'अन्य राज्यों में नहीं दिखेगा SIR पर बिहार जैसा विरोध', विशेष बातचीत में बोले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर अपनी राय दी। उन्होंने कहा कि बिहार में एसआईआर का जैसा विरोध हो रहा है, वैसा अन्य राज्यों में नहीं होगा। रावत ने चुनाव आयोग को वोट चोरी जैसे मुद्दों पर अधिक संवेदनशीलता से काम करने की सलाह दी। उन्होंने मतदाता सूची में गड़बड़ी की शिकायतों पर तुरंत जांच करने और बीएलए को अधिक अधिकार देने पर भी अपनी राय व्यक्त की।

अरविंद पांडेय। मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर एक बार फिर घमासान शुरू हो गया है। बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसका तीखा विरोध हो रहा है और इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में भी गुहार लगाई गई है।
लेकिन ईवीएम में गड़बड़ी के आरोपों को लेकर विपक्ष के हमलों को झेल चुके पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत का मानना है कि एसआईआर के खिलाफ बिहार जैसा विरोध बंगाल और तमिलनाडु समेत 12 राज्यों में नहीं देखने को मिलेगा।
बिहार से सीख लेते हुए चुनाव आयोग ने इस बार फार्म के साथ दस्तावेज देने की बाध्यता खत्म कर दी है। उन्होंने कहा कि एसआईआर कराने का अधिकार चुनाव आयोग को है लेकिन वोट चोरी जैसे मुद्दे पर चुनाव आयोग को ज्यादा संवेदशीलता और पारदर्शिता से काम करना चाहिए।
पूर्व सीईसी रावत से दैनिक जागरण के विशेष संवाददाता अरविंद पांडेय ने एसआईआर के मुद्दे पर विस्तार से बात की। पेश से बातचीत के प्रमुख अंश
कांग्रेस ने मतदाता सूची में गड़बड़ी को बड़ा मुद्दा बना लिया है। क्या पहले भी यह मुद्दा बना था?
2018 में यह मुद्दा काफी उठा था। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हैदराबाद में ऐसे मुद्दे उठे थे। इस तरह की शिकायतों के बाद आयोग ने डुप्लीकेट, एक जैसे चेहरों वाले मतदाताओं की पहचान के लिए दो साफ्टवेयर खरीदे। इससे बड़ी संख्या में एक जैसे मिलते-जुलते नाम व चेहरे वाले मतदाता निकाले गए। अकेले मध्य प्रदेश में इसके जरिए 60 लाख डुप्लीकेट मतदाता पकड़े गए थे।
आपके समय में राजनीतिक दलों ने ईवीएम को मुद्दा बनाया था और अब मतदाता सूची को। पूरा विवाद आयोग पर दबाव बनाने का हथकंडा है?
ऐसा नहीं है। असलियत यह है कि राजनीतिक दलों के पास किसी आरोप की जांच के लिए कोई साधन है। उन्हें तो अपने कार्यकर्ताओं की बात पर भरोसा करना होता है। ये उनकी मजबूरी है। लेकिन चुनावी मशीनरी की ये मजबूरी नहीं है। किसी भी मुद्दे पर जांच के लिए तैयार रहना चाहिए। सभी को जांच में शामिल करना चाहिए ताकि उन्हें भरोसा रहे कि जांच सही हुई है। जो भी निष्कर्ष निकले, उसे उनसे साझा करें और उसे सार्वजनिक करें। ईवीएम के मामले में ऐसा ही किया गया था। आम आदमी पार्टी ने उस समय आरोप लगाया था। आयोग ने तुरंत उस पर संज्ञान लिया और कहा कि हमारे सुरक्षाकर्मियों के साथ चलें, जहां भी संदेह हो, हम वहां से उन ईवीएम को उठाकर लाएंगे। इस चैलेंज के बाद कोई राजनीतिक दल आगे नहीं आया।
कांग्रेस मशीन रिडेबल मतदाता सूची मांग रही है और चुनाव आयोग उसे दे नहीं रहा है। क्या आयोग का फैसला सही है?
रिडेबल मतदाता सूची सुरक्षा कारणों से किसी को नहीं दी जा सकती है। लेकिन चुनाव आयोग की गलती यह है कि वह मतदाता सूची में गड़बड़ी से जुड़ी राजनीतिक दलों की किसी भी शिकायत पर तुरंत जांच से बच रहा है। वह शपथ पत्र मांग रहा है। आयोग को शिकायत पर अपने पास मौजूद मशीन रिडेबल से तुरंत जांच कर शिकायत करने वाले को सही तथ्य बताना चाहिए। इससे शिकायत का निराकरण भी होगा और डाटा भी सुरक्षित रहेगा।
एसआईआर पहले भी हुए हैं लेकिन पहली बार ऐसा विरोध हो रहा है। क्यों?
