'किसी एक संस्था को असीमित अधिकार देना लोकतंत्र के लिए चिंताजनक', पूर्व CJI खन्ना ने ऐसा क्यों कहा?
पूर्व प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना ने एक साथ चुनाव कराने संबंधी विधेयक की समीक्षा करते हुए कहा कि संवैधानिक वैधता यह नहीं दर्शाती कि प्रविधान वांछनीय हैं। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुरूप होने का मतलब यह नहीं कि वह समाज के लिए उचित है। न्यायमूर्ति खन्ना ने निर्वाचन आयोग को असीमित विवेकाधिकार देने पर चिंता जताई जिससे राज्य सरकार के कार्यों पर केंद्र का नियंत्रण हो सकता है।

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना ने एक साथ चुनाव कराने संबंधी विधेयक की समीक्षा कर रही संसदीय समिति से कहा है कि किसी प्रस्ताव की संवैधानिक वैधता यह नहीं दर्शाती कि उसके प्रविधान वांछनीय या आवश्यक भी हैं।
उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी प्रस्ताव को संविधान के अनुरूप मान लेने का यह अर्थ नहीं है कि वह समाज या लोकतंत्र के लिहाज से उचित या जरूरी भी है। सूत्रों के मुताबिक, हालांकि समिति को दिए अपने लिखित मत में न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि संविधान संशोधन विधेयक के बारे में देश के संघीय ढांचे को कमजोर करने संबंधी तर्क उठाए जा सकते हैं।
इस बात को लेकर जताई जा रही चिंता
भाजपा सांसद पीपी चौधरी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति के साथ अपने विचार साझा करने वाले अधिकांश विशेषज्ञों ने इस आरोप को खारिज कर दिया कि प्रस्ताव असंवैधानिक हैं, लेकिन उन्होंने विधेयक के वर्तमान प्रविधानों के साथ कुछ मुद्दों को उठाया है। जस्टिस खन्ना भारत के कुछ अन्य पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के साथ मिलकर विधेयक में निर्वाचन आयोग को दी गई शक्तियों की सीमा पर चिंता जता रहे हैं।
उन्होंने संसद की समिति को बताया कि प्रस्तावित विधेयक निर्वाचन आयोग को यह तय करने के मामले में 'असीमित विवेकाधिकार' देता है कि किसी राज्य विधानसभा का चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ नहीं कराया जा सकता। साथ ही इस संबंध में राष्ट्रपति को सिफारिश करने का अधिकार भी आयोग को दिया गया है।
जस्टिस खन्ना ने दिया ये संकेत
न्यायमूर्ति खन्ना ने यह संकेत दिया कि इस प्रकार का असीमित अधिकार किसी एक संस्था को देना संतुलित लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दृष्टिकोण से चिंताजनक हो सकता है। पूर्व सीजेआई खन्ना ने संसद की समिति को आगाह किया कि यदि निर्वाचन आयोग किसी राज्य में चुनाव स्थगित करता है तो इसका परिणाम अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति शासन के रूप में हो सकता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो इससे केंद्र सरकार राज्य सरकार के कार्यों का नियंत्रण संभाल सकती है। उन्होंने कहा कि यह स्थिति न्यायिक दृष्टि से सवालों के घेरे में आ सकती है, क्योंकि यह संविधान द्वारा कल्पित संघीय ढांचे का उल्लंघन मानी जा सकती है।
(न्यूज एजेंसी पीटीआई के इनपुट के साथ)
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