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    'मुंबई ट्रेन विस्फोट मामले में न पीड़ितों को न्याय मिला, न अभियुक्तों को', खास बातचीत में बोले उज्ज्वल निकम

    Updated: Sat, 26 Jul 2025 05:45 PM (IST)

    मुंबई लोकल ट्रेन विस्फोट मामले में उच्च न्यायालय ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया जिससे पीड़ितों और अभियुक्तों दोनों को निराशा हुई है। विशेष मकोका अदालत के फैसले को पलटते हुए उच्च न्यायालय ने सबूतों में खामियां पाईं। वरिष्ठ अधिवक्ता उज्ज्वल निकम के अनुसार यह फैसला न्याय में देरी और जांच एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी को उजागर करता है।

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    11 जुलाई, 2006 की शाम मुंबई में हुए थे सात विस्फोट (फोटो: जागरण)

    ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। मुंबई की लोकल ट्रेनों में 11 जुलाई, 2006 की शाम हुए सात विस्फोटों के मामले में 21 जुलाई, 2025 को आए बांबे हाई कोर्ट के फैसले ने सभी को अचरज में डाल दिया है। जिस मामले में मकोका की विशेष अदालत ने पांच दोषियों को मृत्युदंड एवं सात को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, उसी मामले में उन्हीं सुबूतों के आधार पर हाई कोर्ट ने सभी दोषियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया है। बांबे हाई कोर्ट के इस फैसले पर मुंबई के वरिष्ठ अधिवक्ता एवं अब राज्यसभा सदस्य पद्मश्री उज्ज्वल निकम से दैनिक जागरण के महाराष्ट्र ब्यूरो प्रमुख ओमप्रकाश तिवारी ने बात की।

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    उनका कहना है इस फैसले में कौन-सा कोर्ट सही है, यह तो सुप्रीम कोर्ट ही तय कर पाएगा, लेकिन यह ऐसा फैसला है, जिसमें किसी को न्याय नहीं मिला। न पीड़ितों को और न ही सजा पा चुके लोगों को। देश को एक सरकारी वकील की ताकत से परिचित कराने वाले निकम अयोध्या में ढांचा विध्वंस के बाद 12 मार्च, 1993 को मुंबई में हुए सिलसिलेवार विस्फोटों से लेकर 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर हुए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमले तक आतंक से जुड़े कई मुकदमों में अभियोजन पक्ष के वकील रहे।

    आतंकी अजमल कसाब से लेकर याकूब मेमन तक को फांसी के तख्ते तक पहुंचा चुके हैं। फिल्म निर्देशक गुलशन कुमार और भाजपा नेता प्रमोद महाजन हत्याकांड से लेकर मरीन ड्राइव व शक्ति मिल्स जैसे दुष्कर्म मामलों में भी दोषियों को सजा दिलवा चुके हैं। अब तक उनके द्वारा विभिन्न मामलों में 35 से अधिक मृत्युदंड एवं 450 से अधिक आजीवन कारावास की सजाएं दिलवाई जा चुकी हैं। महाराष्ट्र में कोई भी संगीन अपराध होने पर आम जनता की ओर से उन्हें ही पीपी नियुक्त करने की मांग की जाती है। प्रस्तुत हैं 7/11 मामले के फैसले पर उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंशः

    ट्रेन विस्फोट मामले में जो फैसला आया, उसे कैसे देखते हैं आप?

    – ये बहुत दुखद है। सभी आरोपितों का एक साथ छूट जाना सभी को आश्चर्यचकित कर रहा है। इसके दो कारण हैं। पहला, क्या उन लोगों को इंसाफ मिल पाया, जिन्होंने विस्फोट में अपना सब कुछ गंवा दिया? दूसरा, इतने सालों बाद दोषियों की रिहाई से सही मायने में उन्हें भी न्याय नहीं मिल पाया, क्योंकि यदि वे अपराधी नहीं हैं तो उन्हें बेवजह लंबी सजा भुगतनी पड़ी।

    उच्च न्यायालय द्वारा यह फैसला सुनाने के पीछे क्या कारण लगता है आपको?