आजादी के बाद 2003 तक सात या आठ बार एसआईआर हो चुके हैं। लेकिन कभी एसआईआर को लेकर विवाद नहीं हुआ। पहले कभी नागरिकता का कोई प्रमाण पत्र भी नहीं मांगा गया। सिर्फ गणना फार्म सभी को भरना था। बाद में संदेह होने पर नागरिकता के दस्तावेज मांगे जाते थे। इस बार नागरिकता का मुद्दा नागरिकों पर डाल दिया गया। यह विवाद और विरोध की बड़ी वजह बना।
राहुल गांधी चुनाव आयोग पर वोट चोरी का आरोप लगा रहे हैं, क्या चुनाव आयोग वोट चोरी करा सकता है?
ये चीज राजनीतिक है। आयोग पर वोट चोरी के आरोप पहले कभी नहीं लगाए गए। आयोग की सदैव नीति रही कि कोई भी राजनीतिक दल या मतदाता शिकायत करता था तो एक मिनट की देरी किए बगैर तुरंत जांच कराता था। इसमें शिकायतकर्ता और सभी राजनीतिक दलों को शामिल किया जाता था। अगले ही दिन बता दिया जाता था कि असलियत क्या है। इससे किसी को हल्ला करने का मौका नहीं मिलता था, लेकिन इस बार जांच के लिए शपथ पत्र देने को कहा गया। जब सभी क्षेत्र में डी-क्रिमनलाइजेशन की बात की जा रही है, तब आयोग का यह रवैया सही नहीं है। शपथ पत्र मांगना क्रिमनलाइजेशन जैसी चीज ही है। यदि एक भी गलती हुई तो छह महीने की सजा होगी।
जिस मतदाता सूची को लेकर पूरा विवाद है, उसे जमीनी स्तर पर बीएलओ तैयार करते हैं। इनकी नियुक्ति को लेकर कोई मानक है? इनके प्रशिक्षण पर कितना जोर दिया जाता है और गड़बड़ी पर क्या कार्रवाई होती है?
ये स्थानीय और उसी क्षेत्र के रहने वाले होने चाहिए। सरकारी कर्मचारी होने चाहिए। साथ ही उस क्षेत्र, मोहल्ले की पूरी जानकारी होनी चाहिए। जिनका निवास कहीं और है और ड्यूटी कहीं और है तो उन्हें इसमें नहीं लगाया जाता है। इन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है। मौजूदा आयोग ने तो इस दिशा में बहुत अच्छा काम किया है। इन्हें दिल्ली में बुलाकर प्रशिक्षण देने का काम किया है। उन्हें टैबलेट दिया जाता है। बीएलओ कोई गड़बड़ी करता है तो उन्हें बर्खास्त भी किया जा जाता है। आयोग का मानना था कि जब भी किसी तरह की गड़बड़ी की शिकायत मिले तो तुरंत इसकी जांच कराई जाए।
एसआईआर के दौरान बूथ लेवल एजेंट (बीएलए) का नाम भी चर्चा में है। चुनावी प्रक्रिया में इनकी क्या उपयोगिता होती है और ये कितने सक्रिय रहते हैं?
इस बार चुनाव आयोग ने बीएलए को कुछ ज्यादा अधिकार दे दिए। उन्हें फार्म लाकर जमा करने का अधिकार दे दिया। उन्हें बीएलओ के साथ बैठने का अधिकार दिया। ये पहले कभी नहीं हुआ। आयोग पहले राजनीतिक दलों और उससे जुड़े लोगों को सिर्फ बुलाता था लेकिन काम में उन्हें कोई भागीदारी नहीं दी जाती थी क्योंकि ये स्टेक होल्डर हैं। ये अपने-अपने काम करेंगे। ये ठीक नहीं है। बीएलओ को सिर्फ इतनी भूमिका देनी चाहिए कि वह उपस्थित रहें और गड़बड़ी पर नजर रखे। चुनाव आयोग ने पहले निर्देश निकाला था कि एक व्यक्ति से एक फार्म ही लिया जाएगा। अब बीएलए से कहा जा रहा है कि वह 50 फार्म लाकर जमा करा सकता है।
क्या बिहार जितने नाम पहले भी कभी मतदाता सूची से हटाए गए थे?
पुनरीक्षण में इससे ज्यादा नाम हटते रहे हैं। 2023 में मतदाता सूची के शुद्धिकऱण को लेकर देशभर में एक बड़ा अभियान चलाया गया था। इसमें मतदाता सूची में होने वाली नेचुरल बढ़ोत्तरी की जगह मतदाताओं की संख्या करीब छह प्रतिशत तक कम हो गई थी।

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