नई दिल्ली, अनुराग मिश्र।

भारतीय संस्कृति में चावल को भारतीय संस्कृति में भी चावल को महत्वपूर्ण स्थान हासिल है। पूजा के दौरान भगवान को कच्चे चावल अर्पित किए जाते हैं। फिर भक्तों पर भी भगवान के आशीर्वाद के रूप में कच्चे चावल के दानों की बौछार की जाती है। विवाह संस्कार के दौरान भी नवदंपत्ति पर चावल छिड़ककर उसे समृद्धि का आशीर्वाद दिया जाता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन और बारिश की अनियमितता की वजह से हमारे जीवन का सबसे अभिन्न खाद्यान्न मौसम की भेंट चढ़ता जा रहा है। खाद्य सुरक्षा में धान (चावल) की हिस्सेदारी सबसे अधिक होने से कृषि वैज्ञानिक इस चुनौती से लगातार जूझ रहे हैं। हाल ही एक प्रकाशित एक शोध के अनुसार अत्यधिक और कम बारिश से चावल की उपज में क्रमशः 33.7% और 19% की कमी आती है।

नेचर जनरल में प्रकाशित शोध (ऑप्टिमल रेनफॉल थ्रीसोल्ड फॉर मानसून राइस प्रोडक्शन इन इंडिया वैरीज एक्रॉस स्पेस एंड टाइम) के अनुसार चावल का उत्पादन, विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, जलवायु परिवर्तनशीलता पर गंभीर रूप से निर्भर है। भारत में, जलवायु परिवर्तनशीलता के कारण खरीफ मानसून चावल की पैदावार 65% क्षेत्रों में घट गई। मानसून के महीनों में अत्यधिक वर्षा ने भारत में फसल की पैदावार को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है । इस तरह के नकारात्मक प्रभाव भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट और प्रमुख हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज (सांध्य) के असिस्टेंट प्रोफेसर और जेएनयू के शोधकर्ता सुवामोय प्रमाणिक बताते हैं कि हमने स्टडी को 20 राज्यों पर केंद्रित किया, जो राष्ट्रीय खरीफ मानसून चावल उत्पादन का 95% से अधिक हिस्सा रखते हैं, जिसमें आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। प्रमाणिक ने बताया कि 384 सैंपल (यानी, भारत के जिलों) में से 238 (63.3%) ने चावल की पैदावार और वर्षा के बीच सकारात्मक सहसंबंधों और 138 (36.7%) ने नकारात्मक सहसंबंधों का खुलासा किया। सकारात्मक सहसंबंध से आशय यह है कि वर्षा के अधिक और कम होने का असर चावल के उत्पादन में प्रभाव नहीं पड़ना है वहीं नकारात्मक सहसंबंध का अर्थ चावल के उत्पादन में कमी आना है। वह बताते हैं कि बंगाल, उड़ीसा, मेघालय, असम, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि में बारिश की अनियमितता ने चावल के उत्पादन में प्रतिकूल असर डाला है। शोध में यूनिवर्सिटी कॉलेज, डबलिन के पोस्ट डॉक्टरल रिसर्चर अरबिंदा मैती, मोहम्मद कमरूल हसन, श्रीकांत सनीग्रही, सोमनाथ बार, सुमन चक्रवर्ती, शांति स्वरूप महतो, सुमंता चटर्जी, फ्रांसिस्को पिला, जेरेमी ऑरबेच, ओलिवर सोनेटेग, कांगे सांग और क्वी झांग शामिल थे। 

प्रमाणिक बताते है कि भारत में चावल की उपज के लिए कुल इष्टतम वर्षा सीमा (ओआरटी) का मूल्य 1621 (± 34 मिमी, 1587-1655 मिमी) होने का अनुमान है। इष्टतम वर्षा सीमा को सीधे शब्दों में यह समझ सकते हैं कि यह सामान्य वर्षा है जिससे चावल के उत्पादन पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ता है। वहीं वह बताते हैं कि हमने अपनी स्टडी के दौरान इस बात का ही आकलन किया कि वर्षा का चावल उत्पादन पर कितना और कैसा असर है। उस स्थिति में हमने अन्य फैक्टर जैसे संबंधित जगह की मिट्टी, फर्टिलाइजर, खेतों का आकार, खेती के तरीके आदि को स्थिर माना। वह कहते हैं कि जब वर्षा का स्तर ओआरटी से अधिक हो जाता है, तो वर्षा में हर 100 मिमी की वृद्धि के लिए उपज 6.41 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गिरती है। विशेष रूप से, केरल, पश्चिम बंगाल और असम राज्यों में औसत वर्षा बहुत अधिक है, और उनके ओआरटी अन्य राज्यों की तुलना में अधिक हैं।

