'अगर राज्यपाल काम नहीं करते, तो क्या कोर्ट हस्तक्षेप न करे?', केंद्र की दलील पर SC ने पूछे सवाल
सुप्रीम कोर्ट में प्रेसीडेंशियल रिफरेंस पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने केंद्र सरकार से शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत का हवाला दिया। कोर्ट ने कहा कि अगर राज्यपाल विधेयकों पर कार्रवाई नहीं करते हैं तो क्या अदालत हस्तक्षेप कर सकती है? सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि हर समस्या का समाधान सुप्रीम कोर्ट नहीं है राजनीतिक समाधान भी संभव है।

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने प्रेसीडेंशियल रिफरेंस पर सुनवाई के दौरान जब केंद्र सरकार से संविधान में दी गई शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल के विधेयकों पर निर्णय लेने के मामले में अदालत को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। न्यायसंगत लगने पर भी ये अदालती हस्तक्षेप का आधार नहीं हो सकता तो इन दलीलों पर कोर्ट ने सवाल किया कि अगर संवैधानिक पदाधिकारी अपने कर्तव्यों का निर्वाहन नहीं करता, राज्यपाल विधानसभा से पारित विधेयकों पर कोई कार्रवाई नहीं करते तो क्या होगा।
क्या अदालत के हाथ बंधे हैं। अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती, वह शक्तिहीन है। केंद्र की पैरोकारी कर रहे सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि हर समस्या का समाधान सुप्रीम कोर्ट नहीं है। समस्या का समाधान सिस्टम के भीतर भी होता है। समाधान राजनीतिक और लोकतांत्रिक हो सकता है। हालांकि गुरुवार को सुनवाई की शुरुआत में ही प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने मौखिक टिप्पणी में कहा कि वह पहले भी कह चुके हैं कि न्यायिक सक्रियता, न्यायिक आतंक नहीं होना चाहिए। मामले में मंगलवार को फिर सुनवाई होगी।
5 जजों की पीठ कर रही सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ आजकल प्रेसीडेंशियल रिफरेंस पर सुनवाई कर रही है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने 14 संवैधानिक सवालों पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी है। उन्होंने पूछा है कि जब संविधान में विधेयकों पर निर्णय लेने के संबंध में राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है तो क्या कोर्ट समय सीमा तय कर सकता है। केंद्र सरकार की ओर से सालिसिटर जनरल तुषार मेहता पक्ष रखते हुए कहा कि विधेयकों पर निर्णय लेने के संबंध में संविधान में राज्यपाल को विवेकाधिकार मिला हुआ है।
संविधान में जानबूझकर विधेयकों पर निर्णय लेने के संबंध में राज्यपाल के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है ऐसे में कोर्ट भी कोई समय सीमा तय नहीं कर सकता। मेहता ने कहा कि संविधान में बहुत स्पष्टता है जहां समय सीमा तय करनी थी वहां तय की गई है लेकिन अनुच्छेद 200 और 201 में राज्यपाल और राष्ट्रपति के राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों को मंजूरी के संबंध में कोई समय सीमा नहीं रखी गई है।
राजनीतिक समाधान पर केंद्र का जोर
जस्टिस गवई ने कहा कि अगर संवैधानिक पदाधिकारी बिना किसी कारण के अपने कर्तव्यों का निर्वाहन नहीं करते तो क्या संवैधानिक अदालत के हाथ बंधे हैं। वह शक्तिहीन है। ऐसी स्थित में क्या होगा। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि यदि राज्यपाल की ओर से कोई निष्क्रियता है जो राज्य दर राज्य अलग-अलग हो सकती है और यदि कोई पीड़ित राज्य कोर्ट का दरवाजा खटखटाता है तो क्या ऐसी निष्क्रियता की न्यायिक समीक्षा पर पूरी तरह रोक लगाई जा सकती है। मेहता ने पीठ की जिज्ञासा का जवाब देते हुए कहा कि हर समस्या का समाधान सुप्रीम कोर्ट नहीं हो सकता।
इस समस्या का राजनीतिक समाधान अपनाया जा सकता है। हर राज्य में ऐसा नहीं होता कि मुख्यमंत्री कोर्ट भागें। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां बातचीत से लोकतांत्रिक ढंग से समस्या का समाधान निकाला जाता है। टेलीफोन पर बात होती है। बैठक हो सकती है। समस्या का समाधान सिस्टम के अंदर भी हो सकता है। जब मेहता ने कहा कि संविधान में विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है तो कोर्ट समय सीमा तय नहीं कर सकता।
कोर्ट का ऐसा करना संविधान संशोधन के समान होगा। उन्होंने कहा कि कोर्ट संसद से यह कह सकता है कि वह विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राज्यपाल के बारे में समय सीमा तय करने का कानून बनाने पर विचार करे लेकिन कोर्ट स्वयं समय सीमा नहीं तय कर सकता। कोर्ट का ऐसा करना एक संस्था के काम में दूसरी संस्था का हस्तक्षेप होगा।
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