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    बचत का कॉन्‍सेप्‍ट भूल रहे भारतीय, घर-गाड़ी और लग्‍जरी लाइफ के लिए ले रहे मोटा कर्ज; GDP में घरेलू ऋण 42% तक पहुंचा!

    Updated: Fri, 25 Jul 2025 05:13 PM (IST)

    देश में घरेलू ऋण तेजी से बढ़ रहा है जो पिछले 10 वर्षों में जीडीपी का 26% से बढ़कर 42% हो गया है। लोग अब आवश्यक वस्तुओं के बजाय आवास वाहन इलेक्ट्रॉनिक्स और पर्यटन जैसी विलासिता की वस्तुओं के लिए अधिक कर्ज ले रहे हैं। बैंकों का 32.7% कर्ज व्यक्तिगत ऋण में है जो कृषि और उद्योगों से भी ज़्यादा है। पढ़ें इस पर क्‍या बोले एक्‍सपर्ट

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    भारत में बढ़ रहा कर्ज का बोझ: चादर से बाहर पैर पसार रहे लोग। प्रतीकात्‍मक फोटो

    डिजिटल डेस्‍क, नई दिल्‍ली। हमारे देश में एक पुरानी कहावत है ‘जितनी लंबी चादर हो पैर उतने ही पसारने चाहिए’  लेकिन मौजूदा वक्त इसकी मान्यता कम होती जा रही है। इसकी जगह चार्वाक का सिद्धांत ‘ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत भस्मीभूतस्य देहस्य पुनर्जन्म किमपि’ लोकप्रिय होता जा रहा है। आमदनी में वृद्धि, विलासिता के साधनों का बड़े पैमाने पर उत्पादन और जीवन शैली में बदलाव इसके मुख्य कारण हैं।

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    यह स्थिति विश्वव्यापी है, भारत इसका कोई अपवाद नहीं है, यद्यपि उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत में अभी भी यह कम है और नियंत्रण में है। खाने-पीने और आवश्यक वस्तुओं पर होने वाले खर्च का प्रतिशत आवास, मोटर वाहनों, एसी, रेफ्रिजरेटर, इलेक्ट्रॉनिक सामान, पर्यटन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं आदि पर खर्च की अपेक्षा कम होता जा रहा है।

    कहां होता है सबसे ज्‍यादा खर्च?

    मनचाही वस्तुओं के उपभोग के लिए यदि अपने पास साधन नहीं हों, तब भी ऋण लेकर उन्हें पूरा करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ती जा रही है। कुछ लोगों के लिए ऋण भी एक तरह से आमदनी का स्रोत बनता जा रहा है। इसके लाभ कम हैं, लेकिन हानि अधिक है।

    घर-द्वार बनाने में पहले जीवन भर की कमाई लग जाती थी, आज नौकरी लगते ही बैंक से ऋण मिल जाता है और फ्लैट बुक किया जा सकता है।

    कार, एसी, रेफ्रिजरेटर, कंप्यूटर, लैपटाप आदि के लिए आसानी से बैंकों से ऋण उपलब्ध हो जाता है, जिसका भुगतान आराम से किस्तों में किया जा सकता है।

    छोटे-बड़े उद्योगों, खेती-बागवानी, वाणिज्य-व्यापार आदि के लिए बड़े पैमाने पर आज ऋण की व्यवस्था है, जो अर्थव्यवस्था को गति देती है, लोगों को रोजगार देती है और आमदनी में वृद्धि करती है। ऋण दुखदाई तब हो जाता है जब लेने वाले में उसके भुगतान की क्षमता नहीं होती।

    कर्ज लेने वालों की बढ़ती संख्या

    देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में घरेलू ऋण का हिस्सा निरंतर बढ़ता जा रहा है, पिछले 10 वर्षों में यह 26 प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत पर आ गया है।

    जून, 2021 में यह 36.6 प्रतिशत था, जो 2023 में 42.9 प्रतिशत पर पहुंचा, दिसंबर 2024 में यह 41.9 प्रतिशत था। विश्व की अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं में यह औसतन 49 प्रतिशत के लगभग है, जो भारत से अधिक है।

    जीडीपी में घरेलू ऋण में बढ़त का एक बड़ा कारण है कि बड़ी संख्या में लोग कर्ज लेने लगे हैं। बैंकों का 32.7 प्रतिशत कर्ज अब पर्सनल लोन में है, जो कृषि और उद्योगों से भी ज्यादा है। गैर-जरूरी उधारी बढ़ रही है। घरेलू ऋण यदि 60 प्रतिशत के ऊपर जाता है तो जीडीपी में 0.1 प्रतिशत गिरावट संभव है, निचले स्तर के लोग डिफाल्टर अधिक हो सकते हैं।