सुवामोय प्रमाणिक कहते हैं कि कुछ राज्यों में सामान्य से थोड़ी अधिक बारिश होने पर चावल के उत्पादन पर असर नहीं पड़ा वरन कुछ राज्यों में उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है। ओआरटी से परे, 100 मिमी वर्षा की वृद्धि से भारत के निम्न राज्यों में उपज का नुकसान हुआ, जिनमें केरल, महाराष्ट्र , कर्नाटक, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। अत्यधिक वर्षा और अत्यधिक शुष्क परिस्थितियाँ दोनों ही विभिन्न राज्यों में उपज में कमी का कारण बनती हैं। ओआरटी से नीचे वर्षा में हर 100 मिमी की कमी से हरियाणा, कर्नाटक, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्यों में उपज में उल्लेखनीय कमी आती है। कुछ राज्यों में उपज हानि की दर 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक है , और अन्य में 20-50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है (उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश)।

इन राज्यों में कम और अधिक हुआ चावल उत्पादन

1990-2017 के दौरान, भारत में खरीफ मानसून चावल का वार्षिक औसत फसल क्षेत्र और उत्पादन क्रमशः 41.17 मिलियन हेक्टेयर (एमएचए) और 87.66 मीट्रिक टन था। कुल मिलाकर, चावल का उत्पादन 1990 में 71.37 मीट्रिक टन से बढ़कर 2017 में 113.28 मीट्रिक टन हो गया, जो 28 साल की अवधि में लगभग 58.7% की वृद्धि दर को दर्शाता है। आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में वार्षिक उपज दर में 34 किग्रा प्रति हैक्टर से अधिक की वृद्धि हुई। चावल उत्पादन में सबसे कम वृद्धि वाले राज्य उत्तराखंड, महाराष्ट्र , हिमाचल प्रदेश, हरियाणा थे।

अलनीनो और लानीनो का असर भी चावल के उत्पादन पर

भारत में खरीफ मानसून चावल की उपज का नुकसान सिर्फ अधिक बारिश (गीली परिस्थितियों) तक ही सीमित नहीं है, बल्कि बारिश की कमी (शुष्क परिस्थितियों) के कारण भी है। भारतीय मानसून सीधे अल नीनो दक्षिणी दोलन (ईएनएसओ) से जुड़ा हुआ है , और इस प्रकार अल नीनो घटनाएं कम वर्षा या सूखे की स्थिति के कारण भारत में खरीफ मानसून चावल के उत्पादन में कमी ला सकती हैं। भारत में ऐसी स्थितियों का कारण बनने वाले अल नीनो चरणों में 1991, 1997, 2002, 2009 और 2015 शामिल हैं, जो सूखे की स्थिति वाले वर्ष थे; ला नीना चरणों में 1998, 1999, 2007 और 2010 के वर्ष शामिल हैं। ला नीना वर्षों के दौरान चावल की पैदावार में सुधार हुआ है।

अनियमित बारिश से नाइट्रोजन और मिट्टी की संरचना पर भी असर

प्रमाणिक कहते हैं कि एक ओर, अत्यधिक वर्षा बाढ़ और जलभराव का कारण बन सकती है, इससे उपलब्ध नाइट्रोजन पर असर पड़ता है। नाइट्रोजन कम होने से फसलों को नुकसान होता है , और मिट्टी की संरचना को नुकसान होता है। दूसरी ओर, अपर्याप्त वर्षा से सूखे की स्थिति पैदा हो सकती है, जिससे पौधे पर तनाव पड़ सकता है और चावल की उपज कम हो सकती है। वह बताते हैं कि हमारे अध्ययन में वर्षा बढ़ने के साथ चावल की पैदावार भी बढ़ी, जब तक कि यह इष्टतम सीमा तक नहीं पहुंच गई, जिसके बाद वर्षा में और वृद्धि के परिणामस्वरूप चावल की उपज में तदनुसार वृद्धि नहीं हुई। इस सीमा को पार करने पर, फसल की वृद्धि और विकास पर तनाव पड़ता है। आमतौर पर, धान के विकास की अवधि के दौरान कुल 1200-1400 मिमी पानी की आवश्यकता होती है। असम, बिहार और उत्तराखंड के लिए ओआरटी क्रमशः 1485 मिमी, 1205 मिमी और 1197 मिमी थे। इन तीन राज्यों में उनकी वृद्धि अवधि के दौरान 3200 मिमी तक वर्षा हुई थी। क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, विशेष रूप से हिमालय की उपस्थिति, असम, बिहार और उत्तराखंड राज्यों द्वारा अनुभव की गई भारी वर्षा में एक भूमिका निभाती है। हिमालय एक प्राकृतिक अवरोध के रूप में कार्य करता है।

