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    आनंदमठ का हिस्सा रहा है वंदे मातरम, मां काली के अवतार के रूप में मातृभूमि के स्तुति के लिए की थी रचना

    Updated: Sat, 08 Nov 2025 08:09 AM (IST)

    बंगाली उपन्यासकार एवं कवि बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1875 में देवी काली के अवतार के रूप में मातृभूमि की स्तुति के रूप में वंदेमातरम की रचना की थी। तब से बंगाल को समर्पित यह गीत बार-बार राजनीतिक तूफान के केंद्र में रहा है।

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    बंकिम चंद्र के उपन्यास आनंदमठ का हिस्सा रहा है वंदे मातरम (फोटो- जागरण)

    पीटीआई,नई दिल्ली। बंगाली उपन्यासकार एवं कवि बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1875 में देवी काली के अवतार के रूप में मातृभूमि की स्तुति के रूप में वंदे मातरम की रचना की थी। तब से बंगाल को समर्पित यह गीत बार-बार राजनीतिक तूफान के केंद्र में रहा है। हालांकि, यह सात वर्ष बाद 1882 में साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में बंकिम चंद्र के उपन्यास आनंदमठ के हिस्से के रूप में प्रकाशित हुआ था, जो संन्यासी विद्रोह और 1770 के बंगाल के भीषण अकाल की पृष्ठभूमि पर आधारित था।

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    1900 तक वंदे मातरम (अनुवाद- मां मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं) अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता सेनानियों का नारा बन गया था और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेताओं ने इसे लोकप्रिय बनाया। मूल बंदे मातरम (बंगाली में व ध्वनि नहीं है) छह छंदों का गीत है।

    बाद के हिस्सों में बोल देवी दुर्गा और देवी लक्ष्मी की छवि का वर्णन करते हैं और उन्हें प्रणाम करते हैं।यह गीत, खासकर पहले दो शब्द वंदे मातरम धीरे-धीरे राष्ट्रवादी आंदोलन का नारा बन गए थे। लेकिन 1937 में मुस्लिम लीग ने लखनऊ के अपने 25वें सत्र में अपनाए गए एक प्रस्ताव में वंदे मातरम को न केवल पूरी तरह से इस्लाम विरोधी और मूर्ति पूजक बताया, बल्कि भारत में वास्तविक राष्ट्रवाद के विकास के लिए हानिकारक भी बताया।

    कुछ दिनों बाद 26 अक्टूबर, 1937 को नेहरू की अध्यक्षता में कलकत्ता में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भी इस विषय पर एक प्रस्ताव पारित किया गया। इसमें कहा गया, जहां भी राष्ट्रीय सभाओं में वंदे मातरम गाया जाए, वहां सिर्फ पहले दो छंद ही गाए जाने चाहिए।

    आयोजकों को वंदे मातरम के अलावा या उसके स्थान पर कोई भी अन्य गीत गाने की पूरी आजादी होगी जो आपत्तिजनक न हो।24 जनवरी, 1950 को भारत की संविधान सभा ने वंदे मातरम को राष्ट्र गीत के रूप में अपनाया था।

    सूचना और प्रसारण मंत्रालय के 1953 के एक प्रकाशन के अनुसार, पहली बार इसे किसी राजनीतिक अवसर पर 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया था और इसे रवींद्रनाथ टैगोर ने संगीतबद्ध किया था। 1900 के बाद बंगाल में विभाजन विरोधी आंदोलन बढ़ने के साथ-साथ यह गीत धीरे-धीरे राष्ट्रगान का रूप लेने लगा। इन्हीं दिनों मुस्लिम नेताओं ने इस गीत के लोकप्रिय इस्तेमाल पर शुरुआती विरोध जताया था।

    30 दिसंबर, 1908 को अमृतसर में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के दूसरे अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में लीग के नेता सैयद अली इमाम ने कहा कि जब भारत का सबसे उन्नत प्रांत वंदे मातरम के सांप्रदायिक नारे को राष्ट्रीय नारा बनाता है तो उनका दिल निराशा और हताशा से भर जाता है। और यह शक कि राष्ट्रवाद की आड़ में भारत में ¨हदू राष्ट्रवाद का प्रचार किया जा रहा है, एक यकीन बन जाता है।

    इस गीत के साथ सबसे पवित्र राष्ट्रीय भावना को जोड़ने वाले महात्मा गांधी ने माना कि वंदे मातरम ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया था और उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि यह एक ¨हदू गीत है या सिर्फ ¨हदुओं के लिए है।

    उन्होंने एक जुलाई, 1939 को हरिजन में लिखा, मैं मिश्रित सभा में वंदे मातरम गाने को लेकर एक भी झगड़ा मोल नहीं लूंगा। यह इस्तेमाल नहीं होने से कभी खत्म नहीं होगा। यह लाखों लोगों के दिलों में बसा हुआ है। यह बंगाल के अंदर और बाहर लाखों लोगों में देशभक्ति जगाता है। इसके चुने हुए छंद बंगाल का पूरे देश को कई अन्य उपहारों में से एक हैं।

    महात्मा गांधी ने आजादी के बाद भी वंदे मातरम को नहीं थोपने की सलाह दी थी। उन्होंने 23 अगस्त, 1947 को अलीपुर में कहा था, इसमें कोई शक नहीं कि हर काम.. दोनों साझीदारों की तरफ से पूरी तरह अपनी मर्जी से होना चाहिए।

    वंदे मातरम को लेकर एक बड़ा विवाद 2009 में हुआ था, जब उत्तर प्रदेश के देवबंद में जमीयत उलमा-ए-हिंद ने एक फतवा जारी कर मुसलमानों से राष्ट्र गीत नहीं गाने को कहा था। इसमें कहा गया था, हम अपने देश से प्यार करते हैं और हमने यह कई बार साबित भी किया है, लेकिन वंदे मातरम हमारे एकेश्वरवाद में विश्वास के विरुद्ध है जो हमारे धर्म की नींव है। हम अपने देश से प्यार कर सकते हैं और उसकी सेवा कर सकते हैं, लेकिन उसे अल्लाह का दर्जा नहीं दे सकते, जिसकी इबादत सिर्फ मुसलमान करते हैं।

    वंदे मातरम का हटाया गया हिस्सा

    कोटि कोटि कन्ठ कलकल निनाद कराले

    द्विसप्त कोटि भुजै‌र्ध्रत खरकरवाले

    के बोले मा तुमी अबले

    बहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीम्

    रिपुदलवारिणीम् मातरम् ।।

    तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि हदि तुमि मर्म

    त्वं हि प्राणा: शरीरे

    बाहुते तुमि मा शक्ति,

    हृदये तुमि मा भक्ति,

    तोमारै प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे ।।

    त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी

    कमला कमलदल विहारिणीवाणी

    विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्

    नमामि कमलां अमलां अतुलाम्सुजलां सुफलां मातरम् ।।

    श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्

    धरणीं भरणीं मातरम् ।।

    ( यह बांग्ला में है।)