'अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास को फिर खोलना अच्छा कदम', विशेष बातचीत में बोले विवेक काटजू
तालिबान सरकार के विदेश मंत्री का भारत दौरा भारत-अफगानिस्तान संबंधों में सुधार का संकेत है। पूर्व राजनयिक विवेक काटजू ने इस पहल का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि भारत को 2017 से ही तालिबान से बात करनी चाहिए थी। काटजू ने काबुल में भारतीय दूतावास को फिर से खोलने का समर्थन किया, लेकिन राजदूत भेजने में जल्दबाजी न करने की सलाह दी। उन्होंने वीजा नियमों को आसान बनाने की भी बात कही।

आमिर खान मुत्ताकी और एस. जयशंकर।
रुमनी घोष, नई दिल्ली। तालिबान सरकार के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी का भारत दौरा और उनके द्वारा मीडिया के सवालों का सीधा जवाब देना दोनों देशों के बीच धीरे-धीरे 'खुलते' रिश्तों की गवाही है। हालांकि ढेरों दुविधाएं अभी भी मौजूद हैं, फिर भी कई पूर्व राजनयिक इस पहल की सराहना करते हुए इसे जरूरत भी बता रहे हैं। इन्हीं में से एक हैं अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रहे विवेक काटजू। वह 2017 से ही तालिबान सरकार से बात करने के पक्षधर थे। बेशक उनकी बात को अमल में लाने में एक अरसा लगा।
उनके अनुसार यह फैसला भारत के लिए फायदेमंद साबित होगा। काबुल में पुनः भारतीय दूतावास खुलेगा, वह वह इस बात की सराहना करते हैं। हालांकि उनका मानना है कि भारतीय दूतावास का नेतृत्व एक वरिष्ठ राजनयिक को सौंपा जा सकता है, लेकिन राजदूत भेजने में अभी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
कौन हैं विवेक काटजू?
काटजू म्यांमार और थाईलैंड में भी भारत के राजदूत के रूप में पदस्थ रहे हैं। एशियाई देशों के साथ भारत के संबंधों के सुधारों को लेकर उनके द्वारा की गई पहल की काफी चर्चा होती है। उनका संबंध राजनीति व न्यायतंत्र से जुड़े प्रतिष्ठित परिवार से संबंध रखने वाले काटजू पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री-रक्षामंत्री, पूर्व राज्यपाल व पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू के पोते हैं। पिता ब्रह्मनाथ काटजू इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे।
दैनिक जागरण ने काटजू से की खास बातचीत
तालिबान सरकार और उनके झंडे को मान्यता देने के फायदे-नुकसान, राजदूत की नियुक्ति के कूटनीतिक मायने और भारत में अफगानिस्तान दूतावास के सामने तालिबानी झंडा फहराने को लेकर चल रही बहस को लेकर दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः
अफगानिस्तान के तालिबान सरकार के विदेश मंत्री के इस दौरे को किस तरह से देखा जाना चाहिए?