बाढ़ की संभावना वाली जगहों पर असर ज्यादा

स्टडी के अनुसार मानसून के मौसम में भारी वर्षा विनाशकारी बाढ़ का कारण बन सकती है और चावल के उत्पादन को प्रभावित कर सकती है । कुछ क्षेत्र, जैसे उत्तर बिहार, महानंदा नदी, कोशी नदी, बागमती नदी, बूढ़ी गंडक नदी और गंडक सहित कई नदियों के अभिसरण पर अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण मानसून संबंधी बाढ़ के उच्च जोखिम का सामना करते हैं, जो नेपाल में उत्पन्न होती हैं और राज्य में बहती हैं। मानसून के मौसम में अधिकतम वर्षा 4000 मिमी से अधिक हो जाती है और धान का एक बड़ा क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है। दूसरा कारण यह है कि हाल के दिनों में धान के बड़े क्षेत्र को मछली पालन के लिए बदल दिया गया है। जिससे आस-पास की फसलों की नमी बढ़ जाती है और धान की भूमि से अतिरिक्त पानी की निकासी नहीं हो पाती है, जिससे खेतों में पानी जमा हो जाता है, जिससे मिट्टी से पोषक तत्व और उर्वरक नष्ट हो जाते हैं जो उत्पादन को नुकसान पहुंचाते हैं।

प्रमाणिक कहते हैं कि इस स्टडी को एक समाधान के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर हम ओआरटी के आधार पर और मौसम के पूर्वालोकन के आधार पर योजना तैयार करें तो चावल के उत्पादन को प्रभावित होने से बचाया जा सकता है।

ये अपना सकते हैं उपाय

मैकेंजी की रिपोर्ट के अनुसार चावल उत्पादन में, पुआल प्रबंधन काफी महत्वपूर्ण है। इसे मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और कार्बन भंडारण में इस्तेमाल किया जा सकता है। वियतनाम ने चावल के अवशेषों को मिट्टी में मिलाया जिससे फसल की पैदावार में बढ़ोतरी हुई। इससे रसायनों का इस्तेमाल भी कम हुआ और फसल की पोषकता भी बरकरार रही। भारत में भी ऐसे उपायों को अपनाने से सहायता मिल सकती है।

जलवायु परिवर्तन के अनुसार खेती करें

केंद्रीय उपजाऊ भूमि चावल अनुसंधान केंद्र हजारीबाग के प्रभारी पदाधिकारी डॉ दीपंकर मैती ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के अनुसार किसान खेती करें। उन्होंने कहा कि समय पर बारिश नहीं होने के कारण किसानों को धान के अलावा विभिन्न फसलों में काफी परेशानी होती है इसलिए किसान अब जलवायु परिवर्तन के अनुकूल खेती करें। उन्होंने कहा कि किसान कृषि क्षेत्र के अलावे पशुपालन की नवीनतम तकनीकी अपनाए और पशुपालन से भी अपनी आमदनी को बढ़ा सकते हैं। उन्होंने कहा कि किसान जैविक खाद से अपने उपज बढा सकते हैं।

पर्यावरण के अनुकूल किस्मों का चयन

मैकेंजी की रिपोर्ट के अनुसार ड्राई डायरेक्ट-सीडिंग तकनीक का उपयोग करें और चावल की किस्म का पर्यावरण के हिसाब से चयन करें। उदाहरण के लिए, बिना बाढ़ वाले खेतों में उगने वाले एरोबिक चावल का उत्पादन करें। उत्पादकता बढ़ाने के लिए धान के खेतों में मीथेन उत्सर्जन को कम करें।

जल प्रबंधन में सुधार

चावल के पेडों में मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिए जल प्रबंधन में सुधार करें। ऐसी किस्मों का प्रयोग करें जो पर्यावरण के अनुकूल हो।

उर्वरक

नाइट्रोजन उर्वरक के उपयोग से उत्सर्जन कम करने के लिए उर्वरक के प्लेसमेंट में सुधार करें (जैसे, यूरिया डीप फर्टिलाइजेशन)।

ये हैं अल-नीनो और ला-नीना

अल-नीनो प्रशांत महासागर के भूमध्य क्षेत्र की उस मौसमी घटना को कहते हैं, जिसमें पानी की सतह का तापमान सामान्य से अधिक गर्म हो जाता है और हवा पूर्व की ओर बहने लगती है। यह न केवल समुद्र पर बल्कि वायुमंडल पर भी प्रभाव डालता है। इस घटना के चलते समुद्र का तापमान 4 से 5 डिग्री तक गर्म हो जाता है। ला नीना में पश्चिमी प्रशांत महासागर क्षेत्र में सामान्य से कम वायुदाब की स्थिति बनती है। इसके कारण समुद्र का तापमान सामान्य से घट जाता है। आमतौर पर इन दोनों घटनाओं का असर 9 से 12 महीने तक रहता है, पर कभी-कभी यह स्थिति कई वर्षों तक बनी रह सकती है। दोनों घटनाएं दुनिया भर में बारिश, तूफान, बाढ़, सूखा जैसी घटनाओं को प्रभावित करती हैं। इनकी वजह से कहीं सामान्य से ज्यादा बारिश होती है तो कहीं सूखा पड़ता है, और कहीं तूफान आते हैं।