरित करने के कथित अपराध पर उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में दर्ज कई प्राथमिकियां रद कर दीं।

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    जस्टिस जेबी पार्डीवाला और जस्टिस मनोज मिश्र की पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध मतांतरण प्रतिषेध अधिनियम, 2021 के तहत विभिन्न लोगों के विरुद्ध दर्ज पांच एफआईआर रद कर दीं। इन लोगों में उत्तर प्रदेश के सैम हिगिनबाटम कृषि, प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान विश्वविद्यालय (शुआट्स) के कुलपति राजेंद्र बिहारी लाल शामिल थे।

    जस्टिस पार्डीवाला ने क्या कहा?

    158 पृष्ठों का यह फैसला लिखने वाले जस्टिस पार्डीवाला ने कहा कि इन एफआईआर में कानूनी व प्रक्रियागत खामियां थीं और विश्वसनीय सामग्री का अभाव था। उन्होंने कहा कि इस तरह के अभियोजन को जारी रखना न्याय का उपहास होगा।

    पीठ ने इस दलील को खारिज कर दिया कि संविधान के अनुच्छेद-32 (मौलिक अधिकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार) के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए शीर्ष अदालत को प्राथमिकी रद नहीं करनी चाहिए। कहा, 'सर्वोच्च संवैधानिक अदालत होने के नाते इस न्यायालय को संविधान के भाग-3 में प्रदत्त शक्तियां मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध राहत प्रदान करने के लिए दी गई हैं। संवैधानिक उपचारों का अधिकार स्वयं एक मौलिक अधिकार के रूप में प्रतिष्ठित है और इस अदालत पर उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी है। जब संविधान ने इस अदालत को यह जिम्मेदारी दी है, तो उसे किसी याचिकाकर्ता को वैकल्पिक उपाय अपनाने का निर्देश देने की जरूरत नहीं है, जबकि शिकायत ही मौलिक अधिकार के कथित उल्लंघन की है।''

    शीर्ष अदालत ने प्रत्येक प्राथमिकी के तथ्यों पर विस्तार से चर्चा की और स्पष्ट कमियों को इंगित किया। इसमें यह बात शामिल है कि मतांतरण का कोई भी पीड़ित शिकायत लेकर पुलिस के पास नहीं गया। गवाहों के बयानों की सत्यता पर विचार करते हुए अदालत ने कहा, ''न तो गवाहों ने गैरकानूनी मतांतरण किया था, न ही वे 14 अप्रैल, 2022 को हुए कथित सामूहिक मतांतरण के स्थान पर मौजूद थे।''

    अदालत ने दिया पिछले फैसले का हवाला

    एक फैसले का हवाला देते हुए अदालत ने एक प्राथमिकी को यह कहते हुए रद कर दिया कि एक ही कथित घटना के लिए कई प्राथमिकियों का होना जांच की शक्तियों के दुरुपयोग को दर्शाता है। यह जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता को कमजोर करता है और आरोपित को अनुचित उत्पीड़न का शिकार बनाता है।

    अदालती निर्णयों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा, ''जहां हाई कोर्ट इस बात से संतुष्ट है कि किसी भी अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा है या होने की संभावना है या न्याय के लक्ष्य हासिल नहीं होंगे, तो उसे कानून के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करने का न केवल अधिकार है, बल्कि दायित्व भी है।'' हालांकि, पीठ ने कहा कि उत्तर प्रदेश का कानून, एक विशेष कानून होने के नाते सीआरपीसी से अलग कुछ विशेष प्रक्रियात्मक मानदंड निर्धारित करता है।

    (न्यूज एजेंसी पीटीआई के इनपुट के साथ)

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