उन्होंने कहा कि मैंने अफगानिस्तान पर काम करना शुरू किया 1995 में। संयुक्त सचिव की हैसियत से विदेश मंत्रालय की ईपा (ईरान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान) डिविजन का इंजार्ज हुआ। अप्रैल वर्ष 1996 में पहली बार अफगानिस्तान गया। उस वक्त वहां पर बुरहानुद्दीन रब्बानी राष्ट्रपति थे। वहां गृहयुद्ध चल रहा था और तालिबान भी मैदान में आ चुका था और पाकिस्तान उनको समर्थन कर रहा था। चूंकि अभी तालिबान सरकार के विदेश मंत्री भारत दौरे पर हैं तो उनके संबंध में बात करने के लिए उनके इतिहास पर भी गौर करना जरूरी है। तालिबानियों का इतिहास जानने के लिए अफगान जेहाद को समझना होगा। जेहाद के लिए सात इस्लामिक गुट एक साथ आए। इनमें से एक हिज्ब-ए-इस्लामी था और गुलबुद्दीन हिकमतयार उसका नेतृत्व कर रहे थे। इस गुट को पाकिस्तान का पूरा समर्थन था। इनकी मुख्य लड़ाई अफगान नेता बुरहानुद्दीन रब्बानी और उनके मशहूर कमांडर अहमद शाह मसूद के खिलाफ थी। वर्ष 1992 में राष्ट्रपति नजीबुल्लाह के पद से हटने के बाद रब्बानी ने राष्ट्रपति का पद संभाला। इस दौरान मसूद काबुल के अधिकांश हिस्सों पर कब्जा जमा चुके थे और इन्होंने हिकमतयार को वहां से हटा दिया था। तालिबान का जन्म 1994 में हुआ। उन्होंने पहले कंधार या यूं कहे कि दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्तान को अपने कब्जे में लिया। और फिर 26 सिंतबर 1996 में काबुल पर कब्जा जमा लिया और कमांडर अहमद शाह मसूद को पंजशीर की ओर धकेल दिया गया। तालिबान ने जब अपना कब्जा किया तो अपनी नीतियां अपनाईं, जिसका पूरी दुनिया में विरोध हुआ, क्योंकि उन्होंने इस सदी में सातवीं सदी का इस्लामिक कानून लागू कर दिया था। यह मानव अधिकार के अंतरराष्ट्रीय मानकों के खिलाफ था। महिलाओं के लिए पढ़ाई व इलाज मुश्किल था। उस समय भी तालिबान सरकार को सिर्फ तीन देशों (पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात) के अलावा किसी ने मान्यता नहीं दी। उस समय एक मोर्चा बना था, जिसमें ईरान-भारत और रूस शामिल था और इसने ऐलान किया कि तालिबान सरकार को मान्यता नहीं देंगे। इस दौर में कमांडर मसूद और नार्दन अलायंस के नेताओं (जिनके पास अफगानिस्तान का कुछ हिस्सा था) ने तालिबानियों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। इधर, इस दौर में अफगानिस्तान और हमारे क्षेत्र का एक और अहम घटनाक्रम धीरे-धीरे आकार ले रहा था...वह था 9/11 के सूत्रधार ओसामा बिन लादेन और तालिबानी नेता मुल्ला उमर के बीच गहराती दोस्ती। वर्ष 2001 के न्यूयार्क में 9/11 की आतंकी घटना के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की एंट्री हुई। अमेरिका, पाकिस्तान सहित कई देशों ने लादेन को अमेरिका को सौंपने की बात कही, लेकिन मुल्ला उमर ने इन्कार कर दिया। फिर अमेरिका सेना का पदार्पण हुआ। उनकी मदद से तालिबानी नेताओं और ओसामा बिन लादेन को खैबर पख्तूनख्वा तक धकेल दिया गया। कुछ बलूचिस्तान में भी जाकर बस गए। तालिबानियों के हटने के बाद अफगानिस्तान इस्लामी रिपब्लिक का जन्म हुआ। जिसका नेतृत्व हामिद करजई ने किया। वह पहले निर्वाचित राष्ट्रपति के रूप में 2004 से 2014 के बीच पदस्थ रहे। इधर, 2004 के बाद से दक्षिण-पूर्वी अफगानिस्तान यानी कंधार वाले इलाके में तालिबानियों का वर्चस्व बढ़ने लगा। खैबर पख्तूनख्वा या बलूचिस्तान के लोगों के बीच तालिबानियों के प्रति सहानुभूति पनपने लगी और इसकी मदद से डूरंड रेखा (अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच लगभग 2,640 किलोमीटर लंबी एक रेखा है, जिसे पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय सीमा मानता हैं लेकिन अफगानिस्तान नहीं। यह रेखा 1893 में ब्रिटिश भारत के सचिव मोर्टिमर डूरंड और अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान खान के बीच हुए एक समझौते से बनी थी। यह रेखा दोनों देशों के पश्तून समुदायों को विभाजित करती है) के आसपास के इलाकों में तालिबानियों का वर्चस्व बढ़ने लगा और वह अफगानिस्तान रिपब्लिक सेना के खिलाफ सीधे मोर्चा लेने लगी।
अफगानिस्तान में 2021 में तालिबानी सरकार लौटी और आप 2017 से लगातार लिखते आ रहे हैं कि भारतीय राजनयिकों को तालिबानियों से बात करना चाहिए। क्या वजह है?