    – 11 जुलाई, 2006 को हुए इन ट्रेन विस्फोटों में 187 लोगों की जान चली गई थी। इस मामले में निचली अदालत ने जो पांच लोगों को मृत्युदंड की सजा दी थी, और सात लोगों को आजीवन कारावास की सजा दी थी (उनमें से एक का जेल में ही देहांत हो चुका है), उन दोषियों ने मुंबई उच्च न्यायालय में अपनी सजा को चुनौती देते हुए अपील की थी। इसकी पूरी सुनवाई में उच्च न्यायालय ने यह देखा कि जो चश्मदीद गवाह थे, उनकी गवाही बहुत देर से ली गई। उच्च न्यायालय को लगा कि इस देरी के कारण उनकी गवाही पर भरोसा नहीं किया जा सकता। दूसरा, मकोका कानून के तहत पांच दोषियों के इकबालिया बयान पर भी उच्च न्यायालय ने सवाल खड़े किए हैं। उसमें कुछ खामियां पाई हैं कोर्ट ने, और उन पर भरोसा नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि उच्च न्यायालय ने सभी लोगों को बरी कर दिया।

    दोनों तरफ से न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाए जा रहे हैं कि किसे न्याय मिला?

    – इस तरह के सवाल इस फैसले में हुई देरी के कारण खड़े हो रहे हैं। ट्रायल कोर्ट (विशेष मकोका अदालत) का फैसला 2015 में आया था। उसके बाद उस फैसले के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील हुई और उसका फैसला अब 2025 में आया है। अब आरोपित तो यह कहेंगे कि हमारे फैसले में देरी हुई, इसलिए हमें न्याय नहीं मिला। दूसरी ओर विस्फोट में जिनकी जान चली गई, उनके रिश्तेदार भी कहेंगे कि हमें न्याय नहीं मिला। यदि इस मामले के सभी आरोपित निर्दोष ही हैं, तो विस्फोट किए किसने? ये सवाल उठने तो स्वाभाविक हैं अब।

    आपने तो आतंक से जुड़े कई गंभीर मामलों में अभियोजन पक्ष के वकील की भूमिका निभाई है। जिस प्रकार से मुंबई उच्च न्यायालय ने 7/11 मामले में जांच एजेंसियों की जांच पर सवाल खड़े किए हैं, क्या उस पर भरोसा करके यह माना जा सकता है कि जांच बिल्कुल सही नहीं थी?

    – मैं एक बार फिर कहूंगा कि उच्च न्यायालय के फैसले पर मुझे कोई टिप्पणी नहीं करनी है। लेकिन जहां तक जांच एजेंसियों का सवाल है, कई बार जांच एजेंसियां कई तरह के दबाव में, या क्रेडिट लेने की होड़ में गलतियां कर बैठती हैं। जैसे 7/11 के मामले को लेकर ही क्राइम ब्रांच और एटीएस के बीच क्रेडिट लेने की होड़ थी। इसका कितना असर मकोका कोर्ट पर पड़ा, या उच्च न्यायालय पर पड़ा ये हम नहीं कह सकते, लेकिन इससे समाज में तो भ्रम फैलता ही है। दूसरी बात यह कि इस तरह के बड़े मामलों में, जिनमें सैकड़ों लोगों की जान चली गई हो, जांच एजेंसियों पर जांच जल्दी पूरी करने का दबाव भी होता है। एजेंसियां अपनी तरफ से सही करने का ही प्रयास करती हैं। लेकिन कभी-कभी गलतियां होना भी स्वाभाविक है। जहां तक इस मामले का सवाल है, तो उच्च न्यायालय का फैसला तो सिर्फ उन सुबूतों के आधार पर आया है, जो निचली अदालत में लाए गए थे। उच्च न्यायालय ने उन्हीं का विश्लेषण करते हुए अपना फैसला सुनाया है।

    यह स्थिति पैदा होने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? आपका क्या मानना है?

