'सुबूत की जगह नहीं ले सकता संदेह', किस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने की यह टिप्पणी?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संदेह चाहे जितना भी पक्का हो सबूत की जगह नहीं ले सकता। 2007 में एक बच्चे की हत्या के आरोप से तीन लोगों को बरी करते हुए अदालत ने यह टिप्पणी की। कोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका स्वीकार की जिसमें तीनों को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा बरकरार रखी गई थी।

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संदेह चाहे जितना भी पक्का क्यों न हो, सुबूत की जगह नहीं ले सकता है। अदालत ने 2007 में 10 साल के बच्चे की हत्या के आरोपों से तीन लोगों को बरी करते हुए ये बात कही।
न्यायमूर्ति एमएम सुंद्रेश और सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष के मामले में अहम खामियों का पता चला है और रिकॉर्ड में दर्ज सुबूत किसी भी तरह से आरोपित के अपराध की ओर इशारा करनेवाली परिस्थितियों की कड़ी को पूरा नहीं कर सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती वाली याचिका को स्वीकारा
सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2017 के उत्तराखंड हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देनेवाली याचिका को स्वीकार किया था, जिसमें तीनों लोगों को दोषी पाते हुए उम्र कैद की सजा बरकरार रखी गई थी। पीठ ने अपने फैसले में कहा कि वैज्ञानिक परीक्षणों को दरकिनार करते हुए संदिग्ध गवाही के आधार पर दोषी ठहराना सुबूत की जगह संदेह को स्थापित करना है।
पीठ ने दी चेतावनी
पीठ ने बार-बार चेतावनी दी है कि संदेह चाहे जितना पुख्ता क्यों न हो, सुबूत की जगह नहीं ले सकता। इसलिए याचिकाकर्ता को संदेह का लाभ पाने के हकदार हैं। अदालत ने पाया कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य सुबूतों पर आधारित है।
पीठ ने कहा कि एफआईआर में दो अपीलकर्ताओं के नाम छूटना भी इनमें से एक है। हाई कोर्ट ने भी इस चूक को पकड़ा है लेकिन इसे महत्वहीन बताकर खारिज कर दिया।
'रवैया स्वीकार नहीं है'
पीठ ने कहा कि ये रवैया अस्वीकार्य है। ऐसे मामले में जो कि पूरी तरह परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित हो, हर परिस्थिति की कठोर छानबीन होनी चाहिए। पीठ ने कहा कि शिकायतकर्ता के परिचित होने के बावजूद तीन अपीलकर्ताओं में से दो का नाम एफआईआर में दर्ज न करना ये संदेह पैदा करता है कि उन दोनों को बाद में फंसाने का प्रयास किया गया है।
(न्यूज एजेंसी पीटीआई के इनपुट के साथ)
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