काटजू ने कहा कि बिलकुल सही है। ईपा प्रभारी होने के नाते मैं अफगानिस्तान की सभी गतिविधियों पर 1995 से जुलाई 2001 तक सीधे नजर रख रहा था। मार्च 2002 से जनवरी 2005 तक मैं राजदूत बनकर अफगानिस्तान में पदस्थ हुआ। तब अफगानिस्तान की सत्ता से तालिबानी सरकार हट चुकी थी। हामिद करजई सत्ता में थे और अमेरिका, यूरोप सहित दुनियाभर के दूसरे देशों ने अफगानिस्तान में मदद भेजी जा रही थी। भारत ने भी इस दौर में बहुत काम किया। इस वजह से मुझे अफगान सरकार में रिपब्लिक नेताओं के साथ बहुत काम करने व समझने का मौका मिला। वर्ष 2004 से ही यह संकेत मिलने लगे थे कि रिपब्लिकन सरकार के नेताओं और जनता के बीच की दूरियां मौजूद हैं। आम लोगों को यह लगने लगा था कि जितनी सहायता उनके लिए आ रही है, वह उन तक ठीक से नहीं पहुंच रही है। बद में जैसे जैसे समय बीता, अमेरिका अधिकारियों से यह टिप मिलने लगी थी कि वह मानने लगे हैं कि यह युद्ध खत्म नहीं होने वाला है, इसलिए वह इस युद्ध को और नहीं लड़ना चाहते हैं। वह अफगानिस्तान छोड़कर जाने की तैयारी करने लगे थे। तीसरी, बात यह है कि कान्फ्रेंस या किसी सार्वजनिक मंच से ही तालिबान के नुमाइंदे हमें यह संदेश भेजने लगे थे कि भारत, अफगानिस्तान को पाकिस्तान की कठपुतली न समझे। पाकिस्तान का साथ अभी हमारी मजबूरी है, लेकिन भारत से हमें कोई बैर नहीं है। इन सब कड़ियों को जोड़ते हुए वर्ष 2017 तक मैं इस नतीजे पर पहुंच गया था कि अब हमें तालिबानियों से भी बात करनी चाहिए। उस समय अपने लेखों में मैं इस बात को लिखने लगा था। हालांकि तब हिंदुस्तान और अफगानिस्तान दोनों ही जगह मेरे विचारों का विरोध हुआ। राजनयिकों और मित्रों ने मुझसे कहा भी कि मैं यह क्या लिख रहा हूं, लेकिन मुझे तब भी लगता था कि भारत के लिए यह जरूरी है। आज हम मुत्तकी के दौरे के रूप में इस स्थिति को प्रत्यक्ष रूप से देख रहे हैं।
आपने जो पृष्ठभूमि बताई, उसमें अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच गठजोड़ की पुष्टि होती है। मुत्तकी की बात पर कैसे यकीन किया जाए कि वह भारत सहित किसी भी देश के खिलाफ अपनी धरती का इस्तेमाल नहीं करने देगा?