    – यह मामला होने और इसकी जांच मुंबई एटीएस द्वारा शुरू किए जाने के कुछ दिनों बाद ही मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच ने इंडियन मुजाहिदीन का भी एक माड्यूल पकड़ा था। उसके एक अभियुक्त ने कहा था कि हमने ट्रेन ब्लास्ट किया है। यानी ट्रेन ब्लास्ट की जांच तो एटीएस (आतंकवाद निरोधक दस्ता) कर रहा था, और इंडियन मुजाहिदीन की जांच क्राइम ब्रांच कर रहा था। ऐसा लगता है कि मुंबई पुलिस के इन दोनों विभागों में कोई आपसी तालमेल नहीं था। मैं यह भी समझ सकता हूं कि कई बार आरोपित एक-दूसरे को बचाने के लिए झूठा आरोप भी करते हैं। संदेह का लाभ लेने के लिए झूठा आरोप अपने सिर ले लेते हैं, लेकिन इस मामले में एक ही पुलिस के दो विभागों को आपस में तो तालमेल रखना ही चाहिए था। सवाल ये उठता है कि कौन सी अदालत ने सही फैसला किया है? इसका फैसला तो अब सर्वोच्च न्यायालय में ही हो पाएगा। लेकिन इससे एक बात तो तय हो गई कि जिस आरोपित को सजा मिलती है, वह अपील करता है। उनकी सुनवाई में इतना समय लगना, आरोपित के लिए भी, और अभियोजन पक्ष के लिए भी शर्मनाक बात है। यदि आरोपित सही हैं, तो इतना समय क्यों लगना चाहिए? और यदि दोषियों ने अपराध नहीं किया है, तो भी फैसला जल्द सुनाकर उन्हें मुक्त किया जाना चाहिए। इतना समय किसी भी परिस्थिति में नहीं लगना चाहिए।

    इस प्रकार की ‘जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड’ की कहावत को रोकने के लिए क्या किया जा सकता है?

    – हमारी अदालतों में जब ‘अपील अगेंस्ट एक्विटल’ अर्थात अदालत द्वारा किसी को बरी करने के बाद अभियोजन पक्ष द्वारा उच्च अदालत में अपील की जाती है, तो उसकी सुनवाई भी 15-15 साल चलती रहती है। यह गलत है। मुझे लगता है कि इस प्रकार के मामलों में उच्च न्यायालय को अपनी सुनवाई एक साल के अंदर-अंदर पूरी कर लेनी चाहिए। ऐसा होने पर ही अदालतों के फैसले पर भरोसा कायम किया जा सकता है। 10-10 साल, 15-15 साल बाद जब फैसला आता है, तो उस मामले के अधिकारी भी जा चुके होते हैं। जज भी जा चुके होते हैं। ऐसे में किसी की कोई गलती होने पर उसके खिलाफ कुछ किया ही नहीं जा सकता। जैसे इसी मामले में विशेष मकोका अदालत में फैसला सुनाने वाले जज वाईडी शिंदे का तो निधन हो चुका है। मुंबई पुलिस के भी उस समय के सभी उच्च अधिकारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। अब आप किसी से कोई सवाल नहीं कर सकते। वास्तव में किसी को दोषी ठहराना जरूरी नहीं है, लेकिन सिस्टम में सुधार लाना जरूरी है। लोगों का कानून पर भरोसा कायम करना जरूरी है। यदि इस प्रकार देरी से फैसले आते हैं, तो लोगों का भरोसा न्यायपालिका पर भी कम होता है, जांच एजेंसियों पर भी कम होता है और अंततः लोकतंत्र पर से भी कम होता है।

    इस तरह के मामलों में जब कोई मुकदमा कई साल चलता है, तो जज भी कई बार बदलते होंगे। क्या मुकदमे के फैसले पर जजों के बार-बार बदलने का कोई असर पड़ता है? क्या इस फैसले पर असर पड़ा ?

    – हां, बिल्कुल बदलते हैं जज। और उसका असर भी पड़ता है मुकदमे पर। एक ही मामले को जब कई-कई जज सुनते हैं, तो उन्हें उस मुकदमे को समझने में भी दिक्कत होती है और इसका भी असर फैसले पर जरूर पड़ता है।

    यदि जजों की योग्यता पर बात की जाए, तो इस तरह के संवेदनशील मामलों में मकोका के विशेष जज के रूप में नियुक्ति भी तो कोई योग्य व्यक्ति देखकर ही की गई होगी। फिर मकोका कोर्ट के फैसले में और उच्च न्यायालय के फैसले में इतना अंतर कैसे आ सकता है?

    – देखिए, मैंने उच्च न्यायालय का फैसला अभी पढ़ा नहीं है, इसलिए मैं उस पर टिप्पणी नहीं करूंगा। उच्च न्यायालय का फैसला सही है, या गलत है ये आईना तो अब सर्वोच्च न्यायालय ही दिखा सकता है। तब तक हम उस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते।

    .. लेकिन उच्च न्यायालय ने मकोका कोर्ट के फैसले पर जिस तरह की कमियां निकाली हैं, उससे तो इस मामले के बारे में सोचने का पूरा नजरिया ही बदल गया है। जो अब तक दोषी बताए गए थे, वही अब पीड़ित दिखाई देने लगे हैं ?

