विचार: बिहार में तीन अस्मिताओं का मुकाबला, 14 नवंबर को मिलेंगे कई सवालों के जवाब
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने बिहार की सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारकर चुनाव को त्रिकोणीय बना दिया है। इस बार जाति, वर्ग और क्षेत्र की अस्मिता का मुकाबला है। महागठबंधन जातीय समीकरण, राजग वर्ग और प्रशांत किशोर क्षेत्रीय अस्मिता पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। प्रशांत किशोर ने 'जय बिहार' का नारा दिया है। सबकी नजरें प्रशांत किशोर की सफलता पर टिकी हैं, जो किसी भी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगे।

डॉ. एके वर्मा। चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने बिहार की सभी 243 सीटों पर प्रत्याशी उतार कर विधानसभा चुनाव को त्रिकोणीय बना दिया है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि बिहार में पहली बार तीन-अस्मिताओं का भी तिहरा मुकाबला हो रहा है। बिहार में सामान्यतः जातीय-अस्मिताओं के इर्द-गिर्द चुनाव होते रहे हैं, लेकिन इस बार वर्ग और क्षेत्र भी मैदान में हैं।
तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन जातीय-अस्मिता, नीतीश-मोदी के नेतृत्व में राजग वर्ग अस्मिता और जन सुराज पार्टी के प्रशांत किशोर क्षेत्रीय अस्मिता को आधार बनाकर चुनाव लड़ रहे हैं। जहां महागठबंधन मुख्यतः यादव-मुस्लिम समीकरण पर केंद्रित है, राजग ‘सबका-साथ, सबका-विकास’ से विभिन्न सामाजिक वर्गों को अपने चुनाव प्रचार की धुरी बनाए है, वहीं प्रशांत किशोर ने ‘जय-बिहार’ का नारा देकर चुनावी स्पर्धा में एक क्षेत्रीय अस्मिता निर्मित की है। यह चतुराई भरा दांव है।
भले ही प्रशांत किशोर को कोई बड़ी सफलता मिले या न मिले, लेकिन बिहार में पहली बार यह प्रयोग किया गया है। इससे पहले तक तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में ही क्षेत्रीय दल चुनाव प्रचार में क्षेत्रीय अस्मिताओं को रेखांकित करते थे। यह संभावनाओं से भरा है। प्रशांत के अनुसार 14 नवंबर को मतगणना के दिन वे अर्श या फर्श पर होंगे। उनको 10 से कम या 150 सीटें मिलेंगी। क्या ऐसा हो सकेगा?
यह चुनाव विपक्षी दलों राजद और कांग्रेस द्वारा चुनाव आयोग की विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआइआर के जरिये ‘वोट-चोरी’ के आरोप की पृष्ठभूमि में हो रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को लेकर भी चिंताएं थीं और राजग सरकार बनने पर उनका मुख्यमंत्री बनना संदेह से भरा था, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ा, वोट-चोरी का मुद्दा तो अप्रभावी हुआ ही, नीतीश को लेकर संदेह भी दूर होते गए। इस सबके बीच प्रशांत ने चुनावी-रण में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई।
बिहार चुनावों में सामान्यतः जाति और मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में सांप्रदायिकता के आधार पर मतदान होता रहा है। हालांकि मोदी-नीतीश ने मतदान के रुख को जाति और मजहब से आगे बढ़ाकर वर्ग पर केंद्रित किया है। इसमें महिला, युवा, छोटे किसान और गरीब-दलित-शोषित-वंचित वर्ग के लाभार्थी शामिल हैं।
बिहार चुनाव में विजय का आधार अब केवल जाति और मजहब ही नहीं, वरन सुशासन, सुरक्षा, विकास, लोक-कल्याण और नेतृत्व जैसे पहलू भी प्रभावी कारक होते जा रहे हैं। इस चुनाव में प्रशांत किशोर पर भी नजरें होना बहुत स्वाभाविक है। सबके मन में यही सवाल है कि नेताओं को जिताने की व्यूह रचना में पारंगत प्रशांत खुद नेता के रूप में कितने सफल हो पाते हैं? क्या वे अपनी रणनीतिक योग्यता से जन सुराज पार्टी को कुछ सीटों पर विजय दिला सकेंगे?