मैंने आपको बताया था वर्ष 2004 से ही तालिबानी प्रतिनिधि भारत को यह संदेश पहुंचाने लगे थे कि वह भारत से दोस्ती चाहते हैं। भारत उन्हें पाकिस्तान की कठपुतली नहीं समझे। बीते चार साल में उन्होंने यह साबित भी कर दिखाया कि उनकी धरती के उपयोग भारत के खिलाफ नहीं हुआ। तालिबान सरकार ने अपने अंदरूनी मामलों को पाकिस्तानी दखलअंदाजी से दूर किया। जिसकी वजह से अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच दूरियां बढ़ी, विवाद शुरू हो गया। इसके अलावा उन्हें पता था कि जब वह सत्ता में आएंगे, तब उन्हें भारत जैसे दोस्त की जरूरत होगी, जो उनकी भरपूर मदद करता है, लेकिन उनके अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देता है। भारत द्वारा जो मदद कार्यक्रम या ट्रेनिंग का कार्यक्रम चलाए जा रहे थे, वह बेहद लोकप्रिय थे। मुझे याद है एक बार राष्ट्रपति हामिद करजई ने मुझे बुलाया कि हमें ड्राईफ्रूट्स रखने के लिए गोदामों की जरूरत है। उन्होंने फ्रूट्स में टैक्स कम करने का आग्रह भी किया। उस समय हमने उनकी मदद की। एक पाकिस्तानी पत्रकार व अफगान के विषय विशेषज्ञ अहमद राशिद ने अपनी पुस्तक में लिखा कि अफगानिस्तान के विकास के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं में सबसे बेहतर भारत के प्रोजेक्ट्स हैं। यह सही है कि हम लोग अफगानिस्तान के दक्षिण और पूर्व सीमाओं के इलाकों में बहुत ज्यादा काम नहीं कर पाए, लेकिन फिर भी कम संसाधनों के बावूजद हमने बहुत मदद की। एक बार करजाई ने देशों के राजनयिकों को बुलाया। मैं भी उस बैठक में शामिल हुआ। बहुत से राजनयिकों ने उन्हें सलाह दिया, लेकिन उस वक्त मैंने उनसे कहा था कि यह अफगानिस्तान सरकार अपनी जनता की प्राथमिकताएं तय करने में सक्षम है और भारत जितनी मदद कर सकता है, वह करेगा। वर्तमान तालिबान सरकार ने भी यह महसूस किया। तभी तो उनके विदेश मंत्री ने आकर भारत से चिकित्सा, बिजली और माइनिंग क्षेत्र में सहायता की मदद मांगी है।
तो क्या आप यह मानते हैं कि तालिबानियों से बात करने में देरी हुई?
हां। बिलकुल। मैं तो कब से कह रहा था कि हमें बात करना चाहिए। दरवाजा खोलना चाहिए। हालांकि 2021 में तालिबान सरकार के सत्ता पर काबिज होने के बाद भारत सरकार ने दूतावास बंद करने का जो निर्णय लिया, मैं उससे पूरी तरह सहमत हूं। तब भी मुझे तालिबानियों से डर नहीं था, बल्कि चिंता पाकिस्तान की थी। हमें यह अंदाजा नहीं था कि पाकिस्तान अफगानिस्तान के सिस्टम में कितना घुस चुका है और भारत को कितना नुकसान पहुंचा सकता है। 2023 से अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच जब दरार सामने आई, उस समय से ही भारत को तालिबान से औपचारिक बातचीत शुरू कर देनी चाहिए थी। हालांकि बैक चैनल से हमारे राजनयिक लगातार बात कर रहे थे, लेकिन हमने इसे सार्वजनिक नहीं किया। यह डेढ़-दो साल की देरी मुझे थोड़ी खलती है।
इसकी क्या वजह है?
देखिए, अफगानिस्तान-भारत के रिश्तों के बीच पाकिस्तान कभी रुकावट नहीं बन सकता है। इसको लेकर मैं पहले भी बहुत निश्चिंत था और अब भी हूं। मेरी चिंता चीन है...क्यों? इसे इस तरह से समझिए। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हित एक हद तक समान थे। दोनों ही अफगानिस्तान से अमेरिका को बाहर करना चाहते थे, लेकिन इसके आगे दोनों के रास्ते अलग-अलग थे। पाकिस्तान की हमेशा से ही यह इच्छा है कि अफगानिस्तान की विदेश नीति काबुल के बजाय रावलपिंडी से तय हो। खासतौर पर भारत के मामलों में। इसके विपरीत मैं जानता था कि काबुल में कोई भी सरकार हो, वह सिर्फ डेढ़-दो साल तक विवश होगी। उसके बाद वह इसे नहीं मानेगी। यही हुआ और अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बीच 2023 से दरार पैदा हो गया। इसके अलावा तालिबान सरकार के आने के बाद ऐसा विरोध नहीं दिख रहा था कि जो तालिबान सरकार की जड़े हिला दें। ऐसे में देर-सवेर हमें बातचीत शुरू करनी ही पड़ती।
और इसमें चीन की क्या भूमिका है? रेयर अर्थ मिनरल्स का क्या मामला है?
अफगानिस्तान के हिंदु कुश वाले हिस्से में बहुत रेयर अर्थ के साथ और अन्य मिनरल्स भी हैं। चीन ने शेन्जेन इलाके को अफगानिस्तान के साथ जोड़कर इस क्षेत्र में काम शुरू कर दिया है। मेरी बस यही चिंता थी कि इतने बड़े फील्ड में सिर्फ चीन ही उछल-कूद क्यों मचाए। यह हमारे लिए भी मौका था।
तो क्या आप अफगानिस्तान को तत्काल मान्यता देने के पक्ष में हैं?
नहीं। अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास खोलना सही फैसला है। दूतावास का काम-काज संभालने के लिए किसी वरिष्ठ राजनयिक को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर भेजा जा सकता है। राजदूत भेजने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। कूटनीतिक गलियारों में राजदूत भेजना किसी भी देश को एक तरह से मान्यता दे देना होता है। जहां तक बात भारत स्थित अफगानिस्तान दूतावास में तालिबान का झंडा फहराने की है तो इसकी अनुमति दे देना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
तालिबानी सरकार महिला विरोधी है। शुक्रवार को मुत्तकी की प्रेस कान्फ्रेंस में महिला पत्रकारों को प्रतिबंधित किया गया। क्या फिर भी रिश्ते बढ़ाना सही है?
यह सही है कि भारत के संविधान की बुनियाद महिला-पुरुष के समानता के अधिकार पर टिका है। अंतरराष्ट्रीय मानक भी यही है, लेकिन भारत ने कई ऐसे देशों की मान्यता दी है, जहां महिलाओं को पूरी तरह से समान अधिकार नहीं दिए गए हैं। जैसे सऊदी अरब। वहां भी तो इस्लामिक सजा दी जाती है। वहां भी महिलाएं मेहरम (परिवार के पुरूष के बगैर) के बगैर नहीं निकल सकती हैं। नए प्रिंस आने के बाद वहां महिलाओं को कार चलाने की अनुमति मिली। बतौर राजनयिक मेरा मानना है कि कूटनीति हमारे अच्छे या बुरे लगने पर नहीं, बल्कि हमेशा दो देशों के हितों पर आधारित होती है। हमें दूसरे देश के रीति-रिवाज को समझना पड़ता है। हर देश की अपनी एक रिवायत होती है। वह हमारे मानकों पर भले ही खरी नहीं उतरे, लेकिन हो सकता है कि उनका समाज उन्हें मान्यता देता हो। तालिबान सरकार के साथ भी ऐसा ही है।
तालिबान और पाकिस्तान दोनों ही कट्टरता के हिमायती रहे हैं। ऐसे में भरोसा कैसे किया जाए ?
हम सब यह सोचते हैं कि यह सब होमोजीनस (सजातीय) हैं। ऐसा नहीं है। इनमें भी बहुत फर्क है। यह भी अपने हित के जरिये चलते हैं। यह समझना कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हित एक हैं, यह गलत है। जब तालिबान सरकार आई, तो मैंने उस समय लिखा था कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बीच डेढ़ से दो साल रिश्ता चलेगा। उसके बाद यह अलग होने लगेंगे। यही हुआ। 2023 से दोनों देशों के बीच दूरी के संकेत मिलने लगे थे। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में कभी-कभी हित मिलते हैं तो देश साथ चलते हैं। जब विरोध हो जाता है तो अलग हो जाते हैं। साल-डेढ़ दो साल चलेगा, उसके बाद मुश्किलें उत्पन्न होंगी। तालिबान सरकार ने इसे साबित भी किया और बीते चार सालों में अफगानिस्तान की धरती का उपयोग भारत के खिलाफ नहीं हुआ। शुक्रवार को मुत्तकी ने इसकी घोषणा भी की।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा बगराम एयरबेस अमेरिका को सौंपने के आग्रह के बाद भारत, रूस, चीन समेत नौ देशों ने अफगानिस्तान में विदेशी सैन्य ढांचे की स्थापना का विरोध किया। भारत की प्रतिक्रिया पर आपकी क्या राय है?
अफगानिस्तान हाकिम है। उन्होंने अमेरिका को मना कर दिया, तो बात खत्म हो गई। हमारा यही पक्ष होना चाहिए कि हम अफगानिस्तान की सरकार के फैसले का सम्मान करें।
दूतावास खुलने के बाद भारत का बड़ा कदम क्या होना चाहिए?