    – हां, यही तो दुख की बात है। आज किसी को पता नहीं चल रहा है कि कौन गलत अभियुक्त है, कौन सही अभियुक्त है। लेकिन जिस प्रकार से प्रस्तुत किए गए प्रमाणों को उच्च न्यायालय सही नहीं मान रही है, उससे तो लगता है कि किसी न किसी की तो गलती है। इस प्रकार के मामलों में ‘कानून की व्याख्या’ महत्त्वपूर्ण होती है। जब अदालत किसी आरोपित की रिहाई करती है, तो जज यह देखता है कि उसके विरुद्ध पुख्ता सुबूत ही पेश नहीं किए गए हैं। दूसरी बात, सुबूत हैं, लेकिन उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। ऐसी ही परिस्थितियों में जज ‘बेनिफिट आफ डाउट’ (संशय का फायदा) देते हुए आरोपित को बरी कर देता है। इस मामले में कुछ सुबूत तो थे। लेकिन उच्च न्यायालय का मानना है कि वो सारे सुबूत उतने पुख्ता नहीं हैं कि आरोपितों पर आरोप सिद्ध किए जा सकें। ऐसी परिस्थितियों में जज के पर्सनल इंटरप्रिटेशन (उसकी अपनी व्याख्या) का सवाल आ जाता है। ऐसे पर्सनल इंटरप्रिटेशन पर फैसला उससे ऊंची अदालत ही कर सकती है। आज हम किसी पर कीचड़ नहीं उछाल सकते। न तो 2015 में सुनाए गए मकोका कोर्ट के फैसले पर। ना ही उसके 10 साल बाद सुनाए गए उच्च न्यायालय के फैसले पर।

    फिर सिस्टम में सुधार कैसे किया जा सकता है? क्या कोई हल है ?

    – हां, यह बात तो जरूर है कि उच्च न्यायालय का यह फैसला यदि निचली अदालत द्वारा सुनाए गए फैसले के दो साल के अंदर आ जाता, तो हम सिस्टम में सुधार कर सकते थे। मान लीजिए, उच्च न्यायालय का फैसला सही है, तो हम एक-दो साल के अंदर इस मामले की जांच एजेंसी में तो सुधार ला ही सकते थे। या मामले की जांच में पाई गई कमियों का पुनरावलोकन कर सकते थे, लेकिन अब तो उस मामले से जुड़े अधिकारी भी नहीं हैं, और सबूत भी करीब-करीब सारे ही नष्ट हो चुके होंगे। आप किससे क्या सवाल पूछेंगे। अब कोई सुधार लाया ही नहीं जा सकता।

    जब मुंबई में 12 मार्च, 1993 में हुए सिलसिलेवार विस्फोटों के मामले में आए फैसले को उच्च न्यायालय में ले जाया गया था, तो उसके दस्तावेजों का मराठी से अंग्रेजी में अनुवाद करना पड़ा था। जिसके कारण उसमें देर लगी थी। लेकिन अब तो इस तरह के अनुवाद के काम एआई या अन्य तकनीकों की मदद से जल्दी हो जाते हैं। फिर देर क्यों लगती है फैसलों में?

    – देखिए, मैं कोई आरोप नहीं लगा रहा हूं, लेकिन कई बार जज इस तरह से फैसलों से जानबूझकर कन्नी काट जाते हैं। वे ऐसे फैसलों में उलझना नहीं चाहते। इसके कारण भी मुकदमे वर्षों लटकते चले जाते हैं। इसलिए एक-डेढ़ साल के अंदर फैसला आने की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। क्योंकि सिस्टम सुधारना है हमें। यदि सिस्टम सुधारना है, तो दोष किसी को तो देना होगा। हमें कुछ काम तो करना होगा।

    अब सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी है। लेकिन मकोका कोर्ट में पेश किए गए जिन सबूतों के आधार पर उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया, अब उनमें बदलाव तो किया नहीं जा सकता। तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में क्या बदलाव आने की संभावना है?

    – संभावना की बात की जाए, तो किसी बदलाव की संभावना नहीं दिखती। लगता तो यही है कि जो छूटा, वो छूट गया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय किसी तथ्य की व्याख्या कैसे करता है, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। वह उच्च न्यायालय के फैसले को पलट भी सकता है।

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