    लगभग 55 प्रतिशत घरेलू ऋण संपत्ति खरीदने के बजाय लोग उपभोग उद्देश्यों के लिए ले रहे हैं, केवल 27 प्रतिशत लोन आवास निर्माण के लिए लिया जा रहा है। अनौपचारिक स्रोतों से ऋण में कमी आई है, इसका एक कारण सरकार के वित्तीय समावेशन की नीति भी है।

    उच्च मध्य वर्ग के लोगों में प्रति व्यक्ति ऋण मार्च, 2022 से जून, 2024 के बीच 25 प्रतिशत बढ़ गया है, जिसका बड़ा हिस्सा पर संपत्ति निर्माण में जाता है, जबकि अन्य स्तर के लोगों में यह बढ़त सात से 10 प्रतिशत की सीमा में है, उपभोग के लिए अधिक खर्च किया जाता है।

    बचत करने की आदत पर असर

    घरेलू ऋण में बढ़ोतरी बचत करने की आदत पर बुरा असर डाल रही है। वर्ष 2014-15 में सकल उत्पाद में परिवारों की बचत का हिस्सा 32.2 प्रतिशत था, जो 2024 जून में 18.1 प्रतिशत पर आ गया।

    आजादी के बाद कुछ दशकों तक घरेलू बचत ही उद्योग धंधों में निवेश का मुख्य स्रोत था, जो अभी भी है, किंतु विदेशी निवेश पहले नहीं के बराबर था, वह अब बड़ी मात्रा में आ रहा है।

    अधिकांश घरेलू बचत का उपयोग आवास, बीमा, म्यूचुअल फंड और पारिवारिक खर्चों, व्यापार और काम धंधों के लिए किया जाता है। परिवार के लिए भारी खर्चों में शादी-ब्याह और रीति-रिवाज के खर्चे शामिल हैं, जिनके लिए आमदनी कम और बचत न होने की स्थिति में ऋण लेना पड़ता है। सोना-चांदी दिनों-दिन महंगा होता जा रहा है।

    10 साल पहले कितनी थी सोने की कीमत?

    वर्ष 2015 में 10 ग्राम सोने की कीमत ₹26 हजार रुपये के करीब थी, जो अब ₹एक लाख रुपये के करीब पहुंच चुकी है। खाने-पीने के खर्चों के अलावा जिन अन्य चीजों पर परिवार में खर्च बढ़ते जा रहे हैं, उनमें मोटर वाहन, टीवी, एसी, रेफ्रिजरेटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं, फर्नीचर एवं साज-सज्जा के सामान शामिल हैं, जिनके लिए ऋण लेने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है।

    रिजर्व बैंक की नीति भी इन खर्चों को बढ़ावा देने की है, जिसके लिए समय-समय पर रेपो रेट में कमी की जाती है, जिससे बैंकों के लिए ब्याज दर में कमी करना संभव होता है, जिसका लाभ वे ब्याज दर में कटौती कर ऋण लेने वालों को देते हैं।

    क्रेडिट कार्ड लोन का अच्छा विकल्प बन गया है, खरीदारी के लिए अब इंतजार करने की आवश्यकता नहीं रह गई, क्रेडिट कार्ड से भुगतान तुरंत हो जाता है, बैंकों को भी इससे अच्छी कमाई होती है।

    प्राकृतिक संसाधनों का दोहन

    उपभोक्तावाद जहां जीवन में रंग भरता है, सुख-सुविधा के सामान बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराता है, लेकिन वहीं पर्यावरण प्रदूषण का कारण बन रहा है। पर्यावरण प्रदूषण का प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य पर भी तेजी से पड़ रहा है।

    हमारे प्राचीन ऋषियों ने ‘ईशावास्य मिदम’ की संस्कृति का आह्वान किया था, जिसका उद्देश्य था उतना ही उपभोग करें जितना आवश्यक है। आज की उपभोक्ता संस्कृति इसके विपरीत चल रही है, कर्ज लेकर विलासिता पूर्ण जीवन बिताने की बढ़ती प्रवृत्ति उसका ही दुष्परिणाम है।

    जीडीपी में घरेलू ऋण का प्रतिशत बढ़ा 

    देश के सकल घरेलू उत्पाद में घरेलू ऋण का हिस्सा एक दशक में 26 प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इसका मतलब है कि देश की अर्थव्यवस्था में कर्ज का बोझ बढ़ रहा है। इसलिए यह एक चिंता का विषय हो सकता है।

    रिजर्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि स्थिति नियंत्रण में है और चिंता की कोई बात नहीं है। घरेलू मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, खाद्य पदार्थों का रिकार्ड उत्पादन हुआ है और कीमतें नियंत्रण में हैं। फिर भी ऋण की इस स्थिति पर विचार तो किया जाना चाहिए। 

    (Source: प्रो. लल्‍लन प्रसाद, पूर्व विभागाध्‍यक्ष, बिजनेस इकोनॉमिक्स विभाग, दिल्‍ली विश्वविद्यालय से बातचीत और रिजर्व बैंक रिपोर्ट )