सबसे पहले वीजा खोलना चाहिए। 2021 के बाद हमने इतने सख्त नियम बना दिए थे, भारत में पढ़ने वाले अफगानी बच्चों को बहुत परेशानी हुई। बहुत से बच्चे थे, जिनकी पीएचडी को पूरा होने में दो-तीन महीने बचे थे। वीजा नहीं मिलने की वजह से उनकी पीएचडी अटक गई। सुरक्षा ध्यान में रखते हुए हमें वीज नियमों पर ज्यादा लोच देनी चाहिए।
अफगानिस्तान से हमारा जुड़ाव ऐतिहासिक से लेकर साहित्य तक रहा है। महाभारत काल में कंधार का उल्लेख आता है और रवींद्रनाथ टैगोर की लेखनी के जरिये काबुलीवाला जीवंत है। कूटनीति में इनका कितना महत्व है?
जब हम ज्यादा इतिहास में जाते हैं तो अपने आपको सिर्फ अपने ही नजरिये से नहीं देख सकते हैं। हम कंधार की बात करेंगे तो क्या वह शेरशाह सूरी का जिक्र नहीं करेंगे। बेहतर है कि इतिहास की शुरुआत 1947 के बाद के पीरियड को ही ध्यान में रखकर किया जाए। अहमद शाह अफदाली ने पानीपत में जो किया, उसे हम भूल नहीं सकते हैं, लेकिन अफगानी उन्हें बाबा कहते हैं। वह मानते हैं आज के अफगानिस्तान की नींव उन्होंने रखी है।
भारत ऐसे देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन, नेपाल, म्यांमार से घिरा हुआ है, जहां या तो तनाव है या फिर वह भारत के लिए तनाव का कारण हैं। इससे निपटने के लिए कोई सुझाव?
हमें पड़ोस को मैनेज करने की जरूरत है। मैनेजमेंट का पहला उसूल यह है कि जहां पड़ोसी है, उसकी जरूरत व महात्वाकांक्षाओं को समझा जाए। जब नरेन्द्र मोदी 2014 में पीएम बने तो उन्होंने कहा था कि सबका साथ सबका विकास। यह सिर्फ भारत तक लागू नहीं हो, बल्कि पड़ोस भी इसमें शामिल हो। पूर्व प्रधानमंत्री गुजराल की नीति याद आती है। वह कहते थे कि हम सभी पड़ोसी देशों की सहायता करेंगे। इसमें चूक नहीं होगी। बस एक शर्त होगी कि हमारी सुरक्षा पर चोट नहीं करे। जैसे, यदि पाकिस्तान, बांग्लादेश में भारत विरोधी गतिविधियां करें तो वह मना करे। यहां मैं तीन उदाहरण देता हूं।
1. कूटनीति में शब्दों का प्रयोग बहुत संभलकर व संयमित होना चाहिए। शब्दों में बड़े देश का अहंकार न झलके। मदद, दान, सहायता, तोहफा जैसे शब्दों से बचा सकता है। अफगानिस्तान में राजदूत रहने के दौरान वहां दवाइयों, भोजन, बसें, एम्बूलेंस आदि की खेपें आती थीं। उस पर लिखा रहता था कि 'गिफ्ट फ्राम इंडिया'। मैंने कहा था कि यह मत लिखो। मदद करके भूल जाओ, जिसे मदद मिली है वह याद रखेगा।
2. छोटे देश ज्यादा संवेदनशील होते हैं। लगातार नजर रखें कि हम जो कह रहे हैं, उसके क्या मायने निकाले जा रहे हैं।
3. छोटे देशों में काम करते वक्त लो की रहना, यानी प्रदर्शन कम हो। दिखाने की जरूरत नहीं है। उन्हें पता है कि आप शक्तिशाली हैं। अफगानिस्तान के कार्यकाल के दौरान ही मैंने दूतावास को रंग-रोगन नहीं करवाया था। मुझे इसके लिए टोका गया, लेकिन जहां आसपास जर्जर भवन थे, वहां भव्य इमारत का प्रदर्शन सही नहीं लगा।
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