पिछले तीन-वर्ष पदयात्रा करते हुए करीब पांच हजार गांवों में जनसंपर्क कर उन्होंने जो विकल्प बनाया है, क्या वह लालू के जंगलराज की वापसी रोकेगा? क्या राजग के विकास संबंधी दावों की हवा निकालने में सफल होगा? क्या बिहार की गौरवशाली अस्मिता लौटाएगा, युवाओं का पलायन रोकेगा और राज्य में विकास की गंगा बहाएगा? उन्होंने टिकट बांटते समय इस बात का भी ध्यान रखा है कि उसमें समाज की विभिन्न जातियों का समुचित प्रतिनिधित्व हो।
वे नीतीश-सरकार द्वारा महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपये भेजने की आलोचना करते हुए कहते हैं कि यह पैसा उन्होंने जनता की तिजोरी से लेकर उसी को लौटा कर सरकारी भ्रष्टाचार किया है। इसके बावजूद प्रशांत को यह चुनाव एक जुआ लगता है। वे कहते हैं कि ‘लीप आफ-फेथ’ के कारण लोगों का उनको वोट देना सुनिश्चित नहीं, क्योंकि पिछले 30-40 वर्षों में अव्यवस्था, अराजकता, अपराधीकरण के स्थायित्व में जनता का इतना विश्वास हो गया है कि उसे लगता है कि बिहार में कुछ बदलेगा ही नहीं।
मतदाता के मनोविज्ञान को कुरेदते हुए वे कहते हैं कि अगर जन सुराज का प्रत्याशी खराब हो तो उसे भी वोट न दें और केवल अच्छे लोगों को ही वोट दें, जो बिहार में बदलाव लाएं। वे गारंटी देते हैं कि चुनावों के बाद वे न तो राजग का हिस्सा बनेंगे और न ही महागठबंधन का। इससे दो प्रश्न उठते हैं। पहला कि जनता उन्हें क्यों वोट दे? दूसरा, यदि उनके कुछ विधायक जीत भी गए तो कहीं वे सरकार बनाने वाले गठबंधन की ओर न खिसक जाएं?
इसे प्रशांत भी स्वीकार करते हैं। ऐसे में यह भी देखना होगा कि बिहारी अस्मिता के आधार पर प्रशांत महागठबंधन या राजग किसके वोट बैंक में सेंध लगा पाएंगे। 2024 के लोकसभा चुनावों में एनडीए को 47 प्रतिशत और महागठबंधन को 37 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। प्रशांत इनमें से किसका वोट काटेंगे?
सामान्यतः मतदाता उस पार्टी को वोट देना पसंद करता है, जो अपने बलबूते या गठबंधन के माध्यम से सत्ता में आ सके। जबकि प्रशांत का संकल्प है कि वे राजग और महागठबंधन से समान दूरी बनाकर रखेंगे। इससे संभवतः प्रशांत समर्थक मतदाता भी उन्हें वोट न दें, क्योंकि वे नहीं चाहेंगे कि उनका वोट ‘व्यर्थ’ चला जाए। प्रशांत स्वयं भी चुनाव नहीं लड़ रहे। संभव है वे जोखिम न उठाना चाहते हों। हालांकि राजनीतिक प्रतिफल के लिए जोखिम तो उठाना ही पड़ता है।
बिहार की चुनावी-स्पर्धा में क्या प्रशांत द्वारा ‘क्षेत्रीय-अस्मिता’ को आधार बनाकर राजनीतिक-नेतृत्व ग्रहण करने की कोई संभावना बनती है? बिहार में ओबीसी एक बड़ा फैक्टर है, जिसे मोदी भाजपा की ओर मोड़ने में सफल हुए हैं। जो ओबीसी कभी राजद और जदयू में बंटा करता था, आज उसका एक बड़ा भाग प्रधानमंत्री मोदी को पिछड़े वर्ग के रहनुमा की तरह देखता है। अब यह 14 नवंबर को जनता ही तय करेगी कि क्या बिहारी अस्मिता जातीय और वर्ग अस्मिताओं पर भारी है